बहादुर शाह पार्क: बांग्लादेश के इतिहास का ख़ास गवाह

बहादुर शाह पार्क: बांग्लादेश के इतिहास का ख़ास गवाह

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के पुराने शहर इलाक़े में ऐसी कई इमारतें हैं, जो यहाँ के बीते शाही और औपनिवेशिक इतिहास को दर्शाती हैं। यहाँ के सदरघाट में एक ऐसा पार्क है, जो बांग्लादेश के इतिहास का गवाह भी रहा है। इसका नाम आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के नाम पर रखा गया है। नई नस्ल सोच सकती है, कि अब भला दिल्ली के बादशाह का ढाका के किसी बाग़ से क्या ताल्लुक़?

ढाका की शान बढ़ा रहे, दो दरवाज़ों वाले बहादुर शाह पार्क की खूबी ये है, कि इसने अपने निर्माण से लेकर आज तक के, बांग्लादेश की कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निशानियों को समेटा हुआ है, जिसका सबूत यहाँ के स्मारकों से मिलता है।

बहादुर शाह पार्क का द्वार, ढाका | विकी कॉमन्स

अपने शुरूआती दौर में ढाका बुढ़ीगंगा के तट पर मौजूद महज़ एक बस्ती हुआ करती थी। इसका व्यापारिक और सामरिक महत्व सत्रहवीं शताब्दी के दौरान तब उभर कर सामने आया, जब मुग़लों ने इसे बंगाल रियासत की राजधानी बनाया। उसी के साथ यहाँ कई व्यापारियों और व्यवसायियों का आना-जाना शुरू हो गया। सबसे बड़ी बात ये थी, कि ढाका भौगौलिक तौर पर एक समृद्ध क्षेत्र का हिस्सा था, जिसमें खेती, व्यापार और जहाज़-निर्माण की भरपूर क्षमता थी। रफ़्ता-रफ़्ता ढाका सूती, मलमल और जहाज़-निर्माण के साथ-साथ रेशम, इस्पात, शोरा, और कृषि और औद्योगिक उत्पादों के निर्यात के लिए मशहूर हो गया था। इसी कारण वो दुनिया के सबसे धनी और समृद्ध शहरों में गिना जाने लगा था।

इस दौरान, मारवाड़ियों और कश्मीरियों जैसे देसी व्यपारियों के साथ-साथ, कई यूरोपीय व्यापारियों का भी इस शहर में आना जाना शुरू हो गया। उन्होंने अपने अपने हिसाब से बस्तियां बसाईं। स्थानीय लोगों ने उन बस्तियों के दिलचस्प नाम रख दिए, जैसे फ़्रासीसी कॉलोनी के लिए फ़ारशगंज और पुर्तगाली कॉलोनी के लिए पोस्तोगोला। इनमें से कई कॉलोनियां आज भी यहाँ मौजूद हैं। इन यूरोपीयों में प्रमुख थे अर्मेनियाई, जिन्होंने अपने लिए वर्तमान बहादुर शाह पार्क क्षेत्र में एक क्लब बनाया था। इस क्लब में वह हर शाम बिलियर्ड्स खेलते थे और शराब का आनंद लेते थे। चूंकि स्थानीय लोग इस खेल से अनजान थे, उन्होंने अपनी समझ से बिलियर्ड्स को स्थानीय बांग्ला भाषा में ‘अंता’ (कंचों से जुड़े), क्लब को ‘अंता-घर’ और इलाक़े को ‘अंताघरेर मैदान’ का नाम दिया।

