चम्पकरमन पिल्लई: जिसने भारत की स्वतंत्रता के लिए हिटलर से हाथ मिलाया

चम्पकरमन पिल्लई: जिसने भारत की स्वतंत्रता के लिए हिटलर से हाथ मिलाया

जैसा कि हम जानते हैं, कई भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने, दुनिया के विभिन्न देशों में रहकर भारत की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। कुछ तो बहुत प्रसिद्ध हैं और कुछ पीछे रह गए । बड़ी तादाद में ऐसे भी स्वतंत्रता सैनानी रहे हैं, जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। इनमें एक क्रांतिकारी ऐसे भी थे , जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर तक से हाथ मिला लिया था। उन्होंने देश की आज़ादी की ख़ातिर हिटलर का समर्थन भी किया…लेकिन अफ़सोस है, कि वह हिटलर के हाथों मारे भी गए ! वे थे…चम्पकरमन पिल्लई।

एक पत्रकार और क्रांतिकारी के रूप में चम्पकरमन पिल्लई ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान किया था। कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में दावा किया गया है कि ‘जय हिंद’ नारा पिल्लई की ही देन है, जो बाद में राष्ट्रीय भावना का हिस्सा बन गया। लेकिन आज  उनकी विरासत के बारे लोग जानते ही नहीं हैं।

चम्पकरमन पिल्लई

एक क्रांतिकारी का उदय

15 सितंबर, सन 1891 को तिरुवनंतपुरम (अब केरल में) में चिन्नास्वामी पिल्लई और नागम्मल के घर जन्में चमपकरमन पिल्लई पर किशोरावस्था में ही बाल गंगाधर तिलक का गहरा प्रभाव पड़ गया था । गंगाधर तिलक ने ही पिल्लई को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। विडंबना यह रही, कि उनके पिता ब्रिटिश पुलिस में कांस्टेबल थे। कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में बताया गया है, कि अपने स्कूल के दिनों में भी पिल्लई, अपने दोस्तों का ‘जय हिंद’ कहकर अभिवादन करते थे। वह स्कूल कैंपस में और हाज़िरी के दौरान भी जय हिंद कहा करते थे। इस बात को लेकर स्कूल के प्रधानाचार्य चिंतित थे क्योंकि उन्हें डर था, कि अगर अंग्रेज़ों को इस बात का पता लग गया तो उनके लिए मुसीबत पैदा हो सकती थी। उन्होंने इस मामले की जांच के लिए पुलिस को बुलाया। एक कांस्टेबल जांच के लिए स्कूल आया। कांस्टेबल ने सबके सामने ‘अपराधी’ को बेंतें लगाईं। हैरानी की बात यह थी, कि वह कांस्टेबल चिन्नास्वामी पिल्लई थे और ‘अपराधी’ उनका अपना बेटा चम्पकरमन पिल्लई था!

लेकिन इस घटना के बावजूद, भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के अपने जज़्बे से पिल्लई डिगे नहीं। आख़िरकार उनके इस जज़्बे को, सन 1908 में,उस वक़्त पर लग गए जब ब्रिटिश वनस्पतिशास्त्री वाल्टर स्ट्रिकलैंड पश्चिमी घाट में तितलियों का अध्ययन करने के लिए केरल आए। अपने शोध के दौरान उनकी मुलाक़ात एक नौजवान टी. पद्मनाभन पिल्लई से हुई। पद्मनाभन पिल्लई ने, एक विज्ञान पत्रिका में मकड़ियों की रंग बदलने की क्षमता के बारे में एक लेख लिखा था।स्ट्रिकलैंड उस लेख से बहुत प्रभावित हुए थे। दिलचस्प बात यह थी, कि यहीं पर स्ट्रिकलैंड की मुलाक़ात चम्पकरमन पिल्लई से हुई जो पद्मनाभन के क़रीबी दोस्त और पड़ोसी थे या शायद रिश्तेदार थे । ब्रिटिश वनस्पतिशास्त्री, पिल्लई के देशभक्ति के विचारों से भी प्रभावित हुए। स्ट्रिकलैंड को चमपकरमन अपने हम ख़्याल लगे। क्योंकि स्ट्रिकलैंड भी साम्राज्यवाद विरोधी थे। इसलिए उनके देश में उनका मज़ाक भी उड़ाया जाता था। सन 1909 में स्ट्रिकलैंड दोनों नौजवानों को अपने साथ यूरोप ले गए। हैरानी की बात यह है कि यूरोप जाने के बाद पद्मनाभन ने वहां क्या किया, यह आज भी एक रहस्य बना हुआ है।

