ख़ैराबाद का इमामबाड़ा

ख़ैराबाद का इमामबाड़ा

उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से 88 किलोमीटर दूर, सीतापुर ज़िले का ऐतिहासिक कस्बा ख़ैराबाद आज भी सम्पन्न है, जहां राज्य की महत्वपूर्ण गतिविधियां चलती आ रही हैं। ऐसा माना जाता है कि ख़ैराबाद, अवध का सबसे बड़ा सूबा रहा होगा। ख़ैराबाद में नवाबी दौर की आलीशान इमारतें हैं जो वक़्त के साथ ख़त्म होती जा रही हैं, जैसे मक्का दरज़ी इमामबाड़ा जिसको नवाब के सबसे प्रिय दरज़ी ने बनवाया था।

कहा जाता है कि महाराजा छीता पासी ने यह शहर, 11वीं सदी के पहले पांच साल में ही बसा दिया था। उसके बाद यह कायस्थ परीवार की मिल्कियत बन गया। पूरानी कथाओं से पता चलता है कि एक ज़माने में यह शहर बहुत ख़ुशहाल था और मुग़ल शासनकाल में यह अवध के मुख्यालयों में से एक था। मुग़ल शासन के पतन के बाद यह अवध के नवाबों के हाथों में आ गया और नवाबों ने ख़ुद को रियासत का शासक घोषित कर दिया।

अवध के दूसरे बादशाह, नवाब नसीर उद्दीन हैदर(1827-1837) यूरोपीय चीज़ों के बहुत बड़े शौक़ीन थे। वह यूरोपीय संस्कृति से बहुत प्रभावित थे, ख़ासकर उनके खाने-पीने के तरीक़ों से। नसीर उद्दीन अपने यूरोपीय दोस्तों के तौर-तरीक़ों में पूरी तरह डूब चुके थे। उन्हें यूरोपीय अंदाज़ के लिबास बेहद पसंद थे। उस तरह के कपड़े, पूरी रियासत में सिर्फ़ एक ही शख़्स ही तैयार कर सकता था और वह था….नवाब का सबसे प्रिय, ख़ैराबाद का रहनेवाला दरज़ी जिसे मक्का दरज़ी के नाम से जाना जाता था। मक्का दरज़ी, 19वीं शताब्दी के अवध का पहला डिज़ाइनर था जिसने बादशाह के पांच अंग्रेज़ दोस्तों से, यूरोपीय तर्ज़ के लिबास तैयार करना सीखे थे। वह दरज़ी, बेशक अवध रियासत का पहला डिज़ाइनर था लेकिन आज उसे, उसके हुनर की वजह से कोई नहीं जानता।

नवाब नसीर उद्दीन हैदर अपनी यूरोपीय पोशाक में | विकिमीडिया कॉमन्स

कहा जाता है कि मक्का दरज़ी से काम करवना बहुत मंहगा सौदा होता था। वह नवाब से अंग्रेज़ी लिबास सिलने के काफ़ी मंहगे दाम लेता था। वह नवाब के बदन पर ज़ेब देनेवाले शाही लिबास के लिए ज़रूरी चीज़ों की क़ीमत भी बहुत ज़्यादा लेता था। नवाब नसीर उद्दीन भी यूरोपीय तौर-तरीक़ो के नशे में इस क़दर चूर थे कि उन्हें इस तरह पैसा बहाने में कोई परेशानी नहीं होती थी। लेकिन उनके आसपास के लोग दबी ज़बान से इस बात की आलोचना भी करते थे। बहुत जल्द मक्का दरज़ी के दुश्मन भी पैदा हो गए। क्योंकि वह नवाब के यूरोपीय लिबासों की डिज़ाइन में नित-नए रंग भरता जा रहा था।

यही वजह रही कि मक्का दरज़ी की, शाही दरबार से रुख़्सती भी जल्द हो गई। वह लखनऊ से अपने शहर ख़ैराबाद चला गया और वहां सुकून से गुमनामी की ज़िंदगी गुज़ारने लगा। कई मामलों में मक्का दरज़ी को धोखेबाज़ की तरह भी याद किया जाता है। ख़ासतौर पर इसलिए भी कि उसने आलीशान ख़ैराबाद इमामबाड़े या मक्का दरज़ी इमामबाड़े के लिए बहुत बड़ी रक़म खर्च की थी। हालांकि उसने यह इमामबाड़ा पैग़म्बर साहेब के ख़ानदान की, मैदान-ए-करबला में दी गई क़ुरबानी की याद में होनेवाली अज़ादारी के लिए बनवाया था।

