महाराष्ट्र की अनमोल बुनाई – पैठणी

महाराष्ट्र की अनमोल बुनाई – पैठणी

जिस तरह एक दक्षिण भारतीय दुल्हन, कांजीवरम साड़ी के बिना अपूरा होती है, ठीक वैसे ही पैठणी साड़ी मराठी दुल्हन के संचित खजाने का एक जरूरी हिस्सा होती है।

चटख़ रंगों और ख़ूबसूरत बुनाई वाली पैठणी साड़ियों के साथ समृद्ध परंपरा और इतिहास जुड़ा हुआ है। मराठा साम्राज्य में रानियों से प्रसिद्ध पैठणी का इतिहास हज़ारों साल पुराना है।

पैठण का प्रसिद्ध रेशम

उत्तर महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर स्थित पैठण शहर का बड़ा ऐतिहासिक महत्व रहा है और ये कभी सत्ता का केंद्र हुआ करता था। ये दक्षिणापथ का एक महत्वपूर्ण स्थल हुआ करता था। दक्षिणापथ वो मार्ग था जो मगध के बड़े नगरों को दक्षिण के बड़े नगरों से जोड़ता था। दूसरे ई.पू. और दूसरी शताब्दी के बीच ये दक्कन के महान शासकों सातवाहनों का प्रमुख केंद्र बन गया था। उस समय यहां के रेशम को और उसके व्यापार को शाही संरक्षण प्राप्त था और पैठणी रेशम की बहुत ज़्यादा मांग बढ़ भी गई थी।

पैठण

कहा जाता है कि यूनानी – रोमन दुनिया में इसकी इतनी मांग थी कि रोमन व्यापारी इसके लिये पश्चिमी तट पर कल्याण के पुराने बंदरगाह पर कई दिनों और हफ़्तों तक इंतज़ार करते थे। एक समय में रोम में भारतीय रेशम की मांग इतनी बढ़ गई थी कि रोम के व्यापारी इसे बराबरी वज़न के सोने के बदले में ख़रीदते थे।

पुरातत्त्ववेत्तों से पैठण में खुदाई के दौरान सातवाहन साम्राज्य के समय की रेशम बुनने की सुईयां जैसी चीज़े मिली हैं।

क़रीब दूसरी शताब्दी के आसपास, व्यापारिक केंद्र के रुप में पैठण का महत्व कम हो गया क्योंकि एक तो रोम के साथ व्यापार बहुत घट गया था और जैसा कि माना जाता है, सातवाहनों ने पैठण को छोड़कर दक्षिण में अपनी राजधानी बना ली था जिसे मौजूदा समय में हम आंध्र प्रदेश के अमरावती के नाम से जानते हैं।

बहरहाल, इसके बावजूद 8वीं और 12वीं शताब्दी के बीच राष्ट्रकूट और यादवों के शासनकाल में एक तीर्थ स्थान के रुप में पैठण का महत्व बना रहा। उस समय यहां मंदिरों में उत्कृष्ट रेशम के कपड़े का चढ़ावा चढ़ाया जाता था। समय के साथ पैठण रेशम शहर का पर्याय बन गया और अमीरों तथा सभ्रांत घरों की पहली पसंद हो गया। 18वीं सदी में पेशवाओं के समय पैठणी साड़ियों की बहुत मांग थी।

फ़ारसी प्रभाव

पैठणी बुनाई में कई तरह के प्रभाव नज़र आते हैं। उदाहरण के लिये पल्लू पर बेलबूटे वाला ज़री का काम फ़ारसी कपड़ों पर की जाने वाली बेलबूटों की बुनाई से प्रभावित था जिसे आज हम कुयारी या मैंगो (आम) रुपांकन के रुप में जानते हैं। ईरानी रुपांकन और तकनीक औरंगाबाद में लगभग 14वीं शताब्दी में आई थी। ये वो समय था जब सन 1327 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ ने दिल्ली को छोड़कर देवगिरी को अपनी राजधानी बना लिया था। तुग़लक़ के इस फ़ैसले की वजह से हज़ारों लोगों को दिल्ली छोड़कर देवगिरी आना पड़ा जिसमें मुसलमान बुनकर भी शामिल थे। सात साल बाद तुग़लक देवगिरी छोड़कर चला गया लेकिन मुस्लिम बुनकर यही बस गए। इन्हीं बुनकरों ने विशेष बुनाई की शुरुआत की थी जिसे ‘हिमरु’ कहते हैं।

कहा जाता है कि हिमरु बुनाई की तकनीक ईरान से आई थी जो कम्ख़्वाब की नक़ल थी। ईरान में शाही घरानों के लिये कपड़ों पर कम्ख़्वाब, सोने और चांदी की बुनाई से की जाती थी। सन 1292 में इतालवी यात्री और व्यापारी मार्को पोलो दक्कन आया था और तब उसे उपहार में एक हिमरु शॉल दी गई थी। उसने अपने संस्मरण में लिखा है, “ये मकड़ी के जाले की तरह महीन है और किसी भी देश का राजा और रानी इसे पहनकर फ़ख़्र मेहसूस करेंगे।”

