अजंता की गुफाओं और इसके प्रसिद्ध चित्रों के साथ-साथ एलोरा की गुफाओं और इसकी प्राचीन मूर्तियों को देखने के लिए दुनिया भर से पर्यटक महाराष्ट्र आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन दो समूहों के अलावा, महाराष्ट्र 2200 वर्षों से अधिक समय से चली आ रही सैकड़ों अन्य गुफाओं का भी घर है? कई कारणों ने महाराष्ट्र में गुफाओं के निर्माण को प्रभावित किया, जैसे क्षेत्र में प्रमुख व्यापार मार्गों का अस्तित्व और खुदाई के लिए पहाड़ की चट्टानों की उपयुक्तता। आज हम आपको महाराष्ट्र की 5 शानदार गुफाओं की सैर कराते हैं और आपको उनकी ऐतिहासिक विरासत के बारे में बताते हैं …
1- कार्ला गुफाएं
कार्ला गुफाएं मुंबई-पुणे राजमार्ग से क़रीब पांच कि.मी. के फ़ासले पर स्थित हैं। संयोग से ये आधुनिक राजमार्ग प्राचीन समय में व्यापार का एक प्रमुख मार्ग हुआ करता था जो दक्कन के शहरों को कल्याण और सोपारा के समुद्री तटों से जोड़ता था। व्यापारियों और लोगों के काफ़िलों ने सैंकड़ों बरस तक इस मार्ग का इस्तेमाल किया था और इसलिये यहां आपको चट्टानों को काटकर बनाईं हुईं कई गुफाएं (जैसे कार्ला, भाजा, कोंधाणे और बेडसे) मिलेंगी। ये गुफाएं बौद्ध धर्म के संरक्षक व्यापारियों ने बनवाईं थी जो अपनी यात्रा के दौरान यहां ठहरा करते थे।
पहली शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी के बीच कई व्यापारियों और लोगों के चंदे तथा मदद से कार्ला में 16 गुफाएं बनाईं गईं थीं। व्यापारियों और महाजनों की आर्थिक मदद के अलावा इन गुफाओं के लिये क्षत्रप और सातवाहन राजवंशों से भी उनुदान मिलता था जिनका उस समय इस क्षेत्र में शासन हुआ करता था। उस समय रोम के साथ बहुत व्यापार होता था और इसलिये ये राजवंश ख़ूब फूलेफले भी। ये राजवंश बौद्ध प्रतिष्ठानों को संरक्षण भी दिया करते थे।
बौद्ध जगत में कार्ला गुफा का महत्ता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि समाज के हर वर्ग के लोगों ने इस परिसर की स्थापना में योगदान किया था। इन लोगों के नाम यहां मिले 34 अभिलेखों में दर्ज हैं। और पढ़े
2- कचारगढ़ गुफाएँ
पूर्व महाराष्ट्र के सीमावर्ती प्रांत में स्थित गोंदिया ज़िले का नाम सुनते ही आँखों के सामने नक्सल प्रभावित क्षेत्र की तस्वीर खड़ी हो जाती है। लेकिन जैव विविधता से भरपूर मिश्रित जंगलों से घिरे इस क्षेत्र में एक प्राकृतिक आश्चर्य भी है – कचारगढ़ की गुफाएँ। यद्यपि यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र में स्थित एक गुफा है, जो गोंड आदिवासियों के देवता की वजह से आकर्षण का एक बड़ा केंद्र बन गया है। फ़रवरी महीने में, माघी पूर्णिमा के समय यहां वार्षिक तीर्थयात्रा होती है। उस तीर्थयात्रा में हज़ारों की संख्या में श्रृद्धालू हिस्सा लेते हैं ।
कचारगढ़ एक पवित्र धार्मिक और प्राकृतिक स्थान है जो सालेकसा तहसील में सालेकसा से ७ किमी की दूरी पर और गोंदिया ज़िला मुख्यालय से ५५ किमी दूर पर स्थित है। गोंदिया-दुर्ग रेलवे मार्ग पर स्थित सालेकसा स्टेशन से, दरेकसा-धनेगाव मार्ग होते हुए लोग यहाँ पहुँचते हैं। दरेकसा मार्ग से कचारगढ़ महज सात किलोमीटर की दूरी पर है।
