1857 अजनाला नरसंहार

1857 अजनाला नरसंहार

वो एक अगस्त 1857 की सुबह थी, सूरज की किरणें अभी पूरी तरह ज़मीन पर बिखरी भी नहीं थीं कि पंजाब राज्य के ज़िले अमृतसर से 20 किलोमीटर दूर अजनाला में हलचल शुरू हो गई। सरकारी आदेश पर पुलिस थाने में रस्सी से बंधे सैनिकों को 10-10 के समूह में थाने से बाहर निकाला गया और फिर गोलियों से छलनी कर दिया। ये सिलसिला चलता रहा और जल्द ही वहां सैनिकों की लाशों का एक बड़ा ढेर लग गया। ढेर में कुछ दम तोड़ चुके थे लेकिन कुछ अभी भी छटपटा रहे थे। कुछ देर बाद थाने के पास नयी बनी तेहसील के बुर्ज से दम तोड़ चुके सैनिकों के साथ ज़िंदा सिपाहियों को घसीटकर पास के सूखे विशाल कुएँ तक लाया गया और फिर उसमें फेंककर कुएँ को ऊपर तक मिट्टी से भर दिया गया, हमेशा-हमेशा के लिए। जल्द ही कुँए का वजूद ख़त्म हो गया और एक भयावह नरसंहार लगभग भुला दिया गया।

कुऍ की खुदाई

दरअसल ये घटना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा किए गए अनेक अत्याचारों में से एक थी। कुआं पाट दिया गया और घटना भुला दी गई। लेकिन 157 साल बाद 2014 में आख़िरकार इस कुएँ की खोज की गई और इसमें दफ़्न सैनिकों की अस्थियों को कुएँ की काली मिट्टी से आज़ादी दिलाई गई। यह खोज पंजाब के मशहूर इतिहासकार और शोधकर्ता सुरेंद्र कोछड़ (लेखक के पिता) ने की है जिनकी कड़ी मेहनत ने इन दफ़्न सिपाहियों को कुएँ के गहरे अंधेरे से आज़ादी दिलाने में मुख्य भूमिका निभाई। दुनियां के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी देश, क़ौम या समुदाय ने अपनी सरज़मीं पर शहीद हुए, अपने ही वीर सैनिकों को सम्मान, आज़ादी और मुक्ति दिलाने में डेढ़ सदी से ज़्यादा का समय गुज़ार दिया था।

सैनिक विद्रोह या 1857 का स्वतंत्रता संग्राम ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़ भारतीय सिपाहियों द्वारा किया गया सशस्त्र विद्रोह था क्योंकि वे कम्पनी राज के नियमों से नाराज़ थे। 10 मई 1857 को शुरू हुई यह क्रांति बहुत जल्द दिल्ली, अवध, बिहार और पंजाब समेत सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैल गई। लाहौर, जो कि पंजाब की राजधानी होने के साथ-साथ ही राजनीतिक गतीविधियों का गढ़ था, वह भी इससे अछूता नहीं रहा। पंजाब सरकार के रिकॉर्ड्स में सारा घटनाक्रम ‘म्यूटनी कॉरसपॉन्डेस’ के नाम से दर्ज है। ये रिकॉर्ड उस समय बरतानवी गतिविधियों के प्रमुख दस्तावेज़ थे।

मियाँ मीर कैंटोनमेंट, लाहौर

इस रिपोर्ट के अनुसार 13 मई 1857 की सुबह लाहौर की मियां मीर छावनी में कमांडिंग अफ़्सर ब्रिगेडियर स्टूअर्ट कॉरबेट ने बेहद चालाकी से 16वीं, 26वीं और 49वीं रेजीमेंट के तीन हज़ार भारतीय सैनिकों को परेड ग्राऊँड में हथियार जमा कराने का आदेश दिया। बंदूकों से लैस हर-मैजेस्टी 81वीं फ़ुट रेजीमेंट (लॉयल लिंकन वॉलंटियरर्स) के अंग्रेज़ सिपाहियों ने उनसे तलवारें और बंदूकें लेकर उन्हें बैरकों में बंद कर दिया। इसके अगले ही दिन कुछ सैनिकों ने भागने की कोशिश की लेकिन पकड़े गए। सज़ा के तौर पर उन्हें तोपों से उड़ा दिया गया। इस घटना से छावनी में कुछ दिन तक शांति छाई रही, ऐसी शांति जिसके पीछे तूफ़ान धीरे-धीरे घुमड़ रहा था।

