भारत के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल 

भारत के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल 

बौद्ध धर्म पूर्व और दक्षिण एशिया में सबसे प्रमुख धर्म में से एक है, जिसकी स्थापना लगभग 2500 साल पहले भारत में सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) द्वारा की गई थी। बौद्ध धर्म में कई अनुष्ठान, मूल्य और आध्यात्मिक अभ्यास शामिल हैं जो मुख्य रूप से बुद्ध की मूल शिक्षाओं और बाद में व्यक्त किए गए दर्शन पर आधारित हैं।

बौद्ध धर्म की उत्पत्ति प्राचीन भारत में छठवीं और चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच कहीं हुई थी, जो एशिया के अधिकांश हिस्सों के माध्यम से फैल रही थी। आज भी दुनिया भर के तीर्थयात्री भारत के विभिन्न बौद्ध स्थलों पर जाकर अपनी प्रार्थनाएं करते हैं । आज हम आपको भारत के पांच महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों पर ले जाते हैं।

1- सारनाथ

सारनाथ बौद्ध लोगों के सबसे ज़्यादा पवित्र स्थलों में से एक है। ये वही जगह है जहां गौतम बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश दिया था। तब से लेकर 12वीं ई. तक यानी क़रीब 17 सौ साल तक ये बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों के लिये ज्ञान और तीर्थयात्रा का स्थल रहा।

सारनाथ उत्तर प्रदेश के शहर वाराणसी से उत्तर पूर्व की तरफ़ दस कि.मी. दूर स्थित है जहां गंगा और वरुण नदियों मिलती हैं। आरंभिक बौद्ध पाली ग्रंथों में इसका प्राचीन नाम इसिपतन और मृगदाव मिलता है। मृगदाव का अर्थ हिरणों का वन होता है और इसिपतन या ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ से है जिसका आशय है वह स्थान जहाँ किसी एक बुद्ध ने गौतम बुद्ध भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। एक किवदंती के अनुसार एक बार एक राजा हिरण का शिकार कर रहा था तभी एक बोधिसत्व ने हिरण का भेस धारकर उस मादा हिरण की जान बचाली जिसे राजा मारना चाहता था। राजा बोधिसत्व के बलिदान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने हिरणों के लियेअभ्यारण्य बना दिया।

सारनाथ में व्रत स्तूप - इनका निर्माण आमतौर पर यात्राओं को मनाने या आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए किया जाता है

आधुनिक नाम ‘सारनाथ’ का सम्बंध भी हिरण से है। सारनाथ शब्द की उत्पत्ति भी ‘सारंगनाथ’ यानी मृगों के नाथ से हुई। ये दरअसल भगवान शिव का ही नाम है। अक्सर शिव की मूर्ति में आप उन्हें बाएं हाथ में हिरण को थामें देख सकते हैं। सारनाथ में एक टीले पर एक आधुनिक महादेव यानी शिव मंदिर भी देखा जा सकता है। और पढ़ें

2- कुशीनगर

कुशीनगर, जहां बुद्ध ने अंतिम सांस ली थी, उत्तर पूर्व उत्तर प्रदेश का एक ज़िला है जिसका नाम भी कुशीनगर है। ये नेपाल की सीमा के बहुत पास है और लुंबिनी से ज़्यादा दूर नहीं है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। बुद्ध की मृत्यु के समय कुशीनगर कुशवती कहलाता था और पौराणिक साहित्य के अनुसार ये कौशल साम्राज्य की राजधानियों में से एक होता था। बुद्ध के समय ये मल्ल महाजनपद की राजधानी था। कुशवती नाम शायद वहां कुश घास के बहुतायात की वजह से पड़ा था। ये घास बुद्ध का पसंदीदा केंद्र था जो आज भी बौद्धों के लिये पूज्नीय है।

कुशीनगर में परिनिर्वाण मंदिर | विकि मीडिया कॉमंस

मल्ल 16 महाजनपदों में से एक था और आज के उत्तर प्रदेश के उत्तर पूर्व में हिमालय की गिरिपीठों में स्थित था। ये छोटे जनपदों में से एक था। इसकी राजधानी कुशीनगर हुआ करती थी। मल्ल मूल रुप से एक राजवंश था। बाद में यहां मल्ल के सीमित लोगों का शासन हो गया। यहां जैन और बौद्ध दोनों धर्म बहुत फूलेफले और कुशीनगर बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बन गया। मल्ल का लिच्छिवियों के साथ गहरा गठबंधन था और दोनों के बीच रक्षा संधी भी थी। 5वीं ई.पू. सदी के अंत में मल्ल जनपद का मगध राज्य में विलय हो गया था।और पढ़ें

