चटगांव और 1857 की बग़ावत

चटगांव और 1857 की बग़ावत

सन 1857 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ हुई बग़ावत, भारत के स्वतंत्रता अभियान की कभी न भुलाई जाने वाली घटना है। दिल्ली,लखनऊ और झांसी जैसे स्थानों में हुई बग़ावत की कहानियों के बारे में तो सब जानते हैं, लेकिन उस बग़ावत के फैलाव के बारे में नहीं जानते। उसी दौरान चटगांव (अब बांग्लादेश में) के एक सिपाही द्वारा बजाये गये बग़ावत के बिगुल के बारे में कम ही लोग जानते हैं। यह इलाका पूर्वी क्षेत्र में बग़ावत का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था।

1813 में चटगाँव | ब्रिटिश लाइब्रेरी

चटगांव, भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी क्षेत्र का एक अहम बंदरगाह रह चुका था। चटगांव अपने रेशम, मलमल और अन्य चीज़ों की वजह से व्यापारियों और नाविकों के लिए मशहूर स्थान था। 17वीं सदी से, वक़्त-वक़्त पर यहां मुग़लों, पुर्तुगालियों, अराकानियों (बर्मा)और बंगाल के नवाबों का क़ब्ज़ा रहा। 18वीं शताब्दी में यानी सन 1757 ईस्वी की प्लासी की जंग के बाद, यहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया का क़ब्ज़ा हो गया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के ज़ुल्मों और किसानों से भारी कर वसूली जैसे क़ानूनों की वजह से सन 1830-1880 ईस्वी तक बंगाल में, फ़कीर-सन्यासी और फैराज़ी जैसे कई आंदोलन सामने आये थे।

चटगाँव के तट पर अंग्रेजी बेड़े | विकिमीडिआ कॉमन्स

बहरहाल सन 1850 के दशक में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़ ग़ुस्सा पूरे उफान पर आया, जब ब्रिटिश फ़ौज में शामिल भारतीय सिपाहियों ने नई राइफ़ल ली-इनफ़ील्ड को इसीलिये छूने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके कारतूसों में गाए और सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया था।

29 मार्च, सन 1857 को,बैरकपुर (पश्चिम बंगाल) में 34वीं बंगाल देसी पैदल सेना (34बीएनआई) के सिपाही मंगल पांडे ने बग़ावत का पहला बिगुल बजाया, जिसकी गूंज पूरे मध्य और उत्तरी भारत में फैल गई। मंगल पांडे की गिरफ़्तारी और फांसी के बाद, उसकी रेजीमेंट की सात कम्पनियों में से चार को भंग कर दिया और बाक़ी तीन कम्पनियों (दूसरी,तीसरी और चौथी) को उनकी वफ़ादारी की वजह से पूर्वी दिशा के और भीतर यानी चटगांव भेज दिया।

उन्नीसवीं शताब्दी का बंगाल प्रांत और उत्तर पूर्वी भारत | विकिमीडिआ कॉमन्स

दिल्ली,कानपुर,लखनऊ और झांसी में हुई हिंसक घटनाओं के मुकाबले में चटगांव काफ़ी शांत था। बावजूद इसके, अंग्रेज़ों ने सुरक्षा कारणों से चटगाँव के बंदरगाह और अपने जहाज़ों में रहना बेहतर समझा। दिलचस्प बात यह थी, कि 34 बीएनआई के सिपाहियों ने बाग़ियों का मुक़ाबला करने के लिये दिल्ली भेजने की अपील भी की। लेकिन अंग्रेज़ अंदर से इतने घबराये हुये थे, कि बार-बार वफ़ादारी जतलाने के बावजूद उन्होंने सिपाहियों की मांग ठुकरा दी। उसी समय चटगांव के गली-कूचों में लूटमार की अफ़वाह फैल गईं।

हालांकि सन 1857 के अगस्त का महीना आते-आते स्थितियां काफ़ी शांत हो गई थीं, लेकिन फिर भी ढ़ाका और सिल्हेट में तैनात 73वीं देसी पैदल सेना और सिल्हेट लाइट इन्फेंट्री से कुछ सिपाहियों को इसीलिए नौकरी से निकाल दिया गया, क्योंकि उनकी हमदर्दी बाग़ी फ़ौजियों के साथ थीं। चटगांव के नौकरी से निकाले गये सिपाहियों के साथ, चंद अवकाश प्राप्त सिपाही, चटगाँव में 34 बीएनआई सिपाहियों के सम्पर्क में आये और उन्होंने दिल्ली जाकर अपनी ख़ुद की आज़ादी के लिये लड़ने का फैसला किया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सैनिक | विकिमीडिआ कॉमन्स

आखिरकार वह दिन आ ही गया। 18 नवम्बर सन 1857 को, एक बड़ी दावत के बाद सिपाहियों ने बग़ावत का झंडा बुलंद कर दिया। उन्होंने सरकारी ख़ज़ाने को लूटकर कैदियों को जेल से छुड़वा दिया। बाग़ियों ने जेल के एक अफ़सर की हत्या कर दी, बैरेकों में आग लगा दी और बारूद को जला डाला। फिर वह ज़िलाधिकारी के दफ़्तर से लूटे गये ख़ज़ाने के साथ, तीन हाथियों पर सवार होकर चटगांव से भाग गये। आश्चर्य की बात यह रही कि एक भी अंग्रेज़ नहीं मारा गया। सभी अंग्रेज़ सुरक्षित भागने में कामयाब रहे।

