लखनऊ की चिकनकारी

लखनऊ की चिकनकारी

लखनऊ शहर की कई ख़ासियत हैं जिनका ज़िक्र भारते के समृद्ध इतिहास में मिलता है जो इसे और ख़ास बना देता है। सदियों से कला और संस्कृति इस शहर की पहचान रही है। ऐसी ही एक कला है लखनऊ चिकनकारी जिसने गुज़रे ज़माने के शाही परिवारों और आज के फ़ैशनपरस्त शख्सियतों दोनों को ही समान रुप से विस्मित किया है। कला के इस रुप में कशीदाकारी की क़रीब 36 तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। अब आधुनिक समय में चिकनकारी में मोती, कांच और मुक़ेश(बादला) से भी सजावट की जाती है।

आज लखनऊ कढ़ाई की इस कला का गढ़ बन चुका है और अब तो इसकी शोहरत विदेशों तक पहुंच चुकी है। चिकनकारी कढ़ाई का वो काम है जो सफ़दे धागे से महीन सफ़ेद कपड़े पर की जाती है। चिकनकारी को शैडो वर्क के नाम से भी जाना जाता है। पारंपरिक रुप से चिकनकारी मलमल और सफ़ेद कपड़े पर सफ़ेद धागे से की जाती थी लेकिन आज ये अलग अलग कपड़ों पर अलग अलग हल्के रंगों के धागों से की जाती है।

इतिहास और आरंभ

भारतीय चिकनकारी का काम तीसरी शताब्दी से होता रहा है। चिकन शब्द शायद फ़ारसी के चिकिन या चिकीन शब्द से लिया गया है जिसका मतलब होता है कपड़े पर एक तरह की कशीदाकारी। लखनऊ में चिकनकारी का काम दो सौ सालों से भी पहले से होता रहा है। लेकिन किवदंतियों के अनुसार 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां तुर्क कशीदाकारी से बहुत प्रभावित थीं और तभी से भारत में चिकनकारी कला का आरंभ हुआ। ये भी माना जाता है कि आज चिकनकारी वाले लिबासों पर जो डिज़ाइन और पैटर्न नज़र आते हैं उसी तरह के डिज़ाइन और पैटर्न वाले चिकनकारी के लिबास बेगम नूरजहां भी पहनती थीं।

जहांगीर भी इस कला से बहुत प्रभावित थे और उनके संरक्षण की वजह से ये कला ख़ूब फलीफूली थी। उन्होंने इस कला में निखार लाने और महारथ हासिल करने के लिये कई कार्यशालाएं बनाईं थीं। इस अवधि (मुग़लकाल) में अधिकतर मलमल के कपड़ों का इस्तोमाल होता था क्योंकिमलमल, सूखे और उमस भरे मौसम में सुकून देता था।

नूरजहां | विकिमीडिआ कॉमन्स 

मुग़लकाल के पतन के बाद 18वीं और 19वीं शताब्दी में चिकनकारी के कारीगर पूरे भारत में फैल गए और उन्होंने चिकनकारी के कई केंद्र खोल दिए। इनमें से लखनऊ सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था जबकि दूसरे नंबर पर अवध का चिकनकारी केंद्र आता था। उस समय बुरहान उल मुल्क अवध का गवर्नर और ईरानी अमीर था। वह चिकन का मुरीद भी था जिसने इस कला के गौरवशाली अतीत की बहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनका ये योगदान आज भी ज़िंदा है। हालंकि आज लखनऊ चिकनकारी का गढ़ है लेकिन पश्चिम बंगाल और अवध ने भी इसके विकास में भूमिका अदा की थी।

चिकनकारी कढ़ाई के आरंभ के बारे में कई तरह की बाते की जाती हैं। कहा जाता है कि एक बार एक यात्री लखनऊ के एक गांव से गुज़र रहा था। प्यास लगने पर उसने एक ग़रीब किसान से पानी मांगा। किसान की मेहमान नवाज़ी से ख़ुश होकर यात्री ने उसे चिकनकारी की कला सिखाई जिसके बाद वह किसान कभी भूखा नहीं रहा।

तरीक़ा

लखनऊ चिकनकारी की तकनीक को आसानी से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- कढ़ाई के पहले और बाद का चरण और सिलाई के 36 रुप जिन्हें कढ़ाई की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जा सकता है। चिकनकारी के तमाम कामों के मुख्यत: तीन चरण होते हैं जो इस प्रकार हैं-

ब्लॉक पेंटिंग– ये आरंभिक चरण है जिसमें कपड़े पर डिज़ाइन बनाई जाती है। लिबास के रुप के अनुसार कपड़े को काटा जाता है। इसके बाद नीली स्याही वाले लकड़ी के छापे से कपड़े पर डिज़ाइन की छपाई की जाती है।