30 जुलाई 1857 की शाम जब बंगाल नेटिव इन्फ़ैंट्री की 26 रेजीमेंट के भारतीय सैनिकों, जिन्हें बंगाल, बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश का होने के कारण ‘पूर्वय्या’ कहा जाता था, ने छावनी से भागने की योजना बनाई लेकिन कमांडिंग ऑफ़िसर मेजर मसूर स्पैंसर ने उनकी योजना विफल कर दी। ये सैनिक रंगे हाथों पकड़े गए ।लेकिन इसके पहले कि स्पैंसर कुछ कर पाता प्रकाश पांडे उर्फ़ प्रकाश सिंह नाम के सिपाही ने उसकी तलवार छीनकर उसे वहीं मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद एक अन्य अंग्रेज़ सार्जेंट मेजर और दो भारतीय अधिकारियों को भी मार डाला गया जो उनके भागने के मंसूबे के आड़े आ रहे थे। इसी बीच पंजाबी पुलिस पलटन में हाल ही में भर्ती हुए सिपाहियों ने भारतीय सिपाहियों की बैरकों की तरफ़ अंधा-धुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं और देखते ही देखते चारों तरफ़ अफ़रा तफ़री मच गई और भारतीय सिपाही अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। तभी न जाने क्या हुआ कि अचानक चारों ओर अंधेरा छा गया। इस अंधेरे का फ़ायदा उठाकर 26 रेजीमेंट के भारतीय सिपाही वहां से भाग खड़े हुए।

अजनाला तहसील

छावनी से भागे निहत्थे भारतीय सिपाही छिपते-छिपाते 31 जुलाई की सुबह 8 बजे अजनाला से 6-7 मील दूर, रावी नदी के किनारे डड्डीयां गांव के पास बालघाट पहुँच गये। भारी बरसात के कारण दरिया का पानी काफ़ी उफ़ान पर था, इसलिए उन्होंने वहां गांव के ज़मींदारों से दरिया पार जाने का रास्ता पूछा। ज़मींदारों ने उन्हें रोटी-पानी देने के बहाने वहीं रोक लिया और गांव के चौकीदार को ख़बर कर दी। तब चौकीदार का ओहदा थाने के दरोग़ा के समान होता था। चौकीदार सुल्तान खां ने यह सूचना सौढ़ियां ( वर्तमान में तेहसील अजनाला का छोटा सा गांव) के तेहसीलदार दीवान प्राण नाथ को भेज दी। तेहसीलदार ने तुरंत थाने और तेहसील से तमाम सिपाहियों को हथियारों के साथ बाग़ी सिपाहियों के ख़ात्मे के लिए भेज दिया। साथ ही यह संदेश अदालती (सहायक मैजिस्ट्रेट) जोध सिंह वड़ैच के ज़रिये अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ़्रेडरिक हेनरी कूपर को भी पहुँचा दिया।

अजनाला तहसील का प्रमुख द्वार

मौक़े पर पहुँचे तेहसीलदार के सिपाहियों ने निहत्थे और थके-मांदे सिपाहियों पर गोलियां दाग़नी शुरू कर दीं। वे भूख और थकावट से इतने बेहाल हो चुके थे कि नदी की तेज़ लहरों के आगे ठहर न सके। बुरी तरह ज़ख्मी, क़रीब 150 सिपाही रावी के तेज़ बहाव में बह गए। लगभग 50 सिपाहियों ने गोलियों से बचने के लिए दरिया में छलाग लगा दी । जिनमें से कुछ नदी पार करने में सफ़ल हुए और डेढ़-दो किलोमीटर दूर शाहपुर गांव के टापू तक पहुँच गये। बाक़ी सिपाही दरिया रावी के किनारे गांव डड्डीयां में बालघाट के ऊँचे-ऊँचे सरकंडों के पीछे छिप कर बैठे रहे।

