महाम अंगा: एक दाई माँ की सरकार 

महाम अंगा: एक दाई माँ की सरकार 

सन 1561 के क़रीब महाम अंगा बहुत शक्तिशाली हो गई थी और वह लगभग सरकार चलाती थी, जिसे “पेटीकोट सरकार” कहा जाता था। वह एक ऐसे व्यक्ति की दाई मां थी, जो आगे चलकर बादशाह बनने वाला था। महाम अंगा बहुत ही महात्वाकांक्षी थी और अपनी महात्वकांक्षाओं को पूरा करने के तरीक़े भी जानती थी।

अंगा ने ख़ैर-उल-मंज़िल, एक मस्जिद और एक मदरसा बनवाया था, जो सिर्फ़ महिलाओं के लिए था। ये मदरसा मुग़ल बादशाह हुमांयू के दीनपनाह क़िले (पुराना क़िला) के एकदम सामने और बादशाह शेर शाह सूरी द्वारा बनवाए गए विशाल प्रवेश-द्वार, यानी लाल दरवाज़े के बिल्कुल पास में है। इससे अंगा की महत्वकांक्षों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

प्रवेश-द्वार पर अंकित अभिलेख में लिखा है,“जलालउद्दीन मोहम्मद (अकबर), जो बादशाहों का बादशाह है, के नाम पर पवित्रता की रक्षक महाम बेग (अंगा) ने धार्मिक कामों के लिए ये भवन बनवाया, ख़ैर-उल-मंज़िल बनवाने में शहाबुद्दीन अहमद ख़ान (अंगा का दामाद) ने मदद की।”

मस्जिद की ऊपरी मंज़िल में कक्षाएं और एक ऊंचे पर्दे के भीतर एक दालान था, जिससे लगता है कि मदरसा सिर्फ़ लड़कियों के लिए और मस्जिद महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। मुख्य-द्वार लाल बालू पत्थर का बना हुआ है। मुख्य दालान में एक कुंड है, जहां नमाज़ के पहले वज़ू के लिए पानी भरा रहता होगा। मस्जिद में कोई मीनार नहीं है और मुख्य मस्जिद के अग्रभाग के जो कुछ भी अवशेष बाक़ी रह गए हैं,उन्हें देखकर लगता है कि इन पर नीली टाइल्स और नीली-पीली पच्चीकारी पैटर्न की सजावट रही ही। इसके अलावा इस ख़ूबसूरत ख़त्ताती यानी सुलेख में क़ुरान की आयतें भी लिखी हैं। नीली-पीली पच्चीकारी पैटर्न तब मध्य एशिया में लोकप्रिय हुआ करता था। मस्जिद के भीतर भी, ख़ासकर मक्का की दिशा की तरफ़ वाले मेहराब और मुख्य गुंबद पर, इसी तरह के पैटर्न देखे जा सकते हैं। ये मस्जिद और मदरसा परिसर कभी सूरज की रौशनी में दमकता होगा।

ख़ैर-उल-मंज़िल के निर्माण के दशकों पहले महाम अंगा ताक़तवर होने लगी थी। सन 1541 में बादशाह हुमायूं और उसकी पत्नी हमीदा बानू बेगम, शेर शाह सूरी द्वारा आगरा की सत्ता से बेदख़ल किए जाने बाद सफ़ाविद शाह तहमास्प से मदद मांगने के लिए ईरान चले गए थे।

मस्जिद में लगी एक पट्टी जिस पर महाम अंग का नाम फ़ारसी में लिखा है   | लेखक

नदीम ख़ान कूका हुमायूं का दूध-भाई था, जिसने कई सालों तक हुमायूं की पूरी वफ़ादारी के साथ ख़िदमत की थी। वह अपनी पत्नी महाम अंगा और दो पुत्रों, क़ुली ख़ान कूका और अधम ख़ान कूका को छोड़कर हुमायूं के साथ ईरान गया था।

