उत्तर प्रदेश के आधुनिक शहर श्रावस्ती में जेतवन मठ के अवशेष मौजूद हैं। इनमें बौद्ध इतिहास के कुछ सबसे महत्वपूर्ण ढांचे हैं। जेतवन में एक झोंपड़ी का भी अवशेष है जहां बुद्ध ने वर्षा के 20 से ज़्यादा मौसम गुज़ारे थे। यहां एक स्तूप में उनके दो महान शिष्यों अनन्तपिण्डक और अंगुलिमाल की अस्थियां हैं।
श्रावस्ती वह स्थान है जहां बुद्ध ने वो चमत्कार किए थे जिनकी चर्चा सबसे ज़्यादा होती है। इस क्षेत्र में आज सहेट महेट नाम के दो गांव हैं। ये बौद्ध-विश्व में कभी सबसे सुखी क्षेत्र हुआ करता था। यहां अनन्तपिण्डक ने अपने भगवान बुद्ध के लिये जेतवन ख़रीदा था। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में सबसे ज़्यादा समय श्रावस्ती शहर में बिताया था। उन्होंने यहां 24 से 26 वर्षवास किये थे । एक वर्षवास एक वर्षा ऋतु के बराबर होता है। बोद्ध ग्रंथों के अनुसार एक वर्ष में ये एकमात्र समय होता है जब कोई बौद्ध भिक्षु एक ही स्थान पर लगातार दो से ज़्यादा रातें बिता सकता है।
बुद्ध को बोध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और फिर वह गंगा घाटी की तरफ़ निकलकर निर्वाण का ज्ञान बांटने लगे थे और लोग उनके अनुयायी बनने लगे थे। कहा जाता है कि बुद्ध ने कई चमत्कार किए थे लेकिन श्रावस्ती चमत्कार सबसे अलग था जिसकी वजह से 90 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।
चमत्कारों की कहानी बौद्ध लोक कथा के अनुसार दोहरा चमत्कार, जिसे पाली में सावत्थी चमत्कार और संस्कृत में श्रावस्ती चमत्कार कहते हैं, बुद्ध का सबसे बड़ा चमत्कार था। कहानी के दो प्रमुख रुप हैं। पहला रुप पाली ग्रंथ धम्मपद अट्ठकथा में और संस्कृत में दूसरा रुप प्रतिहार सूत्र में है। धम्मपद अट्ठकथा धम्मपद के बुद्धघोष द्वारा लिखित एक व्याख्यात्मक निबंध है जो पाली बौद्ध के लोकप्रिय सिद्धांतो में से एक है और जो चौथी सदी ई.पू. का है। धम्मपद खुद्दक निकाय का हिस्सा है जो सुत्तपिटक का अंतिम निकाय है। सुत्तपिटक ज्ञान के तीन भंडारों में से एक है जो बौद्ध धर्म ग्रंथ की धुरी हैं और कहा जाता है कि ये बुद्ध के समय के ही हैं। प्रतिहार सूत्र संस्कृत ग्रंथों में जो बौद्ध संत नागार्जुन को समर्पित धर्मसंग्रह का एक हिस्सा है। दूसरी शताब्दी के हैं।
बौद्ध धर्म मानने वालों का विश्वास है कि बुद्ध ने ये चमत्कार ज्ञान प्राप्त होने के सात साल बाद प्राचीन भारतीय शहर श्रावस्ती में किया था। हुआ यूं कि बुद्ध के एक शिष्य ने एक नास्तिक के सामने ऐसा चमत्कार दिखाया कि वह हतप्रभ रह गया और उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इस घटना के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों को चमत्कार करने से रोक दिया। बुद्ध के इस फ़ैसले से छह अलग अलग धर्मों के ग्रुपों के प्रमुखों को लगा कि ये बौद्ध धर्म के अनुयायियों को अपनी तरफ़ मिलाने का अच्छा मौक़ा है और उन्होंने बुद्ध को चमत्कारों का मुक़ाबला करने की चुनौती दे डाली। उन्हें लगा था कि बुद्ध मना कर देंगे और वे उनके अनुयायियों को अपने धर्म की तरफ़ खींच लेंगे लेकिन बुद्ध ने उनकी चुनौती स्वीकार कर उन्हें चौंका दिया। बुद्ध ने दो बार चमत्कार किये, एक कपिलवस्तु (बुद्ध का जन्मस्थान) और श्रावस्ती में चमत्कार किया।
