मीरा का मेड़ता 

मीरा का मेड़ता 

धिन मीरां धिन मेड़तो, धिन चारभुजा रो नाथ,

जठे बिराजे है सदा, मीरां रो घनश्याम,

चालो-चालो मीरां मेड़तणी के धाम, सांवरियो बठे मिल जासी।

जैसे मधुर भजनों से हमेशा गूंजनेवाली यह नगरी मरू प्रान्त वर्तमान राजस्थान के दिल में बसा एक प्रसिद्ध धार्मिक क़स्बा है जिसे मीरां की नगरी मेड़ता कहा जाता है। इस पौराणिक क़स्बे का सम्बन्ध राजा मान्धता, विदेशी शासक कुषाणों के अलावा गुप्त, सोलंकी-चालुक्य, गुर्जर प्रतिहार, चैहान, गुहिल, सांखला, राठौड़, मुग़ल-काल के बाद अंग्रेज़ी शासकों से भी रहा है।

इतिहास के पृष्ठों में, धार्मिक साहित्य पुराणों के अलावा, राठौड़ों री ख्यात, मुहथा नैणसी री ख्यात, वीर विनोद, मुन्दीयाड़ री ख्यात, जैम्स कर्नल टाड कृत राजस्थान का इतिहास पुस्तक सहित अनेकों ग्रन्थों में इस नगरी का स्वर्णीम इतिहास अंकित है। वर्तमान में यह क़स्बा अजमेर, नागौर, जोधपुर और पाली के मध्य में स्थित है। साहित्य व इतिहासकारों के अनुसार यह क़स्बा प्राचीनकाल से अब तक कई बार उजड़ कर बसता रहा है।

15वीं सदी में राठौड़ वंश के शासक राव वरसिंह व राव दूदाजी ने इसे पुनः बसाया था। मध्यकाल में यह शहर गुजरात, मध्यप्रदेश, दिल्ली व ईरान -इराक़ की तरफ़ आने-जाने वाले व्यापारियों की पहली पंसद था । प्रतिदिन यहां लाखों का व्यापार होता था। यहीं के 52 लखपती लाखन कोटड़ी अजमेर में आज भी बसे हुए हैं। बार-बार वक़्त की मिट्टी के नीचे दबनेवाली इस नगरी के अवशेष आज भी 30 से 40 फ़ीट खुदाई करते ही  निकलने लगते हैं। इन अवशेषों में बड़ी ईटें, मुरड़ की बड़ी दीवारें, बालु-मिट्टी की चिनाई, मिट्टी के बर्तनों के टूकड़े, परकोटे आदि हैं।

गुर्जर-प्रतिहार कालीन प्रतापी शासक नागभट्ट प्रथम व द्वितीय के समय की बावड़ियां, गोवर्धन स्तम्भ और भगवान गणेश की असंख्य मूर्तियां आज भी गौरवशाली इतिहास की दास्तां सुनाने को तैयार हैं। राठौड़ काल में कई ऐसे वीर सूरमाओं ने यहां जन्म लिया जिनका नाम आज भी चांद और सूरज की तरह चमक रहा है।

राठौड़ काल से पूर्व मारवाड़ (मेड़ता)

राजस्थान (मरू प्रान्त) के अद्धितीय इतिहास में भी मारवाड़ का इतिहास युगों पुराना है। इस भू-भाग पर भी कई राजवंशों का अलग अलग समय पर आधिपत्य रहा था। इन राजवंशों में प्रसिद्ध नाम राठौड़ वंश का रहा है। मगर इनसे पूर्व मारवाड़ में गुप्त, गुर्जर-प्रतिहार, चालुक्य, सोंलकी, गुहिल, सिसोदिया, सांखला, चौहान, नाग, दहिया और गौड़ राजवंशों का भी शासन रहा है। इससे भी पूर्व की घटनाओं या इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो

पता चलता है कि मारवाड़ पर, महाभारत के अनुसार कौरवों का अधिकार भी रहा था। इनके बाद प्रसिद्ध मौर्यवंश और उसके बाद शुंगवंश, कुषाणवंश के साथ शक वंश का भी अधिकार रहा था।

राव दूदा जी मेड़ता शहर के संस्थापक  | टीम लिव हिस्ट्री इंडिया  

मेड़ता के क़रीब पाडूका माताजी मंदिर प्रांगण में गुर्जर-प्रतिहार कालीन बावड़ी से निकले 10वीं, 11वीं सदी के शिला-लेखों के आधार पर यह बात सिद्ध हो जाती है कि इस क्षेत्र में 13वीं सदी तक हिन्दू शासकों का ही शासन रहा था। वह मारवाड़ में 13वीं सदी के मध्य में राठौड़ राजवंश का आगमन हुआ था। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव वरसिंह और राव दूदा ने पौराणिक नगरी मेड़ता को 15वीं सदी में अपनी राजधानी बनाया था। राव दूदाजी के बाद इनके बड़े पुत्र राव वीरमदेव मेड़ता की गद्दी पर बैठे थे। वीरमदेव जी के छोटे भाई राव रायमल, रायसल, रतनसी और पंचायण थे।