3- श्रावस्ती

श्रावस्ती वह स्थान है जहां बुद्ध ने वो चमत्कार किए थे जिनकी चर्चा सबसे ज़्यादा होती है। इस क्षेत्र में आज सहेट महेट नाम के दो गांव हैं। ये बौद्ध-विश्व में कभी सबसे सुखी क्षेत्र हुआ करता था। यहां अनन्तपिण्डक ने अपने भगवान बुद्ध के लिये जेतवन ख़रीदा था। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में सबसे ज़्यादा समय श्रावस्ती शहर में बिताया था। उन्होंने यहां 24 से 26 वर्षवास किये थे । एक वर्षवास एक वर्षा ऋतु के बराबर होता है। बोद्ध ग्रंथों के अनुसार एक वर्ष में ये एकमात्र समय होता है जब कोई बौद्ध भिक्षु एक ही स्थान पर लगातार दो से ज़्यादा रातें बिता सकता है।

श्रावस्ती में गंधकुटी (या मूलगंधकुटी) | विकिमीडिया कॉमन्स

बुद्ध को बोध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और फिर वह गंगा घाटी की तरफ़ निकलकर निर्वाण का ज्ञान बांटने लगे थे और लोग उनके अनुयायी बनने लगे थे। कहा जाता है कि बुद्ध ने कई चमत्कार किए थे लेकिन श्रावस्ती चमत्कार सबसे अलग था जिसकी वजह से 90 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। और पढ़ें

4- बोध गया

बोद्ध धर्म के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया जब गया नामक गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह सिद्धार्थ से बुद्ध बन गये। आज भारत के राज्य बिहार में गया ऐसा दूसरा शहर है जहां सबसे अधिक घनी आबादी है। गया बिहार की राजधानी पटना से सौ कि.मी. दूर है। पटना कभी पाटलीपुत्र के नाम से प्राचीन भारत की राजधानी हुआ करता था।

सन 1880 में मरम्मत के बाद महाबोधी मंदिर (छवि 1899) | विकिमीडिया कॉमंस

बौद्ध परंपराओं के अनुसार बोध गया बौद्धों के आरंभिक तीर्थ केंद्रों में से एक है जिसका चयन ख़ुद बुद्ध ने उस समय किया था जब वह अंतिम सासें गिन रहे थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बुद्ध ने अपने एकमात्र साथी आनंद से कहा था उनकी मृत्यु के बाद वे लोग चार स्थानों पर तीर्थ स्थल बनवाएं। ये स्थान हैं- बुद्ध का नेपाल में जन्मस्थान लुंबिनी, बोध गया जहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, वाराणसी का डियर पार्क जहां उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश दिया था और कुशीनगर जहां उन्होंने अपने प्राण त्यागे। बोध गया शुरु से ही भारत और भारत के बाहर के भी बौद्धों के लिये श्रद्धा और उपासना का केंद्र रहा है। और पढ़ें

5- भरहुत

उज्जैन से विदिशा होते हुए, एक रास्ता, पाटलिपुत्र को जाता है। वहां से यह रास्ता उत्तर की तरफ़ मुड़ता है और मैहर नदी घाटी पार कर कौशाम्बी और श्रावस्ती पहुंचता है। अपनी एतिहासिक पृष्ठ भूमि के साथ यहां एक बौद्ध स्थल भरहुत है जो शायद, भारत में महान बौद्ध स्थलों में से एक है। इसकी खोज भारतीय पुरातत्व के जनक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने सन 1874 में की थी। भरहुत स्तूप मगध साम्राज्य के मध्य प्रांत के एक छोर पर स्थित है। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का मानना है कि जिस स्थान पर ये स्तूप स्थित है वह उस युग के प्रमुख राजमार्ग का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। हालंकि ये स्तूप अलग तरह का है लेकिन फिर भी सांची और उसके अन्य स्मारकों से ये काफ़ी मिलता जुलता है जो इसे विश्वस्नीय बनाता है।

भरहुत गांव मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में है। ये स्थान ई.पू. दूसरी सदी की बौद्ध कला के जटिल उदाहरणों में से एक है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भरहुत में मूल स्तूप अशोक मौर्य ने तीसरी ई.पू. में बनवाया था और दूसरी ई.पू. शताब्दी में इसे बड़ा रूप दिया गया।

कनिंघम ने जब सन सन 1874 में इसकी खोज की थी तब ये भरहुत स्तूप लगभग बरबाद हो चुका था और यहां के कटघरे और प्रवेश द्वार आसपास के कई गांव में भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां वेदिका (स्तूप के आसपास पत्थरों से बनी मंडेर और कटघरे) के सिर्फ़ तीन खंबे बचे थे। साथ ही पूर्वी तोरण का एक खंबा भी बचा था। और पढ़ें

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