चमत्कार के दौरान बुद्ध के कंधों से लपटें निकलने लगीं और पांवों से पानी फूट पड़ा था। वहां एकत्र लोग ये चमत्कार देखकर इतना विस्मित हो गए कि एक ही बार में 90 हज़ार लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। चमत्कारों का यह मुक़ाबला दस अनिवार्य कर्मों में से एक है जिसे प्रत्येक बौद्ध को अपने जीवनकाल में करना होता है। ये चमत्कार वो ही कर सकता है जिसे बुद्धत्व का ज्ञान पूरी तरह प्राप्त हो चुका हो।
चमत्कार के दौरान अचानक बुद्ध के कंधों से लपटों की जगह पानी और पांवों से पानी की जगह लपटे निकलने लगीं और बुद्ध के शरीर से रंग निकलने लगे जिसे देखकर लोग दंग रह गए। इस बीच बुद्ध की कई छवियां बन गईं, कुछ खड़ी हुईं थीं और कुछ चल रही थीं। ये छवियां धम्म का प्रचार कर रही थीं। बुद्ध के प्रतिद्वंदी ये सब देखकर भौचक्के रह गए और जब उन्होंने चमत्कार का जवाब देने की कोशिश की तो वे हिल भी नहीं सके। फिरअचानक बारिश होने लगी लेकिन बस वो ही लोग भीगे जो भीगना चाहते थे। वह नहीं भीगे जो भीगना नहीं चाहते थे। इससे वहां एकत्र लोग और भी प्रभावित हो गए। बारिश के बाद तेज़ हवा बहने लगी जिसमें सभी छह प्रतिद्वंदी और उनके मंडप उड़ गए। शर्म के मारे एक को छोड़, पांच प्रतिद्वंदियों ने आत्महत्या कर ली। इसके बाद बुद्ध ने अपने ही हमशक्ल के साथ धम्म पर वाद विवाद किया जिसे सुनकर वहां जमे लोगों को बहुत मज़ा आया। लोगों को लगा कि बुद्ध ही असली विजेता, बेहतर इंसान और बेहतर शिक्षक हैं। इस घटना के बाद वहां जमा लोगों में से 90 हज़ार लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर महायान परंपरा के अनुसार चमत्कार के बाद बुद्ध अपने वर्षावास के तीन महीने के लिये स्वर्ग की ओर निकल पड़े ताकि अपनी मृत माता अभधम्म को दीक्षा दे सकें ताकि वह भी स्वर्ग जा सकें।
माना जाता है कि ये भी ऐसा कर्म है जो हर बौद्ध को चमत्कार पूरा होने पर करना होता है। इसके बाद बुद्ध स्वर्ग से नीचे उतरे और उनके साथ ब्रह्माऔर इंद्र थे। बुद्ध की वजह से संकिसा (उत्तर प्रदेश) में भूस्खलन हो गया।
जेतवन और उसके स्मारक
जेतवन परिसर के अवशेष श्रावस्ती के पास हैं। जेतवन परिसर सहेट महेट गांव के क़रीब है। इस गांव में कई महत्वपूर्ण भवन हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण भवन है मूलगंध कुटी। ये भवन एक कुटिया के अवशेषों पर बनाया गया था जिसमें बुद्ध ने वर्षवास किया था। इसके अलावा यहां दो स्तूप भी हैं।