राव वीरमदेव के समय जोधपुर -मारवाड़ के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर कई बार हमले किए थे। इन दोनों शासकों के बीच जीवन भर दुश्मी रही थी। जिसके कारण मारवाड़ का इतिहासिक ‘‘सुमेल-गिरी’’ युद्ध हुआ था। इसमें दिल्ली के शासक शेर शाह सूरी ने मेड़ता के राव वीरमदेव का साथ दिया था इसी वजह से राव माल देव की हार हुई थी।

राव वीरमदेव के बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र राव जयमल्ल जी मेड़ता के शासक हुए थे। यह वीर और भगवान चतुर्भुजनाथ के परम भक्त हुए और चित्तौड़ के तीसरे शाके (वि.सं. 1624) में वीरगति को प्राप्त हुए थे। इससे पूर्व अजमेर के पास हरमाड़ा के युद्ध के बाद मालदेव का मेड़ता पर अधिकार हो जाने के कारण जयमल्ल जी को मेवाड़ की ओर प्रस्थान करना पड़ा और वहां उनको मेवाड़ राज्य की और से भीलवाड़ा क्षेत्र के बदनोर ठिकाना प्रदान किया गया था। इनके वंशज आज भी यहां रहते हैं। वर्तमान में श्री वी.पी.सिंह पंजाब राज्य के राज्यपाल हैं तथा श्री संजय सिंह श्री जयमल्ल न्यास पुष्कर के अध्यक्ष हैं।

मेड़ता शहर  | टीम लिव हिस्ट्री इंडिया  

इस शहर में सभी जाति, वर्ग, धर्म और सम्प्रदाय के लोग, सभी तीज-त्यौहार, पर्व आपसी सौहार्द के साथ बड़े उत्साह व उमंग से मनाते हैं। जिनमें मीरां जन्मोत्सव, गणेश महोत्सव, नवरात्रा महोत्सव, दीपावली, होली, ईद आदि प्रमुख हैं। पर्यटक स्थल के रूप में मुख्य श्री चारभुजानाथ एवं भक्त शिरोमणि मीरां बाई मंदिर, मीरांबाई स्मारक (राव दूदागढ़), मीरां महल, शाही जामा मस्जिद, मालकोट दुर्ग के अलावा शहर की चारों दिशाओं में रमणीक स्थलों के रूप में दुदा सागर, देवरानी तालाब, कुन्डल और विष्णु सरोवर स्थित हैं।

एक पर्यटन-स्थल के रूप में मेड़ता में सारी विशेषताएं मौजूद हैं। यहां कई ऐसी जगहें हैं जिनमें मीरांबाई की यादें बसी हुई हैं। जो पर्यटकों के लिए आस्था,श्रद्धा और आकर्षण के केन्द्र हैं।

चारभुजानाथ देवता की मूर्ति  | टीम लिव हिस्ट्री इंडिया  

चारभुजानाथ एवं मीराबाई मंदिर:

इस मन्दिर में मुख्यरूप से हरि विष्णु भगवान के चारभुजा स्वरूप विग्रह स्थापित है। 15वीं सदी में राव दूदा ने यहां मंदिर का निर्माण करवाकर यहीं पर भूगर्भ से निकली चारभुजानाथ की मुर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। यह मूर्ति अत्यन्त आकर्षक एवं मनमोहक हैं।मीरांबाई इसी प्रतिमा को प्रतिदिन दूध का भोग लगाती थीं। यही परम्परा आज भी क़ायम है जो मौची परिवार के सदस्यों द्वारा निभाई जा रही है। भगवान चारभुजानाथ के ठीक सामने मीरांबाई की अद्भूत मूर्ति लगी हुई है। इन दोनों मूर्तियों के बीच दूरी होने के बावजूद उनकी एक-दूसरे पर सीधी दृष्टि रहती है। मंदिर में अनेक देवी-देवताओं की मुर्तियां और चित्र लगे हुए हैं। स्तम्भों पर रंगीन कांच की सुन्दर कलाकृतियां बनी हैं जो दर्शकों का मन मोह लेता हैं। मंदिर के गर्भगृह में मीरां के गिरधर गोपाल की अष्टभुजी प्रतिमा सहित कल्याणरायजी भी विराजमान हैं। मीरां के जीवन की ज्ञान-भक्ति और आध्यात्मिक यात्रा यहीं से शुरू हुई थी। आज भी इनके प्रति सभी लोगों की अटूट आस्था है। इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या प्रातःकाल से रात्रि शयन आरती तक भगवान चारभुजा के दर्शन से होती है।