अंगा को मुग़ल साम्राज्य के होने वाले उत्तराधिकारी यानी एक साल के अकबर की प्रमुख दाई नियुक्त कर दिया था और अकबर उसी की देख-रेख में परवरिश पा रहा था। मुग़ल शाही परिवार में, शाही और क़ाबिल महिलाओं द्वारा शाही बच्चों को स्तनपान करवाने की परंपरा होती थी। ये महिलाओं के लिए बहुत सम्मान की बात हुआ करती थी। ये महिलाएं बहुत शांत और आध्याम्त्मिक स्वभाव की हुआ करती थीं। इनके चुनाव में इन दोनों बातों का ख़ास ख़्याल रखा जाता था।

अकबर की देख-रेख का ज़िम्मा जब अंगा को सौंपा गया था, तब उसका अपना बेटा अधम दस साल का था। अंगा ने दरअसल अकबर को कभी अपना दूध नहीं पिलाया। उसकी निगरानी में 11 दाईयां हुआ करती थीं जिनकी मुखिया जीजी अंगा थी। जीजी अंगा का अपना बच्चा अकबर का हम उम्र था। जीजी अंगा ग़ज़नी के शम्सुद्दीन की पत्नी थी, जो बाद में अतका ख़ान के नाम से मशहूर हुआ। अतका ख़ान वह सैन्य अधिकारी था, जिसने शेर शाह सूरी के ख़िलाफ़ चौसा के युद्ध में हुमायूं की जान बचाई थी।

अकबर 

महाम अंगा ने अकबर के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और एक बार अकबर की जान भी बचाई थी। अकबर जब तीन साल का था, तब काबुल में उसके चाचा कमरान ख़ान ने उसे बंधक बना लिया था। कमरान, हुमायूं का सौतेला भाई और बाबर का पुत्र था। जब हुमायूं भारत पर शासन कर रहा था, तब कमरान काबुल पर हुकूमत कर रहा था। कमरान ने क़िले की चारदीवारी की प्राचीर पर अकबर को बिठा दिया था। उसने अकबर को ढ़ाल की तरह इस्तेमाल किया था, ताकि हुमायूं उसके ख़िलाफ़ तोपों का इस्तेमाल ना कर सके। ये बात जब महाम अंगा को पता लगी, तो वह फ़ौरन वहां पहुंच गई और क़िले की प्राचीर से अकबर को छुड़ा लाई।

हुमांयू जब मुगल साम्राज्य वापस हासिल करने दोबारा भारत आया, तो उसके शाही ज़नाना ख़ाने की सभी महिलाएं काबुल में ही रहीं, लेकिन महाम अंगा, 13 साल के अकबर और उसके पिता हुमायूं के साथ भारत वापस आई। जब हुमांयू और उसकी बेगमहमीदा बानू फ़ारस (ईरान) भागकर गए थे, तब अकबर को क़ंधार में अंगा के हवाले कर गए थे। जब अकबर ने काबुल को दोबारा जीता तो तमाम महिलाएं कंधार में ठहर गईं और हुमांयू दोबारा भारत में अपना शासन स्थापित करने के लिए भारत रवाना हो गया था।

एक साल के बाद ही पुराने क़िले के पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मृत्यु हो गई। इस मौक़े पर महाम अंगा मौजूद थीं। हुमांयू के निधन के बाद सेनापति बैरम ख़ां ने पादशाह ( बादशाह) के रुप में 14 साल के अकबर की ताजपोशी की। बैरम ख़ां ख़ुद भी पदोन्नत होकर वकील-ए-सल्तनत ( वज़ीर-ए-आज़म) बन गया।

ताजपोशी के बाद अकबर ने काबुल से शाही ज़नाना (महिलाओं) को आगरा बुलवा लिया। जब इन शाही महिलाओं का काफ़िला आगरा के बाहर पहुंचा, तो उनका स्वागत करने के लिए अकबर ने महाम अंगा को भेजा।

तब तक अंगा और अकबर के बीच बढ़ती नज़दीकियों और अंगा के प्रभावशाली होने से बैरम ख़ां चिंतित होने लगा था। उसे लगने लगा था, कि उसकी हत्या की साजिश रची जा रही है, लेकिन अंगा ने उसे समझा दिया कि ये उसकी ग़लतफ़हमी है। जल्द ही अंगा नए दरबार में बहुत प्रभावशाली हो गई। एक तरफ़ जहां अंगा का पुत्र जब चाहे तब युवा अकबर से मिल सकता था, वहीं दरबार के वरिष्ठ लोगों को अकबर से मिलने के लिए काफ़ी इंतज़ार करना पड़ता था।

