कोलकाता के कोसिपुर इलाके में आपको इमारतों से घिरी-हुई एक छोटी-सी हरी मस्जिद दिखाई देती है, जिसके तीन गुम्बद हैं। दिलचस्प बात ये है, कि ये कोलकाता की सबसे पुरानी मस्जिद है और ये उस ज़माने से है, जब ये अंग्रेजों का छोटा व्यापारिक केंद्र हुआ करता था। एक बात और जो इस मस्जिद को रोचक रोचक बनाती है, वो ये है, कि हालाँकि ये मस्जिद कोलकाता में सबसे पुरानी है, लेकिन मस्जिद के निर्माण की तारीख और उसको बनाने वाले का नाम, दोनों इतिहास के पन्नों में आज कहीं गुम है।
इस मस्जिद के इतिहास पर विस्तार से वर्णन कोलकाता के इतिहासकार पीयूष कांती रॉय ने अपनी किताब “दि मोस्क्स ऑफ़ कैलकटा” (2012) में किया है। कलकत्ता या कोलकाता, जैसे कि आज उसे जाना जाता है, के निर्माण से पहले, यहाँ जंगलों से घिरा इलाका हुआ करता था, जहां तीन गाँव- सुतानुती, गोबिंदपुर और कालिकाता मौजूद थे, जो बरिशा की जमींदार परिवार सबरना रॉय चौधरी के थे।
1700 के शुरूआती दिनों से, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इन गाँवों पर अपना अधिकार जमाया और यहाँ उन्होंने अपने लिए एक नया शहर बसाना शुरू किया। जैसे-जैसे ये नया शहर बढ़ता गया, तमाम बंगाल के गाँवों से कई गांव वाले यहाँ आकर बसने लगे। इनमें मुसलमान निवासियों की तादाद भी बढ़ी, जिसके कारण यहाँ मस्जिद बनाने की ज़रूरत महसूस हुई।
मस्जिद के करीब एक आधारशिला हुआ करती थी, जो कुछ सालों पहले यहाँ से “गायब” हुई। इसके मुताबिक़, 1219 हिजरी (सन 1804 ईस्वी) में पुराने मस्जिद के अवशेषों पर वर्तमान में बनीं मस्जिद का निर्माण, ‘जाफिर अली’ नाम के किसी आदमी ने करवाया था। कई लोगों का ये मानना है, कि ये मीर जाफर हो सकता है, जिसने 1757 में प्लासी के युद्ध के दौरान, नवाब सिराजुद्दौला को दगा दिया था और फिर, जिसको अंग्रेजों ने बंगाल का नवाब बनाया था। कम समय तख़्त पर बैठने के बाद, 1760 के आसपास, अंग्रेजों ने उसको नेस्तनाबूद किया और फिर मीर जाफर कोलकाता में रहा। मीर जाफर की मौत 1765 में, मस्जिद के नवीकरण से 39 साल पहले हुई थी, तो मीर जाफर, जफर अली नहीं हो सकता, जिसने इस मस्जिद को वर्तमान रूप दिया। एक और नाम यहाँ सामने आता है, और वो है, रज़ा अली खान।
1717 को फारस में जन्में सैय्यद मुहम्मद रज़ा अली खान, मुर्शिदाबाद के दरबार के सबसे प्रभावशाली लोगों में गिने जाते थे। शासन-प्रबंध में निपुण रज़ा खान, आगे चलकर ढाका के नायब-नजीम (डिप्टी गवर्नर) बनें। प्लासी के युद्ध के बाद, सियासी ताकत अब नवाबों से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ आ चुकी थी और रज़ा खान ने हालात को देखते हुए, रोबर्ट क्लाईव, बंगाल प्रेसीडेंसी के पहले ब्रिटिश गवर्नर, के साथ अपने सम्बन्ध मज़बूत किये। 1765 से लेकर 1772 तक रज़ा खान, बंगाल के दीवान के ओहदे तक पहुंचे। उनका प्रभाव इतना था, कि कई इतिहासकार रज़ा खान को बंगाल का आभासी शासक मानते हैं।
मगर ईस्ट इंडिया कंपनी चाहती थी, कि दीवानी का ज़िम्मा सिर्फ यूरोपीयन लोग ही सम्भालें। रज़ा खान के अधिकार पर निगरानी रखने के लिए, 1769 में कंपनी ने जिला पर्यवेक्षक के पद की स्थापना की, जिसके बाद, 1772 में रज़ा खान को ना सिर्फ उनके पद से निकाला, मगर उनको हिरासत में भी लिया गया। मगर मुकदमे के दौरान, वो अपनी बेगुनाही साबित करने में कामयाब रहे और उन्होंने ये भी साबित किया, कि फोर्ट विलियम की सरकार खुद को अपने भ्रष्टाचार के इल्जामों से बचाने के लिए रज़ा खान को बलि का बकरा बनाना चाहती थी। 1775 में, उनको बाइज्ज़त नायब दीवान बनाया गया। 1791 में लार्ड कोर्नवालिस ने ये ओहदा खत्म किया और इसके कुछ दिनों बाद ही रज़ा खान की मौत हुई। काफ़ी समय तक रज़ा खान, कलकत्ता में रहे, जिसके कारण, इतिहासकार इस बात को मानते हैं, कि शायद मस्जिद के निर्माण में इनका योगदान रहा होगा। मगर वक़्त के साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों के गायब हो जाने पर, इस बात को साबित करना मुश्किल है।