हिंदू-जर्मन साज़िश

तब तक यूरोप भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़ बन चुका था। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश उनकी गतिविधियों के केंद्र बन गए थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा, मैडम भीकाजी कामा और सरदारसिंहजी रावजी राणा जैसे प्रमुख क्रांतिकारी अपने लेखन, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और भाषणों के माध्यम से विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय थे, जहां से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम की तरफ़ दुनिया का ध्यान खींच कर रहे थे। लेकिन सन 1909 में मंज़र तब बदल गया, जब मदनलाल ढींगरा ने एक वरिष्ठ ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सर कर्ज़न वायली की हत्या कर दी थी, जो ब्रिटेन में असंतुष्ट भारतीय आवाज़ों को दबाने के लिए ‘गुप्त पुलिस’ का इस्तेमाल कर रहा था। इस घटना के बाद कई क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारियां हुईं जबकि कुछ भूमिगत हो गए। इस बीच पिल्लई के आगमन ने आंदोलन को एक नई दिशा दी।

यूरोप में, पिल्लई ने स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी में पढाई की, जहां उन्होंने इंजीनियरिंग, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। उनके बारे में कहा जाता है कि वे फ़्रांसीसी और जर्मन सहित 12 से अधिक भाषाएं जानते थे। जर्मन विदेश कार्यालय में नौकरी पाने के बाद वह, पहले विश्व युद्ध (1914-1919) के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय  हो गए। सितंबर, सन 1914 में, उन्होंने ज़्यूरिख़ (स्विट्जरलैंड) में अंतर्राष्ट्रीय भारत समर्थक समिति की स्थापना की। इसे वहां स्थित जर्मन कौंसिल का समर्थन प्राप्त था। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जर्मन लोगों तक पहुंचाने के लिए अंग्रेज़ी और जर्मन भाषा में एक मासिक पत्रिका ‘प्रो-इंडिया’ भी निकाली और भारत की स्वतंत्रता के समर्थन में भाषण दिए।

लेकिन ये तो बस शुरुआत थी! अक्टूबर, सन 1914 में, पिल्लई बर्लिन (जर्मनी) गए और वहां वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, डॉ प्रभाकर और डॉ अब्दुल हफ़ीज़ जैसे प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इंडियन इंडीपेंडेंस कमिटी (भारतीय स्वतंत्रता समिति) का गठन किया। समिति ने लाला हरदयाल की ग़दर पार्टी के साथ हाथ मिला लिया। उन्हें जर्मनी, मिस्र, तुर्की और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों का समर्थन मिल गया और नतीजे में ‘हिंदू-जर्मन साज़िश’ का जन्म हुआ। अंग्रेज़ी सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाने जैसी अन्य क्रांतिकारी गतिविधियां शुरु हो गईं। इसी के तहत सन 1915 में राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में,अफ़ग़ानिस्तान में, एक प्रांतीय सरकार की स्थापना भी की गई। इस सरकार में  पिल्लई विदेश मंत्री थे। विदेश मंत्री रहते उन्होंने उत्तर-पश्चिमी सीमा से ‘ब्रिटिश भारत’ पर हमला करने के लिए तुर्की और जर्मन सैनिकों को जुटाने की कोशिश की।