मीरा स्मारक | टीम लिव हिस्ट्री  इंडिया  

मीरा स्मारक (रावदूदागढ़):

15वीं सदी में निर्मित इस भवन में भक्त शिरोमणि मीराबाई के जन्म से द्वारका तक के जीवन को, मूर्तियों, पैनल व चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। यह भवन मध्य कालीन दुर्ग स्थापत्य शिल्प कला का नायाब नमूना है। रक्त-बलुआ से निर्मित इस भवन में, राजपूत और मुग़ल स्थापत्य शैली का सुन्दर उदाहरण है। रियासत-काल में इसका उपयोग राज दरबार एवं न्यायालय के रूप में किया जाता था। सन् 2008 से पूर्व तक यहां कचहरी, सेन्ट्रल जेल और राजकीय विद्यालय हुआ करते थे।

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मीरा महल (विष्णु सरोवर):

विक्रम संवत् 1518 में नए मेड़ता की स्थापना के साथ ही राव वरसिंह व राव दूदा ने शहर की उत्तर दिशा में स्थित विष्णु सरोवर के किनारे राजमहल का निर्माण करवाया था जो अभी मीरा महल के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा संरक्षित इस महल के चारों ओर विष्णु सागर के जल में सुन्दर कमल के पुष्प खिले होने से इस महल के नज़ारे में चार चांद लग जाते हैं। इस महल में सरोवर से पानी पहुंचाने के लिए प्राचीन विधि का उपयोग किया हुआ था। जिनके अवशेष आज भी मौजूद हैं। बाल्यकाल से किशोर अवस्था तक मीरा का आवास स्थल यही महल रहा था। लेकिन संरक्षण के अभाव में यह महल खण्डहर बन चुका है। इस तालाब के किनारे अनेक कलात्मक छतरियां बनी हुई हैं।

मालकोट दुर्ग | टीम लिव हिस्ट्री  इंडिया  

मालकोट दुर्ग (कुण्डल सरोवर):

शहर की दक्षिण दिशा में पौराणिक व ऐतिहासिक कुण्डल सरोवर के किनारे जल दुर्ग के रूप में मालकोट दुर्ग आज भी अपना सीना ताने अपने गौरवशाली अतित की दास्तां सुनाने के लिए खड़ा है। यहां कई लड़ाईयां लड़ी गई थीं। मुख्य रूप से राठौड़ मराठा युद्ध में चलाए गई तोपों के गोलों के निशान आज भी इस दुर्ग की प्राचीरों व बुर्जों पर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। इस दुर्ग का उपयोग सैन्य छावनी के रूप में किया जाता था। सुरक्षा की दृष्टि से इस दुर्ग के चारों ओर गहरी खाईयों में कुण्डल सरोवर का पानी भरा रहता था। दुर्ग में एक गुर्जर प्रतिहार कालीन प्राचीन बावड़ी भी मौजूद है। जो शिल्पकला की दृष्टि से महत्व पूर्ण है। यह दुर्ग पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्थल है।

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मुख्य पर्व मीरा महोत्सव: मेड़ता नगर का सबसे महत्वपूर्ण विशाल आयोजन प्रतिवर्ष सावन मास के शुक्ल पक्ष की छठ से एकादशी तक मनाया जाता है। जो मीरा महोत्सव के नाम से जाना जाता है। इस दौरान महिलाओं एवं पुरूषों द्वारा सात दिनों तक आठों पहर खड़े-खड़े भजन किर्तन किया जाता है। इसके साथ ही विभिन्न प्रकार की झांकियां सजाई जाती हैं। एकादशी के दिन विशाल भजन संगीत संध्या का आयोजन किया जाता है। मीरां महोत्सव के दौरान मीरां के जीवन पर नाटक, नृत्य-नाटिकाओं व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस महोत्सव में मेड़ता के प्रसिद्ध दूध के पेड़े व मोईतिली प्रसाद का प्रतिदिन वितरण किया जाता है। सावन और भादव माह में यहां बारिश के बाद सभी तलाबों का नज़ारा अद्भूत हो जाता है। वहीं शहर के हर गली मौहल्ले में धार्मिक आयोजनों का आगाज़ हो जाता है। जो दीपावली तक निरन्तर चलता रहता है।

‘‘सुरपुरी मांहि इन्द्रपुर सरस,

  पिण मरूधर मांहि मेड़तो।।’’

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