मस्जिद का नाम “बसरी शाह”, दरअसल अट्ठारहवीं शताब्दी के सूफी संत बसरी शाह की दरगाह से आता है, जो मस्जिद के ठीक बगल में मौजूद है और जिसका अहाता इसको घेरता है। इसका नाम भी, इसके निर्माण की तारीख की तरह विवादों से घिरा हुआ है।
अधिकृत रूप से देखें, तो नगरपालिका के ऐतिहासिक इमारतों की सूची में इस मस्जिद का नाम ‘बसरी शाह मस्जिद’ ही बताया गया है। इससे सटी हुई मज़ार भी बसरी शाह मज़ार के नाम से दर्ज है। मगर कुछ किताबें, इस संत का नाम भौसरी शाह और मस्जिद को भौसरी शाह मस्जिद के नाम से बताती हैं। इस दुविधा की जड़ बीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के इतिहासकार सर एच. ई. ए कॉटन के एक बयान से बताई जाती है, जिन्होंने अपनी किताब “कैलकटा ओल्ड एंड न्यू” (1907) में लिखा है, कि “नहर के तट पर धार्मिक स्थल से कम दूरी कलकत्ता से मस्जिद तक की है। ये है भौसरी शाह की मस्जिद और दरगाह, कलकत्ता (चितपुर)।
मगर पीयूष कांती रॉय की किताब “दि मोस्क्स ऑफ़ कैलकटा” (2012) के अनुसार, लेखक ने वक्फ बोर्ड के मुत्वालिस बातचीत की और इस दौरान इस बात को जाना, कि ये संत बसरा (इराक) के रहने वाले बसरिया रहमतुल्लाह अल्लाहे थे, जो आगे चलकर कलकत्ता में आने के बाद स्थानीय लोगों के बीच “बसरिया शाह” या “बासरी शाह” के नाम से मशहूर हुए। उनके निधन के बाद, उनकी मज़ार उनके अनुयायियों ने बनवाई थी और क्योंकि, ये उसी प्रांगण में बनीं, तभी इसका नाम “बसरी शाह मस्जिद” रखा गया।
कुछ समय पहले तक, इस मस्जिद की हालत खस्ता थी। फिर कोलकाता नगर प्राधिकरण ने इसको अपने ऐतिहासिक इमारतों की सूची में दर्ज किया और फिर इसकी मरम्मत भी की।
मस्जिद का निर्माण मुर्शिदाबदी वास्तुकला शैली में हुआ है। इसके तीन गुम्बद मध्य में मौजूद हैं और चार मीनारें इन गुम्बदों के पूर्व और पश्चिम दिशा में स्थित हैं। इमारत के प्रवेश में तीन मेहराबें हैं। अन्दर की दीवारों प्लास्टर या स्टूको के काम से सजी हुई हैं, जिसमें फूलों की कलाकृतियाँ ज़्यादा देखने को मिलती हैं। बाहरी दीवारों में चूने से बनें महीन फूलों के आकर देखे जा सकते हैं। ईंटों का स्थानन और लिनन प्लास्टर की परत, मस्जिद की सौन्दर्यता को बढ़ाती है।
इसकी मूल वास्तुकला, जिसे “दि मोस्क्स ऑफ़ कैलकटा” (2012) की एक तस्वीर में देख सकते हैं, पुनर्निर्मित मस्जिद की वास्तुकला से कुछ हद तक अलग है। पहले बाहरी दीवारों का रंग ईंटों का लाल और गुम्बद का रंग नीला था।
1850 में अँगरेज़ फोटोग्राफर फ्रेडेरिक फीबिग द्वारा खींची गई मस्जिद की तस्वीर से अगर तुलना की जाए, तो एक बड़ा फर्क नज़र आता है। उसमें भी गुम्बदों का मूल रंग नीला और मस्जिद की दीवारों का रंग ईंटों का लाल था। दो पतली मीनारों को बड़ी मीनारों के भीतर स्थापित किया गया था। ये ईमारत फिर वीरान हो गई। मगर नवीकरण के बाद, आठ महत्वपूर्ण मीनारों की मरम्मत की गयी और गुम्बदों को हल्के-हरे रंग से रंगा गया।
इमाम ताहिर खान कादरी को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने यहाँ नियुक्त किया। उन्होंने बताया कि वहाँ नमाज़ के लिए बहुत कम लोग आते हैं। मगर बसरी शाह की दरगाह पर विभिन्न समुदायों से लोग आते हैं, जिनकी ये मान्यता है, कि इस पवित्र स्थल में उपचारात्मक ताकतें हैं।
बसरी शाह मस्जिद, कोलकाता की उन पहेलियों में से एक है, जो आज भी अपने राज़ बयान करने का इंतज़ार कर रही है।
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