उन्नीसवीं शताब्दी का ढाका | ब्रिटिश लाइब्रेरी

लेकिन अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में, मुग़ल सल्तनत के पतन के साथ, कई रियासतों ने अपनी ख़ुदमुख़्तारी का एलान किया था और इसी के साथ ढाका का माहौल बदलने लगा। इन रियासतों में प्रमुख था बंगाल, जिसके सूबेदार मुर्शिद क़ुली ख़ान ने सन 1704 में बंगाल रियासत का गठन किया और मुर्शिदाबाद को अपनी राजधानी बनाया। इसके कारण ढाका की चकाचौंध में कमी आने लगी। सन 1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर की जंग के बाद अंग्रेजों ने बंगाल पर स्थाई रूप से अपना अधिकार जमा लिया। मगर उनकी क्रूर नीतियों ने मलमल के निर्माण और व्यापार को पूरी तरह से पस्त कर दिया था, जिसके कारण ढाका शहर में कई कारीगर बेरोज़गारी और भुखमरी का शिकार हो गए थे। अंग्रेज़ों ने कलकत्ता को बंगाल की राजधानी बना दिया था। इसी वजह से ज़्यादातर लोग ढाका से कलकत्ता आकर बसने लगे थे।

19वीं शताब्दी के आते-आते ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई और इसी के साथ, ढाका अंग्रेज़ों के व्यापारिक नेटवर्क का हिस्सा बन गया। ढाका जूट व्यापार का सक्रिय केंद्र बन गया और यहाँ की भौगौलिक स्थिति, एक बार फिर इसकी तरक़्क़ी में काम आई। इस दौरान बंगाल के नवाबों का भी विस्तार हुआ, जो दरअसल इस रियासत के सबसे प्रभावशाली और धनी ज़मींदार हुआ करते थे। इन्हें नवाब के ख़िताब अंग्रेजों ने दिए थे। बंगाल के दूसरे नवाब ख़्वाजा अब्दुल ग़नी ने ढाका की रूपरेखा को बदलने में बहुत मदद की।

जैसे-जैसे ढाका शहर और छावनी का विकास होने लगा, अंग्रेज़ों ने अंताघर को तुड़वाया और उसके मूल ढाँचे को मौजूदा रामना क्षेत्र के ढाका क्लब में स्थानांतरित किया। साथ ही उस क्षेत्र में उन्होंने सैंट थॉमस चर्च के सामने, एक, अंडाकार बाग़ बनावाया। तब उसे कोई नाम नहीं दिया गया था। इसमें लोहे की रेलिंग थीं और ये उस शहर के भीतर जा रही सड़कों के लिए एक प्रमुख गाँठ के तौर पर देखा जाने लगा था। यही बाग़ बाद में बहादुर शाह पार्क में तब्दील हुआ।

अब अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों और उनके ज़ालिम कानूनों की वजह से सन 1830-1880 तक बंगाल में फ़कीर-सन्यासी और फ़ैराज़ी जैसे कई आंदोलन सामने आए थे। लेकिन सन 1850 के दशक में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पूरे उफान पर आ गया जब ब्रिटिश फ़ौज में शामिल भारतीय सिपाहियों ने नई राइफ़ल ली-इनफ़ील्ड को इसीलिए छूने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का उपयोग किया जाता था। 29 मार्च, सन 1857 को,बैरकपुर (पश्चिम बंगाल) में 34वीं बंगाल देसी पैदल सेना (34बीएनआई) के सिपाही मंगल पांडे ने बग़ावत का पहला बिगुल बजाया, जिसकी गूंज पूरे मध्य और उत्तरी भारत में फैल गई। पांडे की गिरफ़्तारी और फांसी के बाद, उसकी रेजीमेंट की सात कम्पनियों में से चार को भंग कर दिया गया और बाक़ी तीन कम्पनियों (दूसरी,तीसरी और चौथी) को उनकी वफ़ादारी की वजह से पूर्वी दिशा की और भीतर यानी चटगांव भेज दिया गया।

