कांजीवरम रेशम न सिर्फ़ विविध चटख़ रंगों के लिए प्रसिद्ध है बल्कि इससे बनने वाली साड़ियों की डिज़ाइन भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जो उस स्थान के भव्य मंदिरों से प्रेरित होती हैं जहां से कांजीवरम रेशम आता है। लेकिन इसका इस्तेमाल करने वाले या इसके मुरीद लोगों में से कुछ को ही ये पता होगा कि ये रेशम कितना पुराना है और कैसे ये उन कई परंपराओं के समागम का प्रतिनिधित्व करता है जो पल्लव शासकों के संरक्षण में फलीफूली। पल्लव शासक कांचीपुरम पर राज करते थे जहां से रेशम आता है। कांचीपुरम की रेशम की साड़ियां कांजीवरम साड़ियों के नाम से मशहूर हैं। अंग्रेज़ इसे कांगीवरम कहा करते थे, वीं से ना नाम कांजीवरम पड़ा।
कांचीपुरम चेन्नई से 72 कि.मी. दूर स्थित है जिसे कांची भी कहा जाता है। ये भारत के प्राचीनतम शहरों में से एक है। पल्लव राजवंश के शासन के दौरान यह शहर बहुत महत्वपूर्ण सहर हो गया था। छठी शताब्दी के बाद से कांचीपुरम पल्लवों राजवंश की राजधानी हुआ करती थी। यहां सड़के, ऊंची क़िलेबंदी और महत्वपूर्ण भवन हुआ करते थे जिसकी वजह से सारे विश्व से लोग यहां आते थे। ये हिंदू और बौद्ध धर्म के ज्ञान और शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र होता था। सन 640 में यहां आए चीनी यात्री श्यानजांग के अनुसार ये शहर बहुत बड़ा था जिसकी परिधि छह मील थी और यहां के लोग बहुत बहादुर और शिक्षा और ज्ञान से प्यार करनेवाले होते थे। पल्लवों के बाद यहां चोल, पंड्या, विजयनगर साम्राज्य, आरकोट के नवाबों और अंग्रेज़ों ने राज किया। कई राजवंश आते जाते रहे लेकिन कांजीवरम रेशम उद्योग फलता फूलता रहा।
कांजीवरम रोशम के साथ भी एक लोक कथा जुड़ी हुई है। इस लोक कथा में दावा किया गया है कि कांजीवरम रेशम की सैंकड़ों सालों से बुनाई करने वाले पारंपरिक बुनकर दरअसल ऋषि मार्कण्डे के वंशज हैं जो देवताओं के प्रमुख बुनकर थे और जिन्होंने कमल के महीन रुएं से कपड़े की बुनाई की थी। लेकिन इतिहास इस बारे में कुछ और ही कहता है।
विद्वानों के अनुसार पल्लव राजवंश के बाद आए चोल राजवंश के शासन के दौरान कांजीवरम रेशम उद्योग स्थापित हुआ था। ऐसा माना जाता है कि राजा चोल प्रथम ने सन 985-1014 के बीच करधे लगाने के लिये गुजरात के सौराष्ट्र से बड़ी संख्या में बुनकरों को बुलवाकर यहां बसाया था। लेकिन तब रेशम की बुनाई एक स्थानीय विशेषता थी और रेशम सी बुनाई बहुत छोटे पैमाने पर होती थी।
कांजीवरम रेशम की बुनाई की स्थानीय कला, एक सफल उद्योग के रुप में पांच सौ साल के बाद, कृष्णदेव राय (1509-1529) के शासनकाल में ही विकसित हुई। कृष्णदेव राय विजयनगर साम्राज्य के शासक थे। उनके शासनकाल के दौरान आंध्रप्रदेश के बुनकर समुदाय देवांग और सालीगर दक्षिण में कृष्णदेव राय के साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में आकर बस गये। प्रवास की दूसरी लहर के साथ आए बुनकरों के वजह से कांची की पुरानी रेशम परंपरा में नई महारत, नई डिज़ाइन और नई तकनीक शामिल हो गई जिससे यह उद्योग एक नई ऊंचाईयों पर पहुंच गया।
कांजीवरम रेशम उद्योग कुछ सैंकड़ों साल तक फलाफूला लेकिन तभी दो विदेशी ताक़तों के बीच युद्ध की वजह से ये उद्योग लगभग समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया था। 18वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों और फ़्रांसीसियों के बीच कोरोमंडल तट पर कब्ज़े के लिये कई युद्ध हुए थे जिन्हें कर्नाटिक-युद्ध के नाम से जाना जाता है। सन 1757 में युद्ध के दौरान फ़्रांस ने इस शहर को जला डाला था जिससे रेशम उद्योग को बहुत नुक़सान हुआ। लेकिन अंग्रेज़ों की जीत और शांति काल के कारण कांजीवरम उद्योग एक बार फिर फ़ीनिक्स( अमरपक्षी) की तरह बरबाद होकर फिर खड़ा हो गया । उसके बाद से रेशम उद्योग की चमक आज भी बरक़रार है।
रेशम की कांजीवरम साड़ियां ख़ालिस कच्चे रेशम से बनायी जाती हैं जिसे मलबेरी(शहतूत) रेशम कहते हैं। रेशम की कांजीवरम साड़ियों पर सोने और चांदी में ज़री का भारी काम होता है जो इसकी विशेषता होती है। हालंकि बुनाई तमिलनाडु के कांचीपुरम में होती है लेकिन इसके लिये रेशम कर्नाटक और ज़री गुजरात के सूरत से मंगवाई जाती है।
बुनकरों के समुदाय में रेशम की कांजीवरम साड़ियों की बुनकरी की कला पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। हथकरधा उद्योग को कुछ साल पहले तब धक्का लगा था जब भारत सरकार ने पारंपरिक करधे की जगह बिजली से चलने वाले करधे को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इसकी वजह से बड़ी संख्या में बुनकर बेरोज़गार हो गये थे और बाज़ार में कांजीवरम की सस्ती नक़ल आ गई थी।
लेकिन सन 2005 में भारत सरकार ने कांजीवरम रेशम या कांचीपुरम रेशम को मान्यता देते हुए इसे भौगोलिक संकेत (जीआई-जियोग्राफ़ीकल इंडीकेटर) टैग प्रदान किया। ये टैग पारंपरिक तकनीक के द्वारा विशेष डिज़ाइन और पारंपरिक बुनाई को मान्यता प्रदान करता है और ये टैग मिलने के बाद इस रेशम का उत्पादन सिर्फ़ उसी जगह हो सकता है जहां मूल-रूप से इसकी उत्पत्ति होती है। आज इस फूलफल रहे उद्योग से तीस हज़ार से भी ज़्यादा लोग जुड़े हुए हैं।
आवरण चित्र- कांची मंदिर
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.