शाम क़रीब पांच बजे फ्रेडरिक हेनरी कूपर अपने साथ क़रीब 80 हथियारबंद घुड़सवार सिपाही लेकर वहां पहुंच गए। उनके अलावा कर्नल बोयड (50 सिपाही), रिसालेदार साहिब खां टिवाणा (44 सिपाही), रिसालेदार बरकत अली, जमादार भाई मक़सूदा सिंह (24-24 सिपाही), जनरल हरसुख राय (8 घुड़सवार) और राजा सांसी से शमशेर सिंह संधावालिया भी 5-6 तेज़-तर्रार घुड़सवार सिपाहियों के साथ मौक़े पर पहुँच गए।

1858 में प्रकाशित कूपर की पुस्तक ‘क्राइसिस इन द् पंजाब’ के अनुसार दो कश्तियों में 60 सिपाही घाट की तरफ़ भेजे गए। इन्होंने अपनी बंदूक़ों के मुँह घाट की तरफ़ कर दिए लेकिन गोली नहीं चलाई। इस चालाकी को वहां छुपे सैनिक समझ नहीं पाए। वह समझे कि उन्हें गिरफ़्तार कर के कोर्ट मार्शल किया जायेगा और थोड़ी-बहुत सज़ा देकर छोड़ दिया जाएगा। इसी भ्रम में वे हाथ ऊपर उठाकर बाहर आ गए।

कूपर के आदेश पर उन्हें और शाहपुर के टापू में छिपे बैठे सिपाहियों को कश्तियों में भर कर पूरी सुरक्षा में किनारे लाया गया। किनारे पहुँचते ही फ्रेडरिक कूपर के आदेश पर गांव के लोगों की सहायता से, सिपाहियों को सोढि़यां के बाज़ार से मंगवाए गए लंबे रस्से से, मजबूती से बांध दिया गया। वहां से उन्हें अजनाला लाने की तैयारी शुरू की गई जो वहां से क़रीब नौ मील दूर था। अजनाला पहुँचते पहुंचते रात के क़रीब साढ़े बारह बज गये। फ्रेडरिक कूपर उसी रात बाग़ी सिपाहियों को फांसी पर लटकाने के लिए लालायित था और उसने इस काम के लिए भी मज़बूत रस्सा मंगवा लिया गया था लेकिन उस समय तेज़ बारिश हो रही थी इसलिए उसकी मंशा उस रात पूरी नहीं हो सकी। लिहाज़ा कूपर के आदेश पर गिरफ़्तार किए गए सिपाहियों को अजनाला के पुलिस थाने की कोठरियों में बंद कर दिया गया और जगह की कमी की वजह से कुछ को अजनाला की नई तेहसील की बुर्जनुमा तंग कोठरी में ठूँस-ठूँस कर भर दिया गया।

अजनाला पुलिस स्टेशन, १९२८

अगली सुबह यानी एक अगस्त को बकरीद थी इसलिए मुसलमान सिपाही ईद मनाने के लिए 31 जुलाई की शाम को ही अमृतसर रवाना हो गए थे। डिप्टी कमिश्नर ने भारतीय सिपाहियों की क़ुर्बानी देकर ईद मनाने का फ़ैसला किया। कूपर ने ‘क्राइसिस इन द् पंजाब’ के पृष्ठ 161 पर लिखा है कि पुलिस थाने में बंद भारतीय सिपाहियों को 10-10 के गुट में थाने के सामने वाले मैदान में लाया गया। वहां पहुंचते ही कूपर ने गोली चलाने का इशारा किया और देखते ही देखते वहां लाशों का ढेर लग गया। जब थाने में बंद सभी सिपाही क़त्ल कर दिए गए तो बुर्ज का दरवाज़ा खोला गया। उस के अंदर ठूँस-ठूँस कर भरे भारतीय सिपाहियों में से 45 सिपाही भूख-प्यास, थकावट, चोट और बुर्ज में दम घुटने के कारण नीम बेहोशी की हालत में थे। कूपर के आदेश पर उन्हें और बाक़ी सिपाहियों को घसीटकर बुर्ज से बाहर निकाला गया। कूपर ने अपने सिपाहियों और सफ़ाई कर्मचारियों को हुक्म दिया कि गोलियों से भून दिए गए सैनिकों के साथ ही, नीम बेहोश और कराहते हुए सिपाहियों को भी पुलिस थाना ग्राऊंड से 100 गज़ की दूरी पर मौजूद सूखे विशाल कुएँ में फ़ैंक दिया जाए और कुएँ को ऊपर तक मिट्टी से भर दिया जाए। कुएँ को मिट्टी से भरने से पहले सिपाहियों पर कोयला और चूना डालने को कहा गया ताकि सिपाहियों के शरीर जल्दी ही मिट्टी के ढेर में तब्दील हो जाएं।