इमामबाड़ा खैराबाद | विकिमीडिया कॉमन्स

इस परिसर में मक्का दरज़ी इमामबाड़ा, क़दम रसूल और मस्जिद को अवधी शिल्पकारी का बेहतरीन नमूना माना जाता है। मक्का दरज़ी ने, नवाब के साथ अपने रिश्तों और नवाब के लिए मंहगे यूरोपीय लिबासों की सिलाई से कमाई गई दौलत के बलबूते पर ही, ख़ुद यह इमाम बाड़ा बवाया था। मक्का दरज़ी ने इमाम बाड़े की तामीर में अपनी कलात्मक-प्रतिभा, अपने सौंदर्य- बोध और दृश्य-बोध का भरपूर इस्तेमाल किया था। परिसर की ज़मीनी सतह रिवायती डिज़िन में न बनाकर, एक लग अंदाज़ में बनाई गई थी। इमामबाड़े के अंदर ऊंची ऊंची दीवारों वाला एक छोटा कमरा है जिसमें नुकीली मेहराबें हैं और एक प्रवेश-द्वार है। इसकी साज-सज्जा निहायत ख़ूबसूरत है।

मस्जिद के कलात्मक गुंबद | सय्यद मोईन अलवी 

यह इमामबाड़ा तीन हिस्सों में बटा हुआ है जो पूर्वी-पश्चिमी धुरी पर टिके हैं एक और एक दूसरे के क़रीब हैं। इमामबाड़े की छत की डिज़ाइन भी बहुत दिलचस्प है। यह किनारों की तरफ़ से समतल है लेकिन बीच में से उठा हुआ है। अंदर का हिस्सा भी बहुत सुंदर है और काफ़ी सजाया गया है।इमाम बाड़े के सामने वाले हिस्से पतरे के ऊपर, चादर से ठकी महराबों की क़तार है । उनमें से हर एक पर तीन छोटी गोल मेहराबें हैं।

आज हॉल के अंदर की तस्वीर | सय्यद मोईन अलवी

अफ़सोस की बात यह है कि क़दम रसूल और इमामबाड़ा दोनों जर जर हालत में हैं। पिछले दिनों ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि इमाम बाड़े के बाहरी दरवाज़े को जबरन ढ़हा दिया गया है। ज़ाहिर है इससे इमामबाड़े की इमारत को नुक़सान तो पहुंच ही गया है । बावजूद इसके, इस महत्वपूर्ण धरोहर के संरक्षण, मरम्मत या हिफ़ाज़त के लिए कोई सरकारी विभाग आगे नहीं आ रहा है।

इमामबाड़ा की जर जर हालत | सय्यद मोईन अलवी 

इस इमामबाड़ा-परिसर की लगातार हो रही अनदेखी की वजह से, शाही दरज़ी यानी मक्का दरज़ी के योगदान की न पूछ हो रही है न कोई इज़्ज़त। मक्का दरज़ी की क़ब्र भी इसी परिसर में है।चंद साल पहले कुछ स्थान्य लोगों ने इसकी मरम्मत का बीड़ा उठाया था लेकिन वह इस काम के लिए न तो पेश्वर सहयोग हासिल कर पाए और न ही आर्थिक मदद जुटा पाए। इस इमारत को बचाने के लिए समाज सेवी व सूफ़ी स्कालर सय्यद मोईन अलवी कोशिश में लगे हैं जो ख़ुद ख़ैराबाद के एक जागरुक निवासी हैं। हैरानी की बात यह है कि 19वीं सदी के इस स्मारक को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की सूची में भी शामिल नहीं किया गया है। ज़ाहिर है यह बेशक़ीमती धरोहर आहिस्ता आहिस्ता खंडहर में तब्दील होती जा रही है।

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading