ढोकरा: धातु ढलाई की एक प्राचीन कला

ढोकरा: धातु ढलाई की एक प्राचीन कला

मोहेनजोदड़ो (2300-1750 ई.पू.) की खुदाई में मिली नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति न सिर्फ़ हड़प्पा सभ्यता की कला की एक प्रसिद्ध कलाकृति है बल्कि ये उस समय की धातु कला का भी एक शानदार नमूना है। लेकिन क्या आपको पता है कि ये धातु ढलाई की अनोखी परंपरा सबसे पुराना उदाहरण भी है जिसे आज हम भारत के कई हिस्सों में ढोकरा नाम से जानते हैं।

इसका नाम ख़ानाबदोश जनजाति ढोकरा दामर के नाम पर पड़ा है जो पश्चिम बंगाल में बांकुड़ा और दरियापुर से लेकर धातु समृद्ध राज्य उड़ीसा और मध्य प्रदेश में रहती थी। ये धातु कला अब झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाक़ों तक ही सीमित रह गई है।

मोहेनजोदड़ो की नाचती लड़की की मूर्ति, छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय, मुंबई | विकिमीडिआ कॉमन्स

मध्य भारत के जिस क्षेत्र में ढोकरा बहुत लोकप्रिय हैं वहां गोंड और भील जैसी भारत की सबसे पुरानी जनजातियां भी रहती हैं जो उप-महाद्वीप के सबसे पुराने निवासी माने जाते हैं। ढोकरा कला शैली और प्रतीक प्राचीन काल के हैं।

ढोकरा का परिचय

ढोकरा अलोह अयस्क कला है जिसमें पुरानी मोम-ढलाई तकनीक का उपयोग करके मूर्तियां बनाईं जाती हैं। कहा जाता है कि ये मूर्ति बनाने की एक ऐसी पहली कला है जिसमें मूर्ति बनाने के लिये तांबा, जस्ता और रांगा (टीन) आदि जैसे अलोह अयस्क का प्रयोग किया गया था। इस धातु विज्ञान का इतिहास चार हज़ार साल पुराना है। इस कला में धातु को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है और फिर धीरे से ठंडा होने के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि इसे मूर्ती बनाने के लिये मनचाहा आकार दिया जा सके।

लेखक प्रभास सेन की पुस्तक ‘क्राफ़्ट ऑफ़ वेस्ट बंगाल’ (1994) के अनुसार ढोकरा बनाने वाले शिल्पी बंगाल के दक्षिण-पश्चिमी जिलों के गांवों में जाया करते थे जहां वे पुराने और टूटे बर्तनों की मरम्मत करते थे और अनाज के बदले लक्ष्मी, उनकी सवारी उल्लू, लक्ष्मी नारायण और राधा-कृष्ण की ढोकरा की छोटी मूर्तियां बेचा करते थे। ये मूर्तियां पवित्र मानी जाती थीं और विश्वास किया जाता था कि इससे घर में समृद्धि और ख़ुशियां आती हैं। ये मूर्तियां विशेषकर नवदंपतियों में बहुत लोकप्रिय होती थीं।

ढोकरा बनाने की प्रक्रिया

अलग अलग क्षेत्रों में ढोकरा मूर्तियां वहां उपलब्ध कच्चे माल के अनुसार बनाई जाती हैं। हालंकि थोड़े बहुत अंतर के साथ तकनीक कुल मिलाकर वही रहती है। ढोकरा कलाकार मिट्टी के सांचे में पहले मूर्ति का मोम-मॉडल बनाते हैं जिसे बाद में हटाकर उसकी जगह तांबे या पीतल को पिघलाकर उसका द्रव्य डाल दिया जाता है। ढलाई की दो प्रक्रिया होती हैं- एक पारंपरिक ख़ाली ढलाई प्रक्रिया होती है और दूसरी ठोस ढलाई प्रक्रिया होती है। ठोस ढलाई प्रक्रिया का प्रयोग दक्षिण में अधिक होता है जबकि मध्य और पूर्वी भारत के हिस्सों में ख़ाली ढलाई प्रक्रिया ज़्यादा चलन में है।

ढोकरा के प्रतीक

चूंकि ये कला आदिम सभ्यता के समय की है इसलिये इसमें तब की जीवनशैली और लोगों की आस्था की झलक मिलती है। ढोकरा कला में हाथी, उल्लू, घोड़े और कछुए की मूर्तियां सदियों से देखी जा रही हैं। हाथी ज्ञान और शक्ति का, घोड़ा गति, उल्लू समृद्धि और मृत्यु का और कछुआ नारीत्व का प्रतीक माना जाता है। ये चारों जीवन के चार गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इन चारों प्रतीकों के पीछे कहानियां हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है विश्व चार हाथियों पर टिका हुआ है जो कछुए की पीठ पर खड़े हैं। कछुआ, जिसे विष्णु का अवतार माना जाता है, अपनी पीठ पर पृथ्वी को समुद्र से उठाए हुए है।

ढोकरा कला की विषय वस्तु में लोक देवी-देवता और हिंदू देवी-देवताओं को ख़ूब देखा जा सकता है। ढोकरा शिल्पी पारंपरिक रुप से लक्ष्मी की मूर्ति तो बनाते ही हैं साथ ही वे सिंगारदान, दीप और नापतोल करने वाले प्याले भी अलग अलग साइज़ में बनाते हैं।

ढोकरा की विभिन्न शैलियां

किसी समय प्राचीन ढोकरा कला पूरे देश में फैली हुई थी लेकिन अब ये देश के कुछ ही हिस्सों में सिमटकर रह गई है जहां इस कला में उस स्थान की शैली दिखाई पड़ती है।

बंगाल

पश्चिम बंगाल में उत्तर बांकुड़ा से कुछ कि.मी. दूर बिकना एक ऐसा गांव है जहां ढोकरा के कुछ प्रमुख पंथ रहते है। गांव के मकानों की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी ढोकरा शिल्पियों की कल्पना और ढोकरा कलाकृतियों की शैली तथा डिज़ाइन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। एक खुली वेदी पर ये आदिवासी टेराकोटा या मिट्टी और ढोकरा धातु की मूर्तियों को पूजा के लिए इस्तेमाल करते हैं। यहाँ ज़्यादातर ढोकरा शिल्पी मल अथवा मलार कहे जाते हैं जो पश्चिम और मध्य बंगाल की एक कृषक उप-जाति है। शोधकर्ता रुथ रीव्स बांकुड़ा ढोकरा समुदाय को कैंकुया मल कहते हैं। कैंकुया शब्द संभवत: नापतोल वाले धातु के पारंपरिक बर्तन से आया है जिसे बंगाली में कुंके कहते हैं।

बांकुड़ा घोड़ा, | अर्चना नायर, दिल्ली

पश्चिम बंगाल में ढोकरा कलाकृति में सबसे लोकप्रिय मूर्ति बांकुड़ा घोड़ा है। कहा जाता है कि बांकुड़ा में बिष्णुपुर से 16 मील दूर पंचमुरा के कुम्हारों ने टेराकोटा में बांकुड़ा घोड़ा बनाने की शुरुआत की थी। गांव के लोग अपने स्थानीय सूर्य देवता के रुप में घोड़े की पूजा करने लगे थे। शुरुआत में बांकुड़ा घोड़ा एक विशाल टेराकोटा की मूर्ति के रुप में बनाया जाता था लेकिन अब यह ढोकरा तकनीक से कांसे धातु में भी बनाया जाता है। कांसे धातु की घोड़े की मूर्ति में सुरुचिपूर्ण लंबे कान और विस्तृत सजावट के साथ एक सममित शरीर का समावेश होता है। बांकुड़ा घोड़े का पारंपरिक रुप से इस्तेमाल गांव वाले इच्छा पूरी होने पर बलि के रुप में करते थे जबकि आज टेराकोटा और ढोकरा में बांकुरा घोड़ों को सजावटी कला के रूप में बेचा जाता है। बांकुड़ा घोड़े की मूर्तियां जोड़े में ही बनाई जाती हैं और जोड़े में ही बेची जाती हैं।

जगन्नाथ देवता | स्वामी गौरांगपाद - फ़्लिकर 

उड़ीसा

उड़ीसा में कंधमाल ज़िले के ढोकरा कारीगर अपने भगवान जगन्नाथ की मूर्तियां बनाते हैं। भगवान जगन्नाथ की लघुमूर्ति को मोम के तारों से बने मुकुट, आभूषणों से सजाया जाता हैं। जगन्नाथ की नाक की नथ भी विस्तृत रूप मे मोम के तारों से सजाई जाती है।

माहुरी एक अनोखा वाद्ययंत्र है जिसे उड़ीसा के लोग तीज-त्यौहार के मौक़े पर बजाना शुभ मानते है। ये वाद्य यंत्र लकड़ी के एक ट्यूब का बना होता है। इसमें सात छेद होते हैं और जिसकी डबल रीड होती है। ये देखने में बांसुरी की तरह लगता है जिसके ऊपर एक विशेष तालपत्री होती है। यह एक सुंदर डोकरा के कलाकृति से जुड़ा होता है, जिसका अंत एक तुरही की तरह खुलता है।

माहुरी वाद्य | विकिमीडिया कॉमन्स

उड़ीसा के कारीगरों ने लोगों की मांग को देखते हुए दुर्गा, सरस्वती, गणेश और शिव की भी ढोकरा मूर्तियां बनानी शुरु कर दी। ये कारीगर पारंपरिक रुप से साबुनदानी, ग्लास और दोवी-देवताओं से संबंधित कछुए जैसे जानवर बनाते थे। इनकी कलाकृतियों में पायल, घुंघरु और उड़ीसा के डोंगरिया कोंधा जनजाति के लोग भी दिखाई पड़ते हैं। बांकुड़ा के बिकना गांव के ढोकरा कारीगरों की कलाकृतियों में, रोज़मर्रा के जीवन में व्यस्त स्त्री-पुरुष, संगीतकार, नृतक, जानवर और मोर तथा उल्लू जैसे पक्षी और देवी-देवताओं की मूर्तियां बहुत प्रसिद्ध हैं।