छठी सदी ई.पू. में श्रावस्ती कोशल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था। उस समय कोशल साम्राज्य पर राजा प्रसन्नजीत का शासन हुआ करता था। प्रसन्नजीत के पुत्र राजकुमार जेत के पास एक उपवन था जिसे जेतवन नाम से जाना जाता था। धनवान व्यापारी अनन्तपिण्डक बुद्ध और उनके शिष्यों के लिये यहां राजगृह के वेणुवन की तर्ज़ पर विहार बनाना चाहता था। राजकुमार जेत उपवन बेचना नहीं चाहता था इसलिये उसने इनके बहुत ऊंचे दाम लगा दिये थे। उसने कहा कि वह जेतवन तभी बेचेगा जब अनन्तपिण्डक उपवन के पूरे क्षेत्र को सिक्कों से पाट देगा। अनन्तपिण्डक ने अपनी सारी संपत्ति बेचकर उससे मिले धन को कार्षापण (चांदी के चिन्हित सिक्के) में बदल दिया और उन्हें बैलगाड़ी में लादकर जेतवन गया। वहां उसके आदमियों ने जेतवन का पूरा इलाक़ा सिक्कों से पाट दिया और इस तरह उसने बुद्ध और उनके शिष्यों के लिये ये उपवन ख़रीद लिया। सांची और बहरुत में प्राचीन गोलाकार पदकों में ये कहानी अंकित है। बहरहाल, उपवन का एक छोटा हिस्सा सिक्कों से पटने से रह गया था लेकिन राजकुमार जेत ने कहा कि वह यहां वन का प्रवेश द्वार बनवाएगा। राजकुमार ने अनन्तपिण्डक से मिली सारी रक़म प्रवेश द्वार के निर्माण पर ख़र्च कर दी।
सहेट-महेट गांव की पहाड़ियों पर अनन्तपिण्डक के स्तूप और एक अन्य स्तूप के अवशेष हैं। इस स्तूप में बुद्ध के प्रसिद्ध शिष्य अंगुलीमाल के अवशेष हैं। अंगुलीमाल एक लुटेरा था जो लोगों को लूटकर उनकी अंगुली काटकर उनकी माला पहनता था। एक बार उसका सामना बुद्ध से हुआ। वह बुद्ध के शांत स्वभाव और प्रेम को देखकर इतना प्रभावित हो गया कि वह अहिंसा का मार्ग अपनाकर बौद्ध भिक्षु बन गया। ये बहुत ही लोकप्रिय बौद्ध कहानी है जो हिंसा पर अहिंसा की विजय को रेखांकित करती है। अंगुलीमाल का जन्म श्रावस्ती में हुआ था और उसके अवशेष जेतवन में एक स्तूप में रखे गए थे। यहां कई विहारों और स्तूपों के अवशेषों के अलावा एक और महत्वपूर्ण बौद्ध स्मारक है जिसे आनंद बोधि (बोधि वृक्ष) कहते हैं। ये वृक्ष यहां बोध गया के मूल महाबोधि वृक्ष (जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था) के अंकुर से लगाया गया था। मूल महाबोधि वृक्ष का अंकुर बुद्ध के पहले और प्रिय शिष्य आनंद ने जेतवन लाकर यहां लगाया था। अगर ये वास्तव में वही वृक्ष है तब तो ये श्रीलंका में अनुराधापुर के बोधि वृक्ष से भी पुराना होगा। वैसे अनुराधापुर के बोधि वृक्ष को सबसे पुराना बोधि वृक्ष माना जाता है।
बुद्ध ने अपने जीवनकाल में ही जेतवन में बोधि वृक्ष लगाने का आदेश दिया था ताकि विहार में उनकीअनुपस्थिति में भी उनके अनुयायी उनका आदर सत्कार कर सकें। बुद्ध की इच्छानुसार उनके शिष्य मोगल्लना ने वृक्ष से गिरते बीज को इसके पहले कि वह ज़मीन पर गिरे, बीच में ही पकड़ लिया। इसके बाद अनन्तपिण्डक ने उसे सोने के एक बर्तन में अंकुरित किया जिसे आनंद ने बुद्ध की तरफ़ से जोतवन के द्वार पर लगा दिया। कहा जाता है कि वृक्ष बहुत जल्द बहुत बड़ा हो गया था। बुद्ध ने इसके नीचे एक रात तप कर इसे और पवित्र बना दिया। चूंकि ये वृक्ष आनंद ने लगाया था इसलिये इसका नाम आनंद बोधि पड़ गया।