1857 क्रान्ति | विकी कॉमन्स

जहां एक तरफ़ भारत के अधिकाँश हिस्सों में बग़ावत का मंज़र जारी था, पूर्वी बंगाल काफ़ी हद तक शांत था। लेकिन बिगड़ते हालात हो देखते हुए अंग्रेज़ों ने अपनी हिफ़ाज़त के लिए कुछ सख़्त क़दम उठाने मुनासिब समझे, जैसे बंदरगाहों में लगे जहाज़ों और नावों में रहना और यहाँ तक, बग़ावत के साथ हमदर्दी जताने वाले सिपाहियों को नौकरी से निकाल देना। वहीँ ढाका और उसके आसपास के क्षेत्रों में फ़ैराज़ी विद्रोही बग़ावत के लिए सिपाहियों और बर्ख़ास्त सिपाहियों को अपनी ओर मिला रहे थे। इससे निबटने के लिए कई नौसेनिक दल और थल सैनिकों को ढाका भेजा गया, जिसके कारण वहां स्थिति क़ाबू में रही। मगर चटगाँव में अलग ही मंज़र था जहां पर नौकरी से निकाले गए सिपाहियों के साथ, फैराज़ी विद्रोही और  चंद अवकाश प्राप्त सिपाही, 34 बीएनआई सिपाहियों के सम्पर्क में आये और उन्होंने दिल्ली जाकर अपनी ख़ुद की आज़ादी के लिये लड़ने का फैसला किया।

18 नवम्बर सन 1857 को एक बड़ी दावत के बाद सिपाहियों ने बग़ावत शुरु कर दी, जहां उन्होंने सरकारी ख़ज़ाने को लूटकर, वहाँ की जेल से क़ैदियों को छुड़वा दिया। फिर वहाँ की जेल के एक अफ़सर की हत्या करके, बैरेको में आग लगाई और बारूद को जला डाला। यहाँ से वे ज़िलाधिकारी के दफ़्तर से लूटे गए ख़ज़ाने के साथ, तीन हाथियों पर सवार होकर चटगांव से भाग गए। लेकिन ये बात आश्चर्यजनक है, कि इस मुहीम में एक भी अंग्रेज़ नहीं मारा गया और उन्होंने इस मौके का फ़ायदा उठाकर छापेमारी शुरू कर दी। इन छापों में हाथ लगे विद्रोहियों से उनको आने वाली योजनाओं का पता भी लग गया, उन्हें ये  पता लग गया कि विद्रोहियों का अगला निशाना ढाका था।

अंग्रेज़ अफ़सरों ने देसी सिपाहियों के क़ब्ज़े से हथियार छीनने के लिए, तुरंत ढ़ाका छावनी का रुख़ किया। 22 नवम्बर, सन 1857 को अंग्रेज़ों ने शांतिपूर्ण ढ़ंग से, शहर के प्रमुख भवनों पर तैनात सिपाहियों को बर्ख़ास्त कर दिया। इस मुहीम में नवाब ख़्वाजा अब्दुल गनी ने अंग्रेज़ों की बहुत सहायता की। लेकिन अंग्रेज़ों को झटका तब लगा, जब उन्हें लालबाग़ में अपने देसी सिपाही हथियारों से लैस मिले और फिर दोनों के बीच गोलाबारी हुई। आधे घंटे चली इस गोलाबारी में क़रीब 41 बाग़ी सिपाही मारे गए और 80 ज़ख़्मी हुए थे। कंपनी के तीन ब्रिटिश अधिकारी भी मारे गए और बारह अंग्रेज़ सिपाही ज़ख़्मी हुए थे। फिर जब अंग्रेज़ों का पलड़ा भारी होता चला गया, बाग़ी सिपाही कई गुटों में बंटकर अलग-अलग जगह पर भाग गए। इनमें से कुछ रंगपुर (पश्चिम बंगाल) या त्रिपुरा के रास्ते भारत आने में सफल रहे। कुछ भागते वक़्त मारे गए। कुछ पूर्वी बंगाल की अन्य जगहों में विद्रोह की चिंगारी को भड़काने में लगे रहे।उनमें से कई अपने चटगाँव के साथियों के साथ जा मिले। अंग्रेज़ों ने कलकत्ता से 54 रेजिमेंट की तीन टुकड़ियां और 100 नाविक भेजे जो ढाका के साथ जेस्सोर, रंगपुर, दिनाजपुर आदि जगहों में फैल गए।

