नूरपुर क़िला: कांगड़ा का एक नगीना

नूरपुर क़िला: कांगड़ा का एक नगीना

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले में, नूरपुर क़िला भले ही सैलानियों की पसंदीदा जगह न हो लेकिन इसका क्षेत्र के इतिहास में बहुत महत्व रहा है। हाईवे से पास ही, पठानकोट से धर्मशाला के रास्ते पर एक पहाड़ी पर स्थित ये क़िला 16वीं और 19वीं शताब्दी के बीच नूरपुर पहाड़ी रियासत का सत्ता केंद्र हुआ करता था। लेकिन क्या आपको पता है कि बावजूद सुर्ख़ियों से दूर रहने से इस क़िले पर जहांगीर की नज़र क्यों पड़ी और ऐसा क्यों कहा जाता है कि इसका नाम जहांगीर की प्रिय बेगम नूरजहां के नाम पर रखा गया था? क्या इस बात में सच्चाई है ? चलिए इस बारे में खोजबीन करते हैं।

पठानकोट शहर से 25 कि.मी. दूर स्थित नूरपुर क़िला एक पहाड़ी मैदान पर बना है जो उस पश्चिमी पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर है जहां नूरपुर शहर बसाया गया था। नूरपुर रियासत का शक्ति केंद्र नूरपुर क़िला 16वीं सदी का है जिसे पठानिया राजवंश के राजा बासुदेव ने बनवाया था।

इस क़िले में पुराना ब्रिज राज स्वामी मंदिर भी है जहां आज भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। ये मंदिर अपने आप में अनोखा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ये एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान कृष्ण और मीरा बाई दोनों की एक साथ अराधना की जाती है। क़िले की स्थिति आज दयनीय है लेकिन फिर भी ये अपनी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है।

पहाड़ की अन्य ख़ुशहाल छोटी रियासतों की तरह नूरपुर का भी लंबा इतिहास है। नूरपुर शहर, नूरपुर पहाड़ी-रियासत की राजधानी हुआ करती थी। ऐसा माना जाता है कि रियासत की स्थापना 11वीं सदी में झेत पाल ने की थी जो तोमर राजपूतों का छोटा भाई था। तोमर राजपूतों का एक समय दिल्ली पर राज हुआ करता था।

मुग़ल शासन के दौरान नूरपुर मुग़लों की सामंती रियासत बन गई थी। इस रियासत में पहले पठानकोट और बड़े मैदानी इलाक़े (मौजूदा समय में नूरपुर शहर) और शाहपुर तथा कांडी जैसे शहर आते थे। रियासत की उत्तरी दिशा में चंबा नदी, पूर्व दिशा में कांगड़ा और गूलर, दक्षिण में पंजाब पठार और पश्चिम में रावी नदी होती थी।

नूरपुर रियासत की मूल राजधानी पठानकोट था लेकिन 16वीं सदी में राजा बासुदेव (सन 1580-1613) ने पठानकोट, जिसे पहले पैठन कहा जाता था, की जगह नूरपुर को राजधानी बना लिया। नूरपुर के शासक पठानिया राजवंश के थे। ये नाम शायद पैठन क्षेत्र से लिया गया था।

नूरपुर शहर को इससे पहले कई नामों से जाना जाता रहा था। नूरपुर रियासत का उल्लेख एक से ज़्यादा मुग़ल बादशाहों के लेखकों की किताबों में मिलता है। उदाहरण के लिए बादशाह अकबर द्वारा अधिकृत किताब. “तारीख़-ए-अल्फ़ी (1685)” में शहर का नाम “दामल” है। इस किताब में बताया गया है कि ये शहर हिंदुस्तान की सीमाओं पर एक पहाड़ी पर स्थित था। बादशाह जहांगीर की आत्मकथा रुपी किताब “तुज़ुक-ए-जहांगीरी” में शहर का “धमेरी” नाम से उल्लेख है जबकि युरोपीय यायावरों की किताबों में इसका उल्लेख “तेम्मरी” नाम से है।

पैलेस के अवशेष | विराट कोठारे  

दिलचस्प बात ये है बादशाह जहांगीर के सम्मान में धमेरी का नाम बदलकर नूरपुर कर दिया गया था। तुज़ुक-ए-जहांगीरी और शश फ़तह-ए-कांगड़ा (जिसे बादशाह शाहजहां के समय अधिकृत किया गया था), के अनुसार जहांगीर सन 1622 में जब कांगड़ा से वापस आ रहा था तब वह धमेरी से गुज़रा था। तभी धमेरी का नाम नूरपुर रखा गया था। एक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार इसका नाम जहांगीर की प्रिय बेगम नूरजहां के नाम पर रखा गया था क्योंकि नूरजहां इसकी ख़ूबसूरती से बहुत प्रभावित हुई थी। लेकिन बहुत मुमकिन है कि नूरपुर नाम जहांगीर के नाम पर ही रखा गया हो कियोंकि जहांगीर का असली नाम नूरउद्दीन मोहम्मद सलीम था।

कहा जाता है कि जहांगीर इसे देखकर इतना ख़ुश हुआ था कि उसने यहां क़िले के लायक़ और भी भवन बनाने के लिए शाही ख़ज़ाने से एक लाख रुपयए दे दिए थे। ऐसा लगता है कि ये भवन नूरजहां के लिए ही बनावाए गए थे क्योंकि नूरजहां, नूरपुर की ख़ूबसूरती पर फ़िदा हो गई थी।