कूपर ने अपनी इस वहशियाना हरकत पर गर्व करते हुए इसे कुएं को ‘अजनाला के ब्लैक होल’ का नाम दिया। हालांकि ब्रिटेन में कुछ लोगों ने उसके इस कृत्य को गुनाह बताकर इसका विरोध भी किया। लेकिन 14 मार्च 1859 को बरतानिया के हाऊस ऑफ़ कॉमन्स में हुई बहस के बाद उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया । कुछ ही दिनों बाद उसे विद्रोह को दबाने के लिए की गई उसकी कारगुज़ारी के लिए, वर्ष 1860 के ‘ऑर्डर ऑफ़ द् बाथ’ की उपाधि से नवाज़ा गया।

अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1892-93 के अनुसार कुएँ के ऊपर एक ऊँचा टीला (स्तूप) बना दिया गया था। यह टीला काफ़ी दूर से दिखाई देता था। इस टीले को अंग्रेज़ ‘मुक्ति का घर’ और स्थानीय लोग ‘मुफ़्सदीगरों की क़ब्र’ (फ़सादियों का घर) कहते थे।

इस नरसंहार के चश्मदीद बाबा जगत सिंह की गवाही भी काफ़ी मायने रखती है। अजनाला के निवासी बाबा जगत सिंह की उम्र उक्त नरसंहार के समय 24 वर्ष के क़रीब थी और उनकी गवाही को पंजाबी की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘फुलवारी’ के संपादक ज्ञानी हीरा सिंह दर्द ने पंडित सुंदर लाल की पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ में प्रकाशित करवाया था। बाद में यही लेख नवम्बर 1928 में इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘चांद’ के विषेष अंक ‘फांसी’ में भी प्रकाशित हुआ था।

खैर, इस के बाद तो अजनाला के स्थानीय निवासियों और इतिहासकारों ने इस नरसंहार को अपने ज़हन से कुरेद-कुरेद कर निकालना शुरु कर दिया। नरसहांर के 157 साल तक किसी भी इतिहासकार, शोधकर्ता, विद्वान या जत्थेबंदी ने कुँए को तलाश करने की कोई कोशिश नहीं की । अलबत्ता सैनिकों के नाम पर श्रद्धांजलि समारोह आयोजित करवाकर कुछ लोग राजनीतिक रोटियां ज़रूर सेंकते रहे। सेना के अधिकार क्षेत्र में आने वाली इस ज़मीन पर अवैध रूप से कब्जा कर एक गुरूद्वारा बना लिया गया। गुरूद्वारा कमेटी के लोग, कुँए के अस्तित्व से बे-ख़बर, पिछले 42 सालों से मानव कंकालों से भरे कुँए के बिल्कुल ऊपर श्री गुरूग्रंथ साहिब का प्रकाश करते आ रहे थे। इस दौरान गुरूद्वारे से संबंधित कई नई कमेटियां बनीं और कमेटियों के लोग और पदाधिकारी बदलते रहे लेकिन कुँए के ऊपर श्री गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश लगातार जारी रहा। यानी पिछले 42 सालों से,जानकारी के अभाव में, गुरूद्वारा साहिब में, सिखों की धार्मिक मर्यादाओं और भावनाओं का पूरी तरह से हनन होता रहा ।

उस कुएँ में दफ़्न सैनिकों के कंकालों को कुएँ में से निकलवाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले इतिहासकार एवं शोधकर्ता श्री सुरेंद्र कोचर का कहना है कि उन्हें अपनी शोध के आधार पर कुएँ का पता लगाने में उतनी जद्दो-जहद नहीं करनी पड़ी, जितनी मशक़्कत उन्हें सरकार, प्रशासन और पुरातत्व विभाग को यह भरोसा दिलाने में करनी पड़ी कि अगर उनके द्वारा निशानदही किए गए स्थान पर खुदाई की जाती है तो 1857 से वहां दफ़्न,282 हिंदूस्तानी सैनिकों के कंकाल बन चुके शवों को निकाला जा सकता है।

इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़

आख़िरकार 3 दिसम्बर 2012 को अजनाला के निवासियों ने उस इतिहासकार द्वारा ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के आधार पर की गई निशानदही के स्थान पर खुदाई करवा कर कुँए को खोज निकाला, जिसे अभी तक विलुप्त समझा जा रहा था। इतने वर्षों में यह कुँआ धरती की सतह से पूरे 10 फुट नीचे समा चुका था। कुएँ के मिल जाने के बाद उसकी खुदाई के लिए इतिहासकार ने पुरातत्व विभाग से एक के बाद एक कई मीटिंग कीं लेकिन विभाग लगातार इसी ज़िद्द पर अड़ा हुआ था कि कुएँ में किसी के दफ़्न होने की सच्चाई पर विश्वास करना मुमकिन नहीं है।

कुएँ का स्तूप, १९२७

बहरहाल, 28 फरवरी 2014 को सुबह 10 बजे भारतीय स्वतंत्रता से संबंधित इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई। हज़ारों लोगों की मौजूदगी में उस कुँए में दफ़्न 1857 यानी पहले स्वतंत्रता संग्राम में गोलियों से भून दिए गए 282 भारतीय सैनिकों के शवों को बाहर निकाला और उन्हें आज़ादी और मुक्ति दिलाने की प्रक्रिया शुरू की । तीन दिन में कुँए की पौने चौदह फुट तक खुदाई करके सभी सैनिकों के कंकाल सम्मान सहित बाहर निकाल लिए गए। इनमें 90 के क़रीब साबुत खोपड़ियां, 170 से ज़्यादा साबुत जबड़ें, 2636 दांत शामिल थे। खुदाई के दौरान सैनिकों के रक्त से सनी मिट्टी में सोने के 25 से ज़्यादा मोती, सोने के तीन भारी तावीज़, सोने के चार पतरे, सोने का ढाई ईंच लंबा तार, पुरूषों द्वारा कान में पहनी जाने वाली सोने की बड़ी बाली, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक-एक रूपये के 83 सिक्के (सन् 1835 तथा सन् 1840 के), चार आने के तांबे के 19 सिक्के, शेर के मुँह वाले दो कड़े, तीन विक्टोरिया मैडल, एक विक्टोरिया मैडल का चांदी का बक्कल, चार अंगूठियां, तीन छल्ले, दो लॉकेट, सात गोलियां, तीन रूद्राक्ष के दाने, अंगूठियों में पहने जाने वाले चार क़ीमती पत्थर (स्टोन), एक लोहे का टूथ पिक, एक बैल्ट का बक्कल तथा कमीज़ के तीन बटन और कुछ अन्य सामान भी मिला। यह सारा सामान आज भी गुरूद्वारा कमेटी के पास है और राष्ट्र की इस धरोहर को पुरातत्व विभाग ने अभी तक अपने क़ब्ज़े में नहीं लिया है।

कुएँ में से निकाली गई अस्थियों की जाँच के लिए, क़रीब डेढ़ माह बाद फोरेंसिक साईंस तथा डी.एन.ए. विशेषज्ञ अजनाला पहुंचे। ऐसी सभी अस्थियां 24 अगस्त 2014 को, जल में विसर्जित कर दी गयीं, जिनकी जांच संभव नहीं थी।

विडंबना ये है कि अजनाला के नरसंहार के 162 साल बाद भी कुएँ में मरे और ज़िंदा दफ़्न किए गए भारतीय सैनिकों की पहचान आज भी नहीं हो पाई है। इस मामले में ब्रिटेन सरकार पहले ही यह कहकर पल्ला झाड़ चुकी है कि जब यह नरसंहार हुआ था तब ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन था और इस कांड के एक साल बाद ही ईस्ट इंडिया कम्पनी ख़त्म हो गई थी। लेकिन यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी है कि उन सैनिकों की पहचान के लिए हर संभव प्रयास किये जाएं।

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