लालबाग, ढाका | ब्रिटिश लाइब्रेरी

कहा जाता है, कि क़रीब बीस बाग़ी सिपाही पकडे गए थे, जिनपर आनन-फ़ानन मुक़दमें चलाए गए थे। इनमें से ग्यारह सिपाहियों को फांसी की सज़ा दी गई थी और उन्हें वर्तमान बहादुर शाह पार्क में जमा हुई भीड़ के सामने फांसी दी गई। माना जाता है, कि लोगों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए उनकी लाशें,  कई दिनों तक, वहीं लटका कर रखी गईं। बाद में उन्हें कब और कैसे दफ़नाया गया, ये आज भी एक राज़ है। बाक़ी सिपाहियों को उम्रकैद की सज़ा मिली।

बग़ावत को कुचलने के बाद, भारत की सत्ता की बागडोर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गई और महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी का ख़िताब मिल गया। यह फ़रमान सन 1858 को ढाका के कमिश्नर ने, इसी बहादुर शाह पार्क में जमा हुए लोगों को सुनाया था। उसी दिन की याद में बनाया गया एक स्मारक आज भी यहां मौजूद है, जो विक्टोरिया के सिंहासन का प्रतीक है। तभी इस जगह पर एक पार्क बनाने की ज़िम्मेदारी ख़्वाजा अब्दुल ग़नी ने अपने हाथों में ले ली थी। ख़्वाजा अब्दुल ग़नी अपनी दरियादिली और कामों से अंग्रेजों की नज़रों में सितारे बन चुके थे। पार्क बना और तब इसका नाम विक्टोरिया पार्क रखा गया।

ख़्वाजा अब्दुल ग़नी के पोते ख़्वाजा हफ़ीज़उल्लाह की अचानक मौत हो गई थी। सन 1885 में दादा ने अपने पोते की याद में ग्रेनाइट का एक स्मारक बनवाया था, जो आज भी पार्क में मौजूद है। ऐसा माना जाता है, कि ये ग्रेनाइट का बना,ढाका का इकलौता स्मारक है।

1890 में बहादुर शाह पार्क (तब विक्टोरिया पार्क) में स्थित ख्वाजा हफ़िजुल्लाह का स्मारक | ब्रिटिश लाइब्रेरी

ढाका सन 1905 से लेकर 1912 तक संयुक्त पूर्वी बंगाल और असम की सामरिक राजधानी बनीं। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विभाजन हुआ, तब पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना और ये पूर्वी पाकिस्तान कहलाया जाने लगा और ढाका उसका मुख्य प्रशासनिक केंद्र बना। सन 1957 में जब पहले स्वतंत्रता संग्राम(1857) को सौ साल पूरे हुए, तब विक्टोरिया पार्क का नाम आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के नाम पर ‘बहादुर शाह पार्क’ रखा गया। वजह ये थी, कि पहले स्वतंत्रता संग्राम के वक़्त, बहादुर शाह ज़फ़र को हिन्दुस्तान के बादशाह के तौर पर पेश किया गया था। पार्क में कई नई चीज़ें जोड़ी गईं। साथ ही सन 1857 की लड़ाई में शहादत पाए सिपाहियों की याद में ढाका नगर परिवर्तन ट्रस्ट (वर्तमान राजूक) ने सन 1963 में, एक स्मारक का निर्माण भी करवाया, जिसे आज भी देखा जा सकता है। आठ साल बाद, सन 1971 में जब बांग्लादेश स्वतंत्र देश बना, तब यह पार्क उसकी नई राजधानी यानी ढाका की शान बन गया।

1967 में बहादुर शाह पार्क | विकी कॉमन्स

आज बहादुर शाह पार्क में, हर उम्र के लोग सैर करने, गीत-संगीत की महफिलें सजाने, पिकनिक मनाने या फिर फ़ोटोग्राफ़ी के लिये आते हैं। साथ ही यहाँ कई सांस्कृतिक और धार्मिक समारोहों का भी आयोजन किया जाता है।

बहादुर शाह पार्क के अन्दर (आज) | विकी कॉमन्स

हालांकि ढाका में इसे विक्टोरिया पार्क के नाम से भी पुकारता है। आज भी बहुत लोग इस बात से अनजान हैं, कि ये बांग्लादेश के भुला दिए गए इतिहास का ख़ास गवाह है। आज इसकी देख भाल और रख-रखाव की सख़्त ज़रूरत है।

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