छत्तीसगढ़

दक्षिण छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर ज़िला कांसे की ढोकरा मूर्तियों के लिये प्रसिद्ध है जो घड़वा जनजाति बनाती है। घड़वा जानजाति को लेकर एक दिलचस्प लोक कथा है। एक बार एक शिल्पकार ने बस्तर के शासक भानचंद की पत्नी को तोहफ़े में एक ढोकरा हार दिया। तभी राजा का ध्यान इस अनोखी कला की तरफ़ गया। शिल्पकार का सम्मान करने के उद्देश्य से शासक ने उसे घड़वा का ख़िताब दे दिया। ये शब्द संभव: गलना से लिया गया था जिसका मतलब होता है पिघलना और मोम का काम। कहा जाता है कि तब से यहां ढोकरा कला का काम होने लगा। बस्तर की ढोकरा कलाकृतियों में ढोकरा सांड या बैल सबसे प्रसिद्ध मूर्ति मानी जाती है। छत्तीसगढ़ की ढोकरा शैली में विशेष लंबी मानव आकृतियाँ बनती हैं। इसके अलावा आदिवासी और हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां भी बहुत प्रसिद्ध हैं।

झारखंड

झारखंड के पुंडी गांव की मल्हार जनजाति ढोकरा पात्र बनाती है जिन पर जानवरों और पक्षियों के रूपांकन बने होते हैं। यहां गणेश और दुर्गा की मूर्तियों के अलावा, लघु मूर्तियां, छोटे बर्तन और छोटे-छोटे आभूषणों की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। हाथी, कछुए, बैल इत्यादि बड़े पैमाने पर यहाँ बनाए जाते हैं।

राज्य के विभिन्न जिलों में ढोकरा कलाकृतियों में उपयोगी वस्तुओं और देवी-देवताओं के अलावा स्थानीय लोग, हाथी की सवारी करते स्थानीय देवी-दोवता तथा घोड़े को दर्शाया जाता है।

ढोकरा कला को कैसे पुनर्जीवित किया जा रहा है

इस कला को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिर जीवित करने के लिये संगठनों, राज्य सरकारों और कई निजी कंपनियों ने प्रयास किये हैं। स्थानीय और विदेशी बाज़ारों में जानवरों की लघु मूर्तियां, डिबिया, प्याले और दीप जैसे ढोकरा उत्पादों की बहुत मांग है क्योंकि ये उत्पाद न सिर्फ़ लोक कला को दर्शाते हैं बल्कि सादगी में इनकी सुंदरता लोगों को लुभाती है।

ढोकरा नैपकिन होल्डर | लिव हिस्ट्री इंडिया

ढोकरा कला का इस्तेमाल समकालीन कलाकृतियां बनाने में नये नये तरीक़ों से जैसे न्यूनतम आभूषण से किया जा रहा है। मौजूदा समय की मांग के अनुसार आज देवी-देवताओं के अलावा ऐशट्रे, दरवाज़ों के नॉब और हैंडल, मानव तथा जानवरों की मूर्तियां, रसोईघर के सामान जैसे छोटे बर्तन, हैंगर, ट्रिंकेट ट्रे और प्रसिद्ध लोगों की मूर्तियां भी बनाई जा रही हैं। ढोकरा कला अपनी सादगी, मनोहारी पैटर्न और लोक चित्रों की वजह से अनोखी मानी जाती है। अब कुछ स्थानों पर उत्पादों के लिए अलंकरण के रूप में सिरेमिक / मिट्टी और पत्थर के बर्तनों के साथ धातु ढोकरा का संयोजन भी किया जा रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में ‘द् नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस, टैक्नॉलॉजी एंड डेवलप्मेंट स्टडीज़’ (NISTADS) ने ढोकरा शिल्पकारों के लिये ईंधन वाली एक कुशल स्थाई भट्टी बनाने के लिये बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज को धन मुहैया करवाया था और सन दो हज़ार तक बांकुड़ा में एक सामुदायिक भट्टी शुरू की गई। इसके अलावा कलाकृति बनाने के औज़ारों में बदलाव तथा तकनीक में भी सुधार किया गया। भट्टी और इन सुधारों की वजह से अब बांकुड़ा के ढोकरा शिल्पकारों को तपती धूप में पारंपरिक खुले भट्टी के सामने घंटों नहीं बैठना पड़ता।

हालंकि इस कला को पुनर्जीवित करने के लिये प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन ढोकरा शिलप्कारों के लिये इस विरासत को ज़िंदा रखना मुश्किल हो रहा है। ढोकरा परिवारों को सबसे बड़ा ख़तरा ग़रीबी से है। कारोबार के दिशा-निर्देश और तकनीक के अभाव में अब ये कला दम तोड़ रही है क्योंकि युवा पीढ़ि इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रही। ढोकरा पर आज ज़्यादा ध्यान देने की ज़रुरत है।

ढोकरा कला एक अनमोल विरासत है जो हज़ारों साल पुरानी है। ये अपने आप में चकित करने वाली बात है कि कैसे ये कला इतने बरसों से ज़िंदा है।

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