दुर्भाग्य से, पूरी महत्वाकांक्षी योजना उस समय चौपट हो गई जब अमेरिकी सरकार ने एक जर्मन एजेंट और एक भारतीय क्रांतिकारी को गिरफ़्तार कर लिया। उन दोनों ने क्रांतिकारियों की योजनाओं का राज़ खोल दिया। इसके नतीजे में अमेरिका, भारत और अफ़ग़ानिस्तान में बड़े पैमाने पर मुक़दमें चले, गिरफ़्तारियां हुईं, निर्वासन हुए और ग़दर पार्टी के लोगों को मौत की सज़ा भी हुई। अफ़ग़ानिस्तान में, ब्रिटेन के दबाव के आगे झुकते हुए  शाही दरबार ने अपना समर्थन वापस ले लिया।

क़ाबुल में भारतीय प्रांतीय सरकार की स्थापना | विकी कॉमन्स

हिटलर के साथ

पहला विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। हिंदू-जर्मन साज़िश की नाकामी के कारण भारतीय क्रांतिकारी गतिविधियां कम हो गईं थीं। लेकिन निडर पिल्लई ने कैसर विल्हेम-द्वितीय और शीर्ष जर्मन जनरलों पॉल वॉन हिंडनबर्ग और एरिच लुडेनडॉर्फ़ के साथ संपर्क स्थापित किया। इस तरह वह भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सैन्य सहायता हासिल करने की उम्मीद में हिटलर की जर्मन फ़ादरलैंड पार्टी का हिस्सा बन गए। स्वदेशी आंदोलन के हिस्से के रूप में, सन 1924 में, उन्होंने लीपज़िग (जर्मनी) में एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में भारतीय स्वदेशी वस्तुओं की एक प्रदर्शनी भी आयोजित की। युद्ध के बाद, जब ब्रिटिश सीक्रेट पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ तलाशी अभियान शुरू किया, तो उन्होंने अब्दुल्लाह बिन मंज़ूर के नाम से, एक जर्मन पूर्वी अफ़्रीकी व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बदल ली।

दिलचस्प बात यह थी कि इसी दौरान, पिल्लई प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली से भी मिले, जो 1929 और 1930 के बीच जर्मनी में थे। अपनी आत्मकथा, ‘द फ़ॉल ऑफ़ ए स्पैरो’ (1985) में, अली ने पिल्लई को एक शानदार बावर्ची बताया और लिखा कि वह पहले विश्व युद्ध से पहले और युद्ध के दौरान बर्लिन में रहने वाले प्रमुख भारतीयों में से एक थे। उन्होंने अपनी किताब में कैसर और हिटलर की पार्टी के शीर्ष अधिकारियों के साथ पिल्लई के गहरे संबंधों की भी पुष्टि की है।

एडोल्फ हिटलर | विकी कॉमन्स

पिल्लई अपनी दूरदर्शिता के लिए भी जाने जाते थे। सन 1918 में, अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने पहले विश्व युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रस्तावित शांति वार्ता के लिए ‘चौदह सूत्री’  प्रस्ताव तैयार किया था जो शांति के सिद्धांत पर आधारित था। इसके जवाब में, बर्लिन में अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श करने के बाद, पिल्लई ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए आठ सूत्री कार्यक्रंम तैयार किया। इसमें अंग्रेज़ी शासन से भारत की मुक्ति के साथ, देश को पुर्तगाली और फ़्रांसीसी उपनिवेशों से भी आज़ादी का मुद्दा भी शामिल किया गया था।

पिल्लई ने एक भारतीय महिला लक्ष्मी बाई से शादी कर ली। कुछ दस्तावेज़ों में बताया गया है कि लक्ष्मी बाई मणिपुरी वंश की थीं। कहा जाता है कि पिल्लई ने सन 1930 के दशक के दौरान जर्मनी में एक छात्र आबिद हसन सफ़रानी से मुलाक़ात की और उनके स्वतंत्रता संग्राम के लिए उन्हें अपना पुराना नारा ‘जय हिंद’  का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। दिलचस्प बात यह है, कि आज भी कई इतिहासकारों की इस बात को लेकर अलग-अलग राय है, कि नारा पिल्लई ने बनाया या सफ़रानी ने। इस देशभक्ति के नारे को किसने गढ़ा इसकी आधिकारिक पुष्टि आज तक नहीं हो पाई है। आबिद, बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी बन गए और ये नारा पहले आज़ाद हिंद फ़ौज का आधिकारिक अभिवादन बना और फिर भारत की देशभक्ति की भावना का हिस्सा बन गया।