कढ़ाई– कढ़ाई का काम अमूमन महिलाएं करती हैं। कपड़े को एक छोटे फ़्रेम में लगाया जाता है और फिर दाएं हाथ से सुई को कपड़े में घुसाया जाता है। बाएं हाथ से धागे को नियंत्रित किया जाता है ताकि सिलाई, छपाई वाले पैटर्न पर ही हो। कोई कारीगर किस तरह की सिलाई का चुनाव करता है ये निर्भर करता है उस क्षेत्र की विशेषता और रुपांकन की क़िस्म तथा साइज़ पर।

धुलाई– कढ़ाई का काम पूरा होने के बाद पैटर्न की आउट लाइन को हटाने के लिये कपड़े को पानी में भिगोया जाता है। इसके बाद कपड़े को कड़ा करने के लिये इसमें कलफ़ लगाया जाता है। कलफ़,कपड़े की क़िस्म के अनुसार ही लगाया जाता है।

एक पैटर्न के भीतर अलग अलग लखनऊ चिकनकारी सिलाई के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है। इनमें हैं- मकड़ा, कोड़ी, हथकड़ी, साज़ी, करण, कपकपी, धनिया पत्ती, जोड़ा और बुलबुल सिलाई। इसके अलावा और भी कई सिलाईयां होती हैं। कच्चे धागे की गांठों से भी दस तरह की सिलाईयां होती हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

कढ़ाई | विकिमीडिआ कॉमन्स 

जाली- जाली सिलाई लखनऊ की ख़ासियत है। इस तकनीक में जाली बनाने के लिये एक बड़ी कुंद सुई से बटन के काज पर महीन सिलाई की जाती है। इस तकनीक में धागा कभी भी कपड़े के आर पार नहीं जाता है और पिछले और अगले हिस्से में अंतर करना नामुमकिन होता है।

टेपची- इस सिलाई में कपड़े के दाएं तरफ़ बुनाई की जाती है और इससे रुपांकन की रुपरेखा तैयार होती है।

मुर्री- जटिल और बारीक पैटर्न में चावल के दाने के आकार की डिज़ाइन बनाने में इस सिलाई का इस्तेमाल होता है।

बख़िया- इसे शैडो सिलाई भी कहते हैं। इसमें कपड़े के पीछे की तरफ़ धागे से सिलाई की जाती है जिसकी आउट लाइन कपड़े के सामने की तरफ़ दिखती और धागे का हल्का रंग भी नज़र आता है।

ज़ंज़ीरा- फूल-पत्तियों की रुपरेखा बनाने के लिये ज़ंज़ीर सिलाई का इस्तेमाल किया जाता है ख़ासकर तब जब ये फूल-पत्तियां पैटर्न से जुड़ी हों।

हूल- इसे सुराख़ की सिलाई कहते हैं। इससे फूल के मध्य की डिज़ाइन बनाई जाती है।

फ़ंदा- बाजरा के आकार की इस सिलाई से फूलों और अंगूरों की बेल बनाई जाती हैं।

रहत- एक सिलाई वाली इस तकनीक में पेड़ों की डंठलें बनाए जाते हैं लेकिन बख़िया तकनीक में डबल सिलाई का भी इस्तेमाल होता है।

कील कंगन- फूलों के रुपांकन और पंखुड़ियां बनाने में सिलाई की इस तकनीक का प्रयोग किया जाता है।

खाटुआ- इस सिलाई को बख़िया का एक बेहतर रुप माना जाता है जिसे फूल और बेलबूटें बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। पहले सादे कपड़े पर रुपांकन की बुनाई होती है और उसके बाद इसे मुख्य कपड़े पर उतारा जाता है।

सिलाई लखनऊ चिकनकारी की प्रमुख विशेषता है। हर सिलाई पूरी निपुणता के साथ की जाती है और इस तरह की नज़ाकत और कहीं मिलना मुश्किल है। हाथ से की हुई महीन और कलात्मक कढ़ाई लिबास को एक अलग ही रुप देती है।

तैयार लिबास की क्वालिटी और सफ़ाई के लिए पहले जांच की जाती है और फिर स्याही के अगर कोई दाग़ हों तो उन्हें मिटाने के लिया धोया जाता है। बाज़ार में पहुंचाने के पहले लिबास पर सही तरीक़े से कलफ़ लगाया जाता है।

क़िस्म और शैलियां

ऐसा लगभग मुश्किल से ही होता है कि लखनऊ चिकनकारी का लिबास हो और उस पर फूलों के पैटर्न या रुपांकन न हों। चिकनकारी कला में चूंकि ईरानी सौंदर्य-शास्त्र का गहरा प्रभाव है इसलिये डिज़ाइन में फूलों का होना एक तरह से अपरिहार्य है। फूलों की क़िस्म (बूटी, पत्तियां और बेलबूटे के रुपांकन सहित) और इन्हें बनाने की शैलियां फ़ैशन के चलन के साथ बदलती रही हैं लेकिन इनकी जटिलता और नज़ाकत जस की तस रही है।