अकबर और बैरम ख़ां के बीच दूरियां बढ़ाने के लिए अंगा एक तरह से तख़्ता पलट जैसी कार्रवाई की। उसकी सलाह पर अकबर अचानक अपनी मां हमीदा बानू बेगम से मिलने के बहाने दिल्ली चला गया। उस समय हमीदा बानू दिल्ली में थी।

दिल्ली में रहते हुए अंगा ने हमीदा बानू के साथ मिलकर बैरम ख़ां के बढ़ते प्रभाव के ख़िलाफ़ युवा अकबर को भड़काया। उसने अकबर से कहा, कि चूंकि बैरम ख़ां उसके ख़िलाफ़ साज़िश कर सकता है, इसलिए उसका उनके (अकबर) के साथ रहने की कोई तुक नहीं है, इसलिए वह हज के लिए मक्का जाना चाहती है।

अकबर भावुक हो गया और उसने अंगा से दिल्ली में उसके (अकबर) के साथ रहने को कहा। अंगा तो बहुत पहले से यही चाहती थी। इसके बाद अकबर ने अंगा के दामाद शाहबउद्दीन अहमद ख़ान को मुग़ल सम्राज्य के कामकाज का ज़िम्मा सौंप दिया।

अकबर ने बैरम ख़ां को पदावनत कर दिया, लेकिन उनका वकील-ए-सल्तनत का ख़िताब बरक़रार रखा। अकबर के इस फ़ैसले के बाद कई दरबारियों ने पाला बदल लिया और महाम अंगा ने उनकी वफ़ादारी सुनिश्चित करने के लिए, अकबर से उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें और पद दिलवाए। अकबर ने शाहबउद्दीन और महाम अंगा को वकालत (वाइस रिजेंसी) का ख़िताब भी दे दिया।

इसी समय दिल्ली में ख़ैर-उल-मंज़िल भी पूरी हो गई और अंगा के पुत्र अधम ख़ान ने मालवा के शासक बाज़ बहादुर को भी हरा दिया था। जिसकी राजधानी मांडू हुआ करती थी, जो मौजूदा समय में मध्य प्रदेश में है।

अदम खान के नेतृत्व में मुगल सेनाएं, मालवा के बाज बहादुर के किले में प्रवेश करती हुई 

अधम ख़ान को एक सिपहसालार के रुप में मुग़ल सेना के साथ मालवा भेजा गया था। अकबर ने पहले के सिपहसालार बैरम ख़ान को ज़बरदस्ती बर्खास्त कर दिया था। बाज़ बहादुर युद्ध कला के बजाय अपनी मौजमस्ती के लिए ज़्यादा जाना जाता था। हार के बाद वह भाग गया और उसके ख़ज़ाने और महिलाओं (ज़नाना) पर अधम का क़ब्ज़ा हो गया।

अपनी ख़ूबसूरती और कशिश के लिए मशहूर बाज़ बहादुर की रानी रुपमती ने ज़हर खाकर अपनी जान दे दी, क्योंकि वह दुश्मन के हाथों नहीं लगना चाहती थी।। अधम ख़ान के हाथ ख़ज़ाना और ख़ूबसूरती के लिए मशहूर कई नर्तकियां लग गईं।

अधम ख़ान ने अकबर को सिर्फ कुछ हाथी भेज दिए, बाक़ी ख़ज़ाना और क़ैद की गईं महिलाएं अपने ही पास रख लीं। हालांकि रिवाज के मुताबिक़ सब कुछ अकबर को भेजा जाना चाहिए था।

तब तक अकबर 19 साल का हो चुका था। जब उसे पता चला कि अधम ख़ान ने सारा माल उसे नहीं भेजा है, अकबर ख़ुद दक्षिणी मालवा की तरफ़ गया। जब ये बात महाम अंगा को पता लगी तो उसने हस्तक्षेप किया। अधम ख़ान ने पूरा ख़ज़ाना और पकड़ी गईं सभी नर्तकियां अकबर को सौंप दीं। लेकिन अपनी मां के नौकरों की मदद से वह बाद में शाही ज़नान ख़ाने से दो महिलाओं को चुराने में कामयाब हो गया।