| विकी कॉमन्स

हिटलर की धोखेबाज़ी

जहां तक हिटलर की पार्टी का हिस्सा होने के दौरान, पिल्लई के जर्मनी प्रवास का सवाल है, उन्होंने अपने लेखन और स्वदेशी वस्तुओं की बिक्री जैसी गतिविधियों के माध्यम से अपना संघर्ष जारी रखा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए काम करते रहे। लेकिन हिटलर के साथ उनकी अनबन हो गई। यह भारतीयों के ख़िलाफ़ हिटलर की टिप्पणियों और उसकी किताबों तथा भाषणों में भारतीयों के रंग पर उसके बयानों के कारण हुआ था। पिल्लई को हिटलर के बयान बेहद नागवार गुज़रे थे। 10 अगस्त, सन 1931 को एक प्रेसवार्ता के दौरान हिटलर ने कहा, ‘अगर ग़ैर-आर्य भारतीयों पर अंग्रेज़ों का शासन है, तो यह उनकी नियति है।‘ पिल्लई के घावों पर नमक तब और लग गया जब उसी वर्ष 4 दिसंबर को हिटलर ने कहा कि, “अंग्रेज़ों के हाथों से भारत का निकलना जर्मनी सहित किसी भी देश के लिए अच्छा नहीं होगा।” बेहद ग़ुस्से में पिल्लई ने हिटलर को ख़त लिखा जिसमें हिटलर से माफ़ी मंगने के लिए कहा गया था। पिल्लई ने पत्र में लिखा था:

“ऐसा लगता है कि आप रक्त से अधिक त्वचा के रंग को महत्व देते हैं। हमारी त्वचा काली हो सकती है; हमारे दिल नहीं।”

हालांकि हिटलर ने माफ़ी तो मांग ली, लेकिन दोनों के संबंधों में हमेशा के लिए कड़वाहट पैदा हो गई थी। इसके अलावा, नाराज़ हिटलर ने पिल्लई को मौत के घाट उतारने और उनकी संपत्तियों को ज़ब्त करने का आदेश दे दिया। कुछ दस्तावेज़ों में बताया गया है, कि जब हिटलर जर्मनी के चांसलर बन गए, उसके बाद 28 मई, सन 1934 को बर्लिन में पिल्लई के घर पर छापे के दौरान उन्हें या तो ज़हर दिया गया था या किसी और तरीक़े से मार दिया गया था। उनकी मौत की पुष्टि तो हो गई थी, लेकिन कैसे हुई ये आज भी रहस्य बना हुआ है।

उनकी मृत्यु के तीस साल और भारत के स्वतंत्र (1947) होने के 19 साल बाद , 1966 में भारत सरकार,आख़िरकार पिल्लई के सामान और अस्थियों के साथ, लक्ष्मी बाई को भारत वापस ले आई। पिल्लई की इच्छा के अनुसार, उनकी कुछ अस्थियों को कन्याकुमारी (तमिलनाडु) में विसर्जित किया गया जहां मूल रूप से उनका परिवार रहता था। बाक़ी अस्थियां उनके जन्म-स्थान तिरुवनंतपुरम में करमना नदी में विसर्जित की गईं। आज उनके दस्तावेज़ और सामान नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, दिल्ली में रखे हुए हैं। अफ़सोस की बात है कि लक्ष्मी बाई ने सन 1972 में, अपनी मृत्यु तक मुम्बई में, गुमनामी की ज़िंदगी गुज़ारी। सन 2008 में, अडयार (चेन्नई, तमिलनाडु) में गांधी मंडपम में पिल्लई की एक मूर्ति का अनावरण भी किया गया।

आज भी, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में, पिल्लई की हैसियत एक अजनबी की तरह है।

 

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