शुरु शुरु में चिकनकारी सफ़ेद धागे से बनाए गए मलमल या सामान्य कपड़े पर की जाती थी लेकिन समय के साथ इसमें और हल्के रंगों और फ़्ल़ॉरेसेंट का समावेश हो गया। चिकनकारी के लिये रेशम, शिफ़ॉन, जार्जट, नैट, महीन कपड़ा, कोटा, डोरिया, ऑरगेंज़ा, कॉटन और कृतिम कपड़े जैसे मुलायम फ़ैब्रिक (कपड़ा) ज़रुरी होता है क्योंकि इन पर हाथ से सिलाई होती है। मुलायम कपड़े की वजह से न सिर्फ़ लिबास हल्का रहता है और इस पर कढ़ाई भी आसानी से हो जाती है बल्कि इस पर कारीगरी अलग ही नज़र आती है।

महिलाओं और पुरुषों की तरह तरह की पोशाकों पर चिकनकारी देखी जाती है। आप लंबे कुर्ते से लेकर साड़ी, अनारकली और प्लाज़ो ख़रीद सकते हैं। यहां तक कि बाज़ार में चिकनकारी वाले लैंपशेड, सोफ़ा और मेज़ के कवर जैसे घरेलू सामान भी उपलब्ध हैं।

चिकनकारी वाले कवर

वर्तमान में चिकनकारी

लखनऊ चिकन कशीदाकारी अपने आरंभ के बाद से घटती-बढ़ती रही है। मुग़लकाल और नवाबों के दौर में इसने जहां सुनहरे दिन देखे थे, वहीं बाद के वर्षों में अंग्रेज़ों के शासनकाल में इसकी लोकप्रियता में गिरावट आ गई थी। ये औध्योगिकिकरण का दौर था जब चिकनकारी का फिर से उदय हुआ और पहले की तरह उसकी लोकप्रियता हो गई। इसके व्यावसायीकरण होने में भी ज़्यादा समय नहीं लगा। चिकनकारी को राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान और लोकप्रियता बनाने में बॉलीवुड तथा चिकनकारी वाले लिबास बनाने वाली छोटी कंपनियों का बहुत योगदान रहा है।

सन 1986 में आई मुज़फ़्फ़र अली की हिंदी फ़िल्म अंजुमन में पहली बार चिकनकारी देखने को मिली थी। इस फ़िल्म में शबाना आज़मी और फ़ारुक़ शेख़ थे। लखनऊ की पृष्ठभूमि पर बनी ये फ़िल्म महिलाओं के दमन और स्थानीय चिकन कशीदाकारी करने वाले कारीगरों की दिक़्कतों के बारे में बनाई गई थी।

अंजुमन फिल्म के कवर में शबाना आज़मी कढ़ाई करते हुए 

लखनऊ चिकन की क़िस्में पहले जितनी होती थीं आज उससे कहीं ज़्यादा हो चुकी हैं। शहर के आम लोगों, उच्च वर्ग और बॉलीवुड तथा हॉलीवुड की हस्तियों में इनकी बहुत मांग है।ज्योग्रफ़िकल इंडीकेशन रजिस्ट्री ने लखनऊ चिकन को दिसंबर सन 2008 में जी.आई. का दर्जा दिया था। चिकनकारी उद्योग में आज ढ़ाई लाख कारीगर काम करते हैं जो भारत में कारीगरों के सबसे बड़े जमावड़ों में से एक है।

अस्सी के दशक में औध्योगिकिकरण के दौरान जब लखनऊ चिकनकारी फिर से चलन में आई तो इसकी व्यावसायिक और सस्ती नक़ल भी होने लगी। इसकी लागत कम करने के लिये कपड़ों की नयी क़िस्में और कशीदाकारी की मशीनें आ गईं। इसके बाद जब भारतीय फ़ैशन का नया लाभ कमाने वाला दौर आया तो छोटी बड़ी डिज़ाइनर कंपनियों ने उत्पाद को और ख़ूबसूरत बनाने के लिये चिकन में क्रिस्टल, मुक़ेश(बादला) और ज़रदोज़ी जोड़नी शुरु कर दी।

पिछले कुछ बरसों में रचनात्मकता के मामले में चिकनकारी के रुप में ज़बरदस्त बदलाव आ हैं और तरह तरह के कपड़ों और कढ़ाई के साथ प्रयोग होने लगे हैं। लेकिन बदलावों के बावजूद इसका मूल स्वरुप आज भी इसके जन्मस्थान लखनऊ में रचा बसा है।

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