अकबर को इस धोखाधड़ी के बारे में पता चल गया और उसने जांच का आदेश दे दिया। इससे महाम अंगा के हाथ पांव फूल गए क्योंकि अगर अधम ख़ान की चोरी पकड़ी जाती तो यह साबित हो जाता कि अधम अकबर के प्रति वफ़ादार नहीं है। अधम अकबर से क़रीब दस साल बड़ा था । अकबर अधम की मां के इशारों पर चलता था, इसलिए बड़ा भाई होने के नाते अधम अकबर से मालिक की तरह व्यवहार करता था। अंगा ने दोनों महिलाओं की हत्या करवा दी। लेकिन हत्याएं कैसे करवाईं इसे लेकर कई कहानियां हैं। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है, कि ये महिलाएं फिर कभी नहीं मिलीं और ग़द्दारी के सबूतों के अभाव में अकबर ने इस मामले को नज़रअंदाज़ कर दिया।

इस घटना के छह महीने बाद, बीस साल के अकबर ने अधम ख़ान को मालवा से आगरा बुलवाया । अधम ख़ान तब तक तीस साल का हो चुका था। इसके बाद ऐसे हालात पैदा हुए ही कि अधम ख़ान की मौत हो गई और उसकी मां की सत्ता पतन शुरु हो गया।

गर्मी के मौसम की एक दोपहर को आगरा पहुंचने के बाद अधम ख़ान ने तमाम वज़ीरों के सामने अपने एक आदमी से अकबर के ख़ास वफादार शम्सुद्दीन अतका ख़ान की हत्या करवा दी। शम्सुद्दीन अतका ख़ान को मुनीम ख़ां की जगह किसी ऊंचे पद पर लाया गया था । बैरम ख़ां को हज के लिए मक्का रवाना कर दिया गया था, जो उस समय सेवा से निवृत्त करने का एक सम्मानजनक तरीक़ा होता था। मक्का जाते समय बैरम ख़ां जब गुजरात में सहरसालिंग झील पहुंचा ,जहां एक अफ़ग़ान युवक ने उसकी छुरा मारकर हत्या कर दी। इस युवक का पिता मच्छीवाड़ा के युद्ध में मारा गया था, जिसकी कमान बैरम ख़ां के हाथों में थी।

अधम ख़ान पास ही के शाही ज़नाना ख़ाने में गया, जहां अकबर दोपहर की नींद ले रहा था। अधम ख़ान को नीमत नाम के ज़नख़े ने अंदर जाने से रोका, लेकिन इस शोर-शराबे से अकबर की आंख खुल गई और वह तलवार लेकर बाहर निकला। वहां अतका ख़ान का शव देखकर वह ग़ुस्से में आ गया। उसने तलवार से अधम ख़ान पर हमला किया, जिससे वह नीचे गिर गया। इसके बाद अकबर ने अपने नौकरों से अधम ख़ान को बांधकर छत से क़रीब आठ फ़ुट नीचे फेंकने का आदेश दिया।

अकबर ने अधम खान की सजा का आदेश दिया और उसे दो बार छत से नीचे फेंक दिया। अकबरनामा 

नीचे गिराने के बावजूद जब अधम बच गया, तो अकबर ने उसे फिर से ऊपर लाकर सिर के बल नीचे फेंकने का आदेश दिया और इस बार कुछ ही मिनटों में अधम ने दम तोड़ दिया। इसके बाद अकबर महाम अंगा के पास पहुंचा और सब कुछ बताया तो उसने कहा, “आपने अच्छा किया”। चालीस दिन के बाद महाम अंगा की भी मृत्यू हो गई।

अकबर ने मेहरोली में अपने दूध-भाई और दाई-मां को दफ़न करने के लिए एक मक़बरा बनवाने का आदेश दिया। ये मक़बरा सूफ़ी संत क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह के पास है और ये मुग़ल साम्राज्य में बनवाए गए मकबरों में से पहला मक़बरा था। हालंकि ये बहुत विशाल है, लेकिन इसमें सजावट बिल्कुल नहीं है।

