पाकिस्तान की सीमा पर मौजूद ऐतिहासिक गुरुद्वारों की अनकही दास्ताँ

पाकिस्तान की सीमा पर मौजूद ऐतिहासिक गुरुद्वारों की अनकही दास्ताँ

अंग्रेज़ों ने सन् 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच जो विभाजन रेखा खींची थी, उसने दोनों मुल्कों के बीच दूरियां इस हद तक बढ़ा दीं कि सरहद के उस पार एक-डेढ़ मील तक का सफर तय करना लगभग नामुमकिन हो गया। बँटवारे के बाद से ही, दुनिया भर की नानक नाम लेवा संगत और विशेष रूप से सिख समुदाय, बिछड़े गुरूद्वारों के दर्शनों के लिए लगातार अपील कर रहा था। उनकी यह इच्छा, भारत-पाकिस्तान सरकारों की कोशिशों से, 9 नवम्बर 2019 को करतारपुर कॉरिडोर खुलने से किसी हद तक पूरी हो गई। सीमा पार दर्जनों ऐतिहासिक और पवित्र गुरूद्वारा साहिबान हैं, जो बिना दूरबीन के भी देखे जा सकते हैं। लेकिन जानकारी के अभाव में न तो कभी उनके दर्शनों के लिए सरकारों से अपील ही की गई और न ही इन धर्मस्थलों पर जाकर दस्तक दी जा सकी।

गाँव पढाणा में मौजूद गुरुद्वारा छठी पातशाही की भारतीय सरहदी गाँव नौशहरा ढाला से ली गई तस्वीर | आशीष कोछड़

अमृतसर के नज़दीक सीमावर्ती गाँव नौशहरा ढ़ाला से क़रीब दो किलोमीटर दूर, लाहौर के गाँव पढाणा में छठे गुरू हरगोबिंद साहिब की यादगार “गुरूद्वारा छठी पातशाही” मौजूद  है। भारतीय सीमा से गाँव भिखीविंड (वर्तमान जिला तरनतारन में) के अगले सीमावर्ती गांव खालड़ा को पार करते ही पाकिस्तान में बरकी रोड शुरू हो जाती है। यहीं से कुछ आगे चलकर गाँव हडियारा की दाहिनी ओर पढाणा बसा हुआ है। नौशहरा ढाला के गुरुद्वारा बाबा जल्लन दास की छत और सरोवर से पढाणा गांव में छठी पातशाही से संबंधित गुरुद्वारा साहिब को आसानी से देखा जा सकता है और बिना किसी अनुमति के उसके दर्शन किए जा सकते हैं। ज्यादातर लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं है। इसलिए बहुत कम लोग गुरु हरगोबिंद साहिब की इस ग़ैर-आबाद यादगार के दर्शन करने के लिए पहुँच पा रहे हैं। गुरुद्वारा बाबा जलन दास के साथ खिंची कांटेदार तारों (बॉर्डर फेंसिंग) के आगे खेतों के पार, गांव के बाहर गुरुद्वारा पढाणा की इमारत मौजूद है। बताया जाता है, कि लाहौर से अमृतसर जाते हुए,  गुरु साहिब ने इसी मुक़ाम पर अपने चरण डाले थे। इसी जगह पर इलाक़े के ज़मींदार जल्लन जट्ट के साथ गुरु जी का विचार-विमर्श हुआ था। लाहौर के थाना बरकी के अधीन, गांव पढाणा में मौजूद उक्त यादगार पहले साधारण हालत में थी ,फिर यहां के सरदार अतर सिंह पढाणा ने, गुरुद्वारे की सेवा शुरू की और गांव की संगत के साथ मिलकर सुंदर दरबार बनाया। इस यादगार की बाहरी बनावट चाहे तसल्ली बख्श हो, लेकिन इसकी अंदरूनी हालत काफी ख़राब हो चुकी है। इस समय यहां कोई नहीं रहता है।

इसी तरह गांव नौशहरा ढाला से कुछ पहले आबाद एक और सरहदी गांव राजा ताल में बादशाह अकबर के दीवान राजा टोडरमल ने एक सरोवर बनवाया था। उस सरोवर के किनारे पर खड़े होकर सरहद पार के गांव पढाणा में ज्वाला सिंह पढाणिया की खंडहर में तब्दील हो चुकी महलनुमा हवेली का ऊपरी हिस्सा साफ़ दिखाई देता है। लाहौर की बरकी रोड पर मौजूद यह तीन मंज़िला हवेली काफ़ी विशाल है और इसमें पचास से ज्यादा कमरे बने हुए हैं। इसके अलावा इसमें कई बारादरियां भी हैं।