अगली कई सदियों तक श्रावस्ती और जेतवन विहार पनपते रहे। इस दौरान आजातशत्रु का मगध साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य और फिर कुषाण साम्राज्य होता था। पांचवीं सदी में कभी गुप्त काल के अंत के समय ये स्थान वीरान और बरबाद हो गए। चीनी यात्री फ़ाहियान के अनुसार उस समय हिमालय के गिरिपीठ के शहरों की आबादी एकदम कम हो गई थी। एक अन्य चीनी यात्री ह्वेन त्सांग जेतवन विहार आया था और उसने विभिन्न स्मारकों का उल्लेख किया था। उसने बताया कि शहर ख़ाली हो गया था। दिलचस्प बात है कि 10वीं-11वीं सदी के दौरान गधावला शासकों के समय यहां शहर के पुनर्जीवित होने के संकेत मिलते हैं।
इस स्थान की सर एलेक्ज़ेंडर कुन्निंघम ने 1862-1863 में दोबारा खोज की। उन्होंने सहेट और महेट पहाड़ियों की पहचान कर इन्हें जेतवन और श्रावस्ती बताया। इसके बाद उन्होंने मूलगंध कुटी, मठों औरअन्य मंदिरों के अवशेषों की खोज की। उन्होंने गंधावला राजा मदनपाल और उसके पुत्र गोविंद चंद्र केअभिलेख भी खोज निकाले जिसमें जोतवन को उनके द्वारा किये गये दान का उल्लेख है।
कनिंघम के बाद डॉ. होए (1874-1876 और 1884-1885), डॉ. वोगल (1907-08) और डॉ के.के. सिन्हा (1959) ने भी इस जगह खुदाई की जिसमें कई ढांचे मिले।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और कैनसई विश्वविद्यालय ओसाका ने प्रो. अबोशी के दिशा निर्देशों में सात सत्रों तक इस जगह खुदाई की जिसमें पता चला कि 8वीं ई.पू. सदी से लेकर 5वीं ईस्वी तक यहां लोग रहते थे। 10वीं ईस्वी के आसपास भी कुछ समय तक यहां आबादी होती थी। खुदाई के दौरान टेराकोटा के मानव की कई लघु मूर्तियां, जानवरो की लघु मूर्तियां, झुनझुनेऔर स्किन रबर आदि मिले। इनके अलावा चांदी और तांबे के चिन्हित सिक्के, अयोध्या सिक्के और कुषाण सिक्के भी मिले।
आधुनिक श्रावस्ती ज़िला मुख्यलय और एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र है जहां बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं। हालंकि इसे बौद्ध तीर्थ स्थल और बौद्ध पर्यटन केंद्र माना है लेकिन ये स्थान जैनियों के लिये भी महत्वपूर्ण है। जैनियों का विश्वास है कि यहां उनके तीसरे तीर्थंकर शोभनाथ का जन्म हुआ था। श्रावस्ती और जेतवन विहार के बीच शोभनाथ जैन मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। इसके अलावा यहां जैन तीर्थंकरों की कई मूर्तियां मिली हैं। हर साल यहां देश-विदेश से भारी संख्या में सैलानी आते हैं। ये स्थान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व संग्रहालय के संरक्षण में है।
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