पैठणी बुनाई में बेलबूटे और मदिरा जैसे हिमरु के लोकप्रिय रुपांकनों का समावेश किया गया। औरंगाबाद के बुनकरों ने जहां हिमरु बुनाई की तकनीक को अपनाया वहीं इसमें स्थानीय चीज़ों को भी जोड़ा । बाद के समय में मराठा महिलाएं पैठणी साड़ियों के साथ हिमरु शॉल ओढ़ती थीं।

पेशवाओं का गौरव

18वीं शताब्दी में पुणे के पेशवाओं ने पैठणी में नये सिरे से जान फूंक दी। पैठणी नाम ही पेशवा के समय पड़ा था। मराठा साम्राज्य के फैलने के साथ पुणे में अमीर लोगों का आना शुरु हो गया और मराठा महिलाओं में पैठणी साड़ियों की मांग बढ़ने लगी। सोने और चांदी की ज़रीदारी वाली पैठणी साड़ियां पहनना शान की बात हो गई थी। चूंकि पैठणी साड़ियों की मांग बहुत होने लगी थी और बुनकरों की संख्या कम थी इसलिये मराठा महिलाओं को इन साड़ियों के लिये महीनों इंतज़ार करना पड़ता था।

पेशवाओं के शासन के दौरान पैठण बुनाई अपने चर्मोत्कर्ष पर थी। बुनकर साड़ियों के अलावा पुरुषों के लिये स्टोल (ओढ़नी) भी बनाने लगे थे जो वे धोती के साथ पहनते थे। कहा जाता है कि सन 1761 से लेकर सन 1772 तक शासन करने वाले पेशवा माधवराव पैठण रेशम पर इतने मोहित हो गए थे कि उन्होंने लाल, हरे, नारंगी, अनार और गुलाबी रंग में असावली रुपांकन (अंगूर की लताएं) के पैठण दुपट्टों की उपलब्ध करने का आदेश दिया था। पेशवा की पसंद की वजह से उस समय असावली और आकृति (बादाम के आकार वाले फूल) रुपांकन वाले पैठण दुपट्टे बहुत लोकप्रिय हो गए थे। पेशवा-शासन के दौरान पैठणी के बॉर्डर और पल्लू पर सोने और तांबे की ज़रदारी होने लगी थी। बहुत जल्द पैठणी महाराष्ट्र का सांस्कृतिक पहनावा बन गया।

पैठणी बुनाई की प्रक्रिया

पैठणी की बढ़ती मांग की वजह से आज पुणे से 211 कि.मी. दूर येवला जैसे स्थानों में गढ्डों के करधों की जगह जैकर्ड करधों ने ले ली है। यहां सस्ते और अधिक संख्या में पैठणी बनाई जाती है। येवला में पैठणी का उत्पादन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरु हुआ था क्योंकि पैठणी की मांग बढ़ गई थी। बाद में यहां सस्ते क़िस्म के पैठणी का भी उत्पादन होने लगा। आज भी यहां जैकर्ड  करधे पर भारी मात्रा में पैठणी का उत्पादन होता है।

जल्दी उत्पादन के लिये जैकर्ड तकनीक के ज़रिये जटिल डिज़ाइनों की बुनाई की जाती है। इससे मेहनत और समय की तो बचत हो गई लेकिन पैठणी की गुणता भी प्रभावित हुई है।

पैठणी के विभिन्न रुपांक

पैठानी महज़ रंगों की छटा नहीं है बल्कि रुपांकनों की बौछार भी है। हुमा परिंदे, बांगडीमोर, तोता-मैना, अनारबेल और बहिश्ती परिंदा (स्वर्ग का पक्षी) के अलावा असावली में बेल और फूलों जैसे रुपांकनो पर मुग़ल और ईरान का प्रभाव दिखाई पड़ता है।

मोरबांगड़ी | लिव हिस्ट्री इंडिया 

मोरबांगड़ी- मराठी का ये शब्द चूड़ी और मोर को मिलाकर बनाया गया है। मोरबांगड़ी रुपांकन में चूड़ी के आकार में या चूड़ी के अंदर मोर की डिज़ाइन बनाई जाती है। इस रुपांकन में अमूमन चूड़ी होती है जिसके अंदर एक कमल का फूल होता है और चार दिशाओं में चूड़ी पर चार मोर बैठे होते हैं। हिंदू दंतकथा के अनुसार ये चार मोर भगवान विष्णु के चार हाथ माने जाते हैं। कहा जाता है कि मध्य में जो नाभी कमल है वो फूल भगवान विष्णु के पेट से निकला था। ये सबसे पुराने रुपांकनों में से एक है और इसे पैठणी साड़ी के पल्लू पर बनाया जाता है।