सन 1830 के दशक में बंगाल सिविल सर्विस के अंग्रेज़ अधिकारी ब्लैक ने इस मक़बरे को रिहायशी अपार्टमेंट में तब्दील कर दिया और भोजन कक्ष के लिए क़ब्रों को हटवा दिया। हालंकि इसके फ़ौरन बाद उसकी मौत हो गई, लेकिन सालों तक अंग्रेज़ इसका इस्तेमाल आरामगाह (रेस्टहाउस) की तरह करते रहे। बाद में यहाँ पुलिस स्टेशन और फिर डाक ख़ाना बन गया था।

लॉर्ड कर्ज़न के आदेश पर भवन को ख़ाली करवा कर मक़बरा को दुबारा बहाल किया गया। कर्ज़न सन 1899 से लेकर 1905 तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा था। मक़बरे की बहाली के बाद अधम ख़ां के अवशेष यहां लाए गए। ये अवशेष मध्य गुंबद के ठीक नीचे हैं, जिनपर दिन के समय मक़बरे की कई खिड़कियों से रौशनी पड़ती है। मगर अधम की मां महाम अंगा के अवशेष कभी नहीं मिल पाए।

हालंकि महाम अंगा का संबंध शाही परिवार से नहीं था, लेकिन वह मुग़ल दरबार में इतनी ऊंचाईयों तक पहुंची, कि उस समय के प्रशासन की पहचान एक महिला के परिधानों से होती थी। अगर उसका बेटा उपद्रवी और बददिमाग़ नहीं होता तो उसने अकबर की आड़ में और लंबे समय तक राज किया होता और ख़ैर-उल-मंज़िल के अलावा और कई शानदार स्मारक बनवाए होते। अंगा ने अकबर के नाम पर देश पर राज किया और अपने क़रीबी लोगों को पद दिलवाए, मस्जिदें, मदरसे बनवाए और ख़ुद को तथा अपने परिवार को मालामाल किया।

अंगा की मौत के बाद भी अकबर उसकी कितनी इज़्ज़त करता था, इस बात का इससे पता चलता है कि उसका दूसरा बेटा क़ुली ख़ान सारी ज़िंदगी शांति से रहा और उसे अपना मक़बरा की छूट भी दी गई। ये मक़बरा आज भी मेहरोली आर्कियोलॉजिकल पार्क में मौजूद है।

कुली खान का मक़बरा | यश मिश्रा

अंगा के निधन के दो साल बाद ख़ैर-उल-मंज़िल में अकबर की हत्या का प्रयास किया गया था। अकबर ख़ैर-उल-मंज़िल के बाहर मैदान में एक जुलूस का नेतृत्व कर रहा था। उस परिसर की देख-रेख तब वही लोग करते थे, जो अंगा के वफ़ादार थे। अचानक पास की एक झरोके से एक तीर छोड़ा गया जो अकबर के कंधे पर लगा। अकबर ने तीर चलाने वाले को फ़ौरन मौत के घाट उतारने का आदेश दिया। अकबर ने हमला करने वाले की मंशा जानने की भी कोशिश नहीं की, शायद वो जानना भी नहीं चाहता था। अकबर ने दिल्ली की एक ख़ूबसूरत संभ्रांत महिला से ज़बरदस्ती शादी की थी और उस महिला को उसके पति से तलाक़ दिलवाने के उसके पति को हज के लिए मक्का भेज दिया था। कहा जाता है कि दिल्ली के अमीरों ने ही बदला लेने के लिए अकबर की हत्या के लिए पैसा दिया था और यही वजह थी कि अकबर हमलावर से पूछताछ नहीं करवाना चाहता था।

बहुत बाद में सन 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय क्रांतिकारी ख़ैर-उल-मंज़िल में छुपे हुए थे। अंग्रेज़ों ने गोले दाग़े जिसकी वजह से मुख्य अहाता और मदरसे का परिसर क्षतिग्रस्त हो गया था। ख़ैर-उल-मंज़िल अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में है और मुसलमानों को यहां ख़ास मौक़ों पर नमाज़ पढ़ने की इजाज़त है। आशा की जाती है कि ये स्मारक कुछ और सदियों तक बचा रहेगा और एक विलक्षण प्रतिभा की मालिक अमर महिला अंगा की याद दिलाता रहेगा।

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