क़िले के खंडहरों को देखकर लगता है कि ये किसी समय बहुत विशाल और ख़ूबसूरत रहा होगा। हालंकि इसे राजा बासुदेव ने 16वीं सदी में बनवाया था लेकिन बाद के शासकों ने भी कम से कम एक सदी तक इसमें जोड़तोड़ किए। क़िले के मुख्य द्वार को देखकर तो आपकी सांसे थम जाएंगी। क़िले के कई बुर्ज और ढांचे अब भी हैं और भव्य लगते हैं। अवशेषों में नक़्क़ाशीदार पैनल और दीवारें हैं जिसमें रोज़मर्रा जीवन का चित्रण है। इसके अलावा फूल-पत्तियों और पशु-पक्षियों की चित्रकारी भी हैं। ब्रिज राज स्वामी मंदिर की दीवारों की तरह अन्य ढांचों की दीवारों पर ख़ूबसूरत भित्ति चित्र हैं। कहा जाता है कि नूरपुर के शासक पहाड़ी चित्रकारी के संरक्षक हुआ करते थे।

क़िले की दीवारों पर भित्ति चित्र | विराट कोठारे  

क़िले में अन्य प्रमुख ढांचे दो मंदिरों के हैं। एक मंदिर के अवशेष सन 1886-87 की खुदाई में मिले थे जबकि दूसरा ब्रिज राज मंदिर है जिसे ऐतिहासिक दस्तावेज़ में ठाकुरद्वारा कहा जाता है। यह मंदिर लोगों में बहुत लोकप्रिय है। इन दोनों मंदिरों के साथ दिलचस्प कहानियां जुड़ी हुई हैं।

ब्रिज राज स्वामी मंदिर  | विराट कोठारे 

भगवान कृष्ण को समर्पित ब्रिज राज स्वामी मंदिर नूरपुर रियासत के राजा मंधाता (सन 1661-1700) ने बनवाया था। इसमें मीरा बाई की एक मूर्ति भी है। ये मंदिर, अपनी तरह का एकमात्र और अनोखा मंदिर है, जहां भगवान कृष्ण और मीरा बाई दोनों की पूजा की जाती है। कृष्ण की मुख्य प्रतिमा काले संगमरमर की है और इसकी कारीगरी कमाल की है। लोकप्रिय मान्यता के अनुसार मीरा इस प्रतिमा की पूजा करती थीं। नूरपुर के राजा जब चित्तौड़गढ़ गए थे तब चित्तौड़गढ़ के महाराणा ने तोहफ़े में उन्हें ये प्रतिमा दी थी। ये मंदिर सभागार के रुप में बना है जिसकी दीवारों पर चित्रकारी है जिसमें कृष्ण के जीवन को दर्शाया गया है। मंदिर की एक तिकोनी जगह पर एक पेंटिंग है जो मंदिर के संस्थापक की हो सकती है।

सन 1886 में पंजाब सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षक सी.जे. रॉजर्स द्वारा की गई खुदाई में मिला दूसरा मंदिर भी पहले मंदिर की तरह सुंदर है। खुदाई के पहले यहां एक टीला हुआ करता था लेकिन टीले की खुदाई के बाद रॉजर्स को एक बड़े मंदिर का तलघर मिला। तलघर में नक़्क़ाशी के अलावा कई मूर्तियों के अवशेष मिले जो कभी मंदिर के ऊपरी हिस्से में हुआ करते थे।

ये मंदिर लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था जिसमें एक मंडप होता था। एक अंत्रालय था जो गर्भगृह की तरफ़ जाता था। कोनों में अष्टकोणीय आले थे। ये मंदिर मथुरा के पास वृंदावन के गोविंद देवजी और गोवर्धन के हरिदेव मंदिर से बहुत मिलता जुलता है। मंदिर की डिज़ाइन और सजावट पर मुग़ल वास्तुकला का प्रभाव दिखआई देता है।

किले में कुछ अवशेष  | विराट कोठारे  

नूरपुर मुग़लों की सामंती रियासत हुआ करता था। राजा मंधाता मुग़ल बादशाहों के मातहत काम करने वाले अंतिम पठानिया राजा थे। नूरपुर के बाक़ी शासकों ने 18वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद शासन किया और सिखों के उदय के पहले तक वे शांति से राज करते रहे।

सन 1805 में सत्ता मे आए राजा बीर सिंह नूरपुर के अंतिम शासक थे। सन 1815 में सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह ने राजा बीर सिंह को रियासत से बेदख़ल कर दिया और राजा बीर सिंह, चंबा की तरफ़ भाग गया। राजा बीर सिंह और उसके उत्तराधिकारियों ने नूरपुर पर दोबार कब्ज़ा करने की कई बार कोशिशें कीं लेकिन नाकाम रहे। सन 1857 के विद्रोह में नूरपुर क़िला और कई अन्य ऐतिहासिक स्मारक नष्ट कर दिए गए थे। सन 1845 और सन 1846 के दौरान पहले एंग्लो-सिख युद्ध के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1849 में नूरपुर का अधिग्रहण कर लिया। आज नूरपुर क़िला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में है। नूरपुर के शासक भले ही छोटे रह हों लेकिन वे शक्तिशाली थे। नूरपुर में आज भी उन शासकों के दौर की झलक देकने को मिलती है। और इस क़िले के अलावा यहं के वैभवशाली मंदिरों को भी देखा जाना ज़रूरी है।

मुख्य चित्र: क़िले का प्रवेश द्वार, विराट कोठारे

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