तोता मैना- तोता और मैना पक्षियों को रुमानी रुप में दर्शाया जाता है जिनके आसपास बेलबूटे बने होते हैं। इन रुपांकनों में गहरे हरे और लाल रंग का प्रयोग किया जाता है। पैठणी साड़ियों के बॉर्डर और पल्लू पर भी तोता बनाया जाता है जिसे मुनिया रुपांकन कहते हैं।

कमल पुष्प रुपांकन | लिव हिस्ट्री इंडिया 

कमल पुष्प- कमल पुष्प रुपांकन औरंगाबाद में अजंता की गुफाओं की भित्ति चित्रों पर बौद्ध पेंटिंग से काफ़ी मिलते जुलते हैं। बौद्ध प्रतिमा‍ विज्ञान में ये पुनर्जन्म को दर्शाता है।

कोयरी- आम के फल के आकार का ये रुपांकन पैठणी साड़ियों में तब से बना चला आ रहा है जब पैठण में मराठाओं का सम्राज्य हुआ करता था। इस पर ईरान के बेलबूटों की बुनाई का भी प्रभाव दिखाई देता है।

आकृति रुपांकन- बादाम के ज्यामितीय आकार और फूलों के रुपांकन सातवाहन शासकों के समय के हैं। चूंकि ये बहुत सुंदर और सादे होते हैं इसलिये आप इन्हें लगभग हर पैठणी साड़ी के पल्लू या फिर बॉर्डर में पाएंगे।

असावली रुपांकन- असावली रुपांकन में बेलबूटे और फूल होते हैं। पेशवा के शासनकाल में बेल लताओं और गुलदानों के साथ फूलों का ये रुपांकन बहुत लोकप्रिय था। इस पैटर्न में मुग़ल प्रभाव भी देखा जा सकता है। मज़े की बात ये है कि सन 1996 में ब्रिटिश एयरवेज़ ने अपने हवाई जहाज़ों पर असावली रुपांकनों का इस्तेमाल किया था।

नारली- 19वीं शताब्दी तक पैठणी साड़ियों के बॉर्डर पर श्रीफल यानी नारियल का रुपांकन बहुत होता था। हिंदू संस्कृति में ये रुपांकन स्वार्थहीन सेवा, उपयोगिता, समृद्धि और संपन्नता का प्रीतक माना जाता है।

कलश पाकली- पत्तियों का रुप, रुई फूल, कपास की कलिया – औरंगाबाद की प्राकृतिक प्रेरणा लेकर बुनकर अन्य रुपांकनों के रुपांकन बनाते थे।

पैठणी का पुनरुत्थान

सन 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन का पैठणी उत्पादन पर बहुत असर पड़ा था और ये कला लगभग विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची गई थी। उस समय पैठणी के दक्ष बुनकरों के बमुश्किल चार-पांच परिवार ही बचे रह गए थे। ऐसे में नये बुनकरों को ये कला सिखाने की ज़रुरत मेहसूस की गई।

19वीं शताब्दी के ख़त्म होते होते महाराष्ट्र लघु उद्योग विकास निगम (MSSIDC) और भारत सरकार ने पैठणी के पुनरुत्थान की दिशा में काम करना शुरु किया। सन 1978 में MSSIDC ने बुनकरों के लिये नये प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए। इन केंद्रों में प्रशिक्षित बुनकर नये लोगोंको प्रशिक्षण देते थे जो दरअसल बुनकर बिरादरी से नहीं थे।सन 1986 में MSSIDC ने पैठण और येवली में मराठी पैठण केंद्रों की स्थापना की। इस निगम ने इस कला की तरफ़ लोगों को आकर्षित करने के लिये वेतन और कच्चे माल का भी इंतज़ाम किया। आज क़रीब दो हज़ार लोगों को इस कला में पारंगत किया जा चुका है और ये लोग इस क्षेत्र में अपना ख़ुद का कारोबार कर रहे हैं। आज ये दोनों केंद्र पैठण साड़ियों के उत्पादन और व्यापार का केंद्र बन चुके हैं। चूंकि पैठण साड़ी बुनने में बहुत समय लगता है इसलिये यहां हर साल 150 से 200 तक ही पैठणी साड़ियां बन पाती हैं।

मराठी पैठणी केंद्र की पुरस्कारीत बुनकर कविता ढवले हमें MSSIDC द्वारा पैठणी के पुनरुद्धार के बारे में बताती हैं।

हालंकि पैठणी की विरासत को फिर ज़िंदा करने की कोशिशें कुछ हद तक सफल रही हैं लेकिन इस पारंपरिक हुनर पर ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ि के बहुत कम लोग इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं। महाराष्ट्र की इस समृद्ध और ऐतिहासिक कला को आज उसी पहचान की ज़रुरत है जो प्राचीन रोमन से लेकर पेशवा के समय तक इसे मिलता था।

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