गाँव पढाणा में मौजूद ज्वाला सिंह की हवेली की तस्वीर | आशीष कोछड़

सरदार ज्वाला सिंह के बुज़ुर्गों में से चंगा नामक व्यक्ति ने गांव पढाणा आबाद किया था। बाद में उसके ख़ानदान में से सरदार मीत सिंह पढ़ाणा (संधू), सरदार महां सिंह शुक्रचक्किया की फौज में भर्ती  हो गया। उसने शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के साथ कई युद्ध अभियानों में हिस्सा लिया। अंत में सन 1814 की, कश्मीर-मुहिम में वो मारा गया। महाराजा ने उसके बेटे सरदार ज्वाला सिंह को सरदार मित सिंह की जगह अपना सरदार बना दिया। साथ ही उसके पिता की जागीर के अलावा सवा लाख रुपए की अन्य जागीर उसको दे दी। उसने मुल्तान, कश्मीर, मानकेरा और कोटकपुरा की लड़ाई में बहुत बहादुरी के साथ युद्ध लड़ा। कई साल तक बीमार रहने के बाद सन 1835 में उसका देहांत हो गया। महाराजा रणजीत सिंह की रानी जिंद कौर की बड़ी बहन की इसी ज्वाला सिंह से शादी हुई थी।

गांव पढाणा की हवेली सरदार मित सिंह ने बनवानी शुरू की थी, जबकि बाद में इसे आलीशान अंदाज़ से ज्वाला सिंह ने बनवाया और संवारा। ज्वाला सिंह के पुत्र हरदित्त सिंह की बहुत सारी जागीर अंग्रेजों के शासन के दौरान ज़ब्त कर ली गई। देश के बँटवारे के समय इस परिवार के स. गुरबख्श सिंह के पुत्रों स. हरचरण सिंह पढाणा और हरनाम सिंह में से हरचरण सिंह मुसलमान बन कर सरदार नासर उल्लाह ख़ान बन गया। उसका एक बेटा स. हरिध्यान सिंह सरदार अमान उल्लाह खान बन गया। जबकि स. हरनाम सिंह और उनके पुत्रों मेजर जनरल स. गुरदयाल सिंह, रघुबीर सिंह और उमराव सिंह ने इस्लाम कुबूल नहीं किया। स. गुरदयाल सिंह के पुत्रों में से स. हरप्रीत सिंह अब पंचकूला में और स. गुरप्रीत सिंह चंडीगढ़ में रह रहे हैं।

गुरूद्वारा जाहमन | आशीष कोछड़

इनके अलावा लाहौर के थाना बरकी के सीमावर्ती गांव जाहमन में पहली पातशाही गुरु नानक देव जी से संबंधित गुरुद्वारा रोढ़ी साहिब, गांव घविंडी की पत्ती कैरोंपुरा में पहली पातशाही से संबंधित यादगार गुरुद्वारा लहुड़ा साहब, गांव मनिहाला की आबादी साधांवाली में गुरु हरगोबिंद साहिब का पावन स्थान, गांव ढिलवा में गुरुद्वारा मंजी साहिब, गांव रामपुरा ख़ुर्द और गांव झलियां में गुरुद्वारा पातशाही छठी आदि यादगारें आज भी मौजूद हैं। ये सभी यादगारें भारतीय सरहद से महज़ 2 से 4 किलोमीटर  दूर, पाकिस्तान में मौजूद हैं। इसी तरह पाकिस्तान के ज़िला कसूर की सरहद से थोड़ी दूर पर गुरु अमरदास जी से संबंधित एक यादगार कादीविंड क़स्बे में और दूसरी कसूर-फ़ीरोज़पुर रोड पर बी.आर.बी. नहर पार गाँव तरगे में मौजूद है। ये स्थान देख-रेख की कमी की वजह से पूरी तरह खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। इन गुरुद्वारा साहिबान के अलावा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) की मुज़फ़्फ़राबाद डिवीज़न की तहसील नलूछी और तहसील भिंडर के गांव अलीबेग में छठी पातशाही से संबंधित गुरुद्वारा साहिबान की इमारतें भी भारतीय सीमावर्ती गांवों से दिखाई दे जाती हैं।

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