मगर ब्रिटिश अधिकारियों का भाग्य ने साथ दिया। छापामारी के दौरान कुछ बाग़ी उनके हाथ लग गये, जहां से उनको आने वाली योजनाओं का पता लग गया। अंग्रेज़ अफ़सरों ने देसी सिपाहियों के क़ब्ज़े से हथियार छीनने के लिये, तुरंत ढ़ाका छावनी का रुख़ किया। 22 नवम्बर, सन 1857 को अंग्रेज़ों ने शांतिपूर्ण ढ़ंग से, शहर के प्रमुख भवनों पर तैनात सिपाहियों को बरख़ास्त कर दिया, लेकिन अंग्रेज़ों को झटका तब लगा, जब उन्हें लालबाग़ में अपने देसी सिपाहियों के विरोध का सामना करना पड़ा। मात्र आधे घंटे की लड़ाई के बाद सिपाहियों पर क़ाबू पा लिया गया। उनमें से कुछ सिपाही उत्तरी-पश्चिमी इलाक़ों की तरफ़ भाग गये और कुछ सिपाही रंगपुर (पश्चिम बंगाल) होते हुए नेपाल भाग गये। जो सिपाही पकड़ लिये गये थे, उनमें से कुछ को मौत के घाट उतार दिया गया और कुछ को अजीवन क़ैद की सज़ा दे दी गई। ढ़ाका का बहादुर शाह पार्क उन सिपाहियों की बहादुरी का गवाह है।

बहादुर शाह पार्क, ढाका

चटगांव और ढाका की घटना की वजह से सिल्हेट, दिनाजपुर और कुछ अन्य इलाक़ों में भी बग़ावती घटनायें हुईं। जिन पर, 54वीं रैजीमेंट और सिल्हेट लाइट इन्फेंट्री की मदद से क़ाबू पा लिया गया। सिपाहियों के फ़रार होने और बग़ावत की घटनाओं के अंदेशे से अंग्रज़ों ने, उत्तरी-पश्चिमी इलाक़े से उत्तरी बंगाल की तरफ़ जानेवाली सड़क को बंद कर दिया। चटगांव के बाग़ी सिपाहियों को, कुछ स्थानीय लोगों और कुछ फ़रार हुए सिपाहियों से सड़क बंद किये जाने के बारे में पता चला, तो उन्होंने अपना इरादा बदल दिया और त्रिपुरा होते हुये मणिपुर जाने का फैसला किया, ताकि उन्हें शाही सुरक्षा मिल सके। कॉमिला के रास्ते त्रिपुरा पहुंचने पर स्थानीय कुकी बनवासी जाति के लोगों ने उनकी मदद की, जिन्होंने उनके लिये सड़कें खोलीं, जंगल काटे और मणिपुर पहुंचने के साधन जुटाये।

रास्ते में सिपाही,असम में भारत-बांगलादेश सीमा के पास मालेगढ़,करीमगंज (असम) में ठहरे। हालांकि कुछ स्थानीय लोगों ने उनकी देख-रेख और खाने-पीने का प्रबंध किया, लेकिन कुछ स्थानीय लोगों ने मदद करने के बजाए, सिल्हेट लाइट इन्फेंट्री के अफ़सर मेजर आर.पी.वी.बिंग को उनके बारे में सूचना दे दी। 17 दिसम्बर, सन 1857 को मालेगढ़ में ब्रिटिश सेना और बाग़ी सिपाहियों के बीच मुठभेड़ हो गई, जिसमें 26 सिपाही  और बिंग सहित पांच अंग्रेज़ फ़ौजी भी मारे गये।

विद्रोही सैनिकों को तोपों से उड़ाते हुए | विकिमीडिआ कॉमन्स

पकड़े गये सिपाही या तो मौत के घाट उतार दिये गये, या उन्हें उम्र क़ेद की सज़ा दे दी गई। जो सिपाही वहां से बचकर निकलने में सफल रहे, वह मणिपुर के राजकुमारों की सेना में शामिल हो गये। सन 1858 की शुरुआत में वह राजकुमार भी अंग्रेज़ों से लड़ते हुये या तो मारे गये, या पकड़ लिये गये। दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ों ने शांति स्थापित करने के लिये कलकत्ता से अपने नाविकों और अफ़सरों को तुरंत ढ़ाका और चटगाँव भेजा।

आज के बांग्लादेश में सन 1857 की बग़ावत के नाकम होने के दो प्रमख कारण माने जाते हैं। पहला यह, कि कई स्थानीय मध्यम-वर्गीय लोगों ने बाग़ियों के बारे में सूचनायें, सुविधायें, हथियार और ज़रूरत का अन्य सामान देकर अंग्रेज़ों का साथ दिया। दूसरा कारण यह रहा कि स्थानीय लोग और किसान बग़ावत से दूर रहे और उन्होंने खामोशी से बढ़ी हुई मंहगाई का सामना किया।

मालेगढ़ युद्ध स्मारक | विकिमीडिआ कॉमन्स

शहीदों की याद में, मालेगढ़ में बनाया गया स्मारक ही सन 1857 की बग़ावत में हिस्सा लेने वाले चटगांव के बहादुर सिपाहियों का एकमात्र गवाह है। पिछले कुछ वर्षों में, उस जंग में उपयोग किये गये हथियार मिले हैं, जिन्हें चंद स्थानीय संगठनों की पहल पर, भारत-बांगला सीमा पर तैनात सीमा सुरक्षा बल की यूनिट के पास सुरक्षित रखा दिया गया है। मालेगढ़ को राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं।

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