इसलिए, यहां पहुंचनेन वाले आदिवासी भक्तों के साथ अन्य पर्यटक भी बड़ी संख्या में आते हैं। कचारगढ़ पहुंचकर हरी भरी पर्वत श्रृंखलाएं देखी जा सकती हैं, जो घने जंगलों से घिरी हुई है। इन पहाड़ों में एक बड़ी नैसर्गिक गुफा है, जिसे एशिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफा माना जाता हैं ।
गोंड आदिवासीयों का यह मानना हैं कि गोंडी संस्कृति के रचनाकार शंभु, गौरा, पहाड़ी कुपार लिंगो, संगीत सम्राट हिरसुका पाटालीर, 33 कोट सगापेन और 12 पेन एवं 750 कुल, सल्ला गांगरा शक्ति यहाँ स्थित है। यह गोंडी धर्म की आस्था और विश्वास है कि उनकी आत्मा यहाँ के घने जंगलों की गुफाओं में निवास रहती है। और पढ़े
3- एलिफ़ेंटा गुफाएं
क्या आप जानते हैं कि एलिफ़ेंटा द्वीप की बंदरगाह पर जो हाथी की मूर्ती हुआ करती थी और जिसके नाम पर ही द्वीप का नाम पड़ा था, वही मूर्ती आज एक संग्रहालय में रखी हुई है? और क्या आपको यह भी पता है कि द्वीप की गुफाओं में शिव की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति, जिसे देखने लोग ख़ासतौर पर यहां आते हैं, दरअसल पंचमुखी (पांच मुख वाली) मूर्ति है? और यह कि एक बार वेल्स के राजकुमार के लिये मुख्य गुफा में रात्रिभोज का आयोजन भी किया गया था?
मुंबई के गेटवे ऑफ़ इंडिया से नाव से इस द्वीप पर पहुंचने में एक घंटा लगता है। इस द्वीप को स्थानीय लोग घारापुरी कहते हैं। यहां पहुंचने पर आप चट्टानों को काट कर बनाई गईं गुफ़ाओं की ऐसी दुनियां में पहुंच जाते हैं जहां अद्भुत मूर्तियों का भंडार छुपा हुआ है। इस जगह को हम एलिफ़ेटा गुफा के नाम से जानते हैं। ये इतनी मशहूर और महत्वपूर्ण हैं कि सन 1987 में यूनेस्को ने इसे अपनी विश्व धरोहर की सूची में शामिल कर लिया।
हालंकि इस बात को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं कि एलिफ़ेटा गुफाओं की खुदाई कब हुई थी लेकिन अमूमन यह माना जाता है कि पांचवीं और छठी शताब्दी के बीच कभी खुदाई में ये गुफाएं मिली थीं। ये विश्वास दक्कनी क्षेत्र में गुफाओं में अंकित तारीख़ों पर आधारित है। लेकिन इस बात के भी साक्ष्य हैं कि पहले भी इस द्वीप में लोग रहा करते थे। यहां दो हज़ार साल पहले भी लोग बसते थे। ये छोटा सा द्वीप कभी व्यापार का केंद्र हुआ करता था। और पढ़े
4- औरंगाबाद गुफ़ाएं
वो लोग जो अजंता और एलोरा की गुफाएं देखने जाना चाहते हैं उनके लिये महाराष्ट्र में औरंगाबाद सबसे बेहतर आधार शिविर हो सकता है। औरंगाबाद अजंता गुफाओं से साढ़े तीन घंटे औऱ एलोरा गुफाओं से डेढ़ घंटे की दूरी पर है। यही वजह है कि यहां आकस्मिक आने वाले लोगों की नज़र शहर के इतिहास और इसकी धरोहर पर नहीं पड़ती। कुछ लोग भले ही यहां पनचक्की और बीबी का मक़बरा, जिसे दक्कन का ताज कहते हैं, देखने चले जाएं लेकिन कुछ औरंगाबाद की गुफाओं के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। ये बौद्ध गुफा-परिसर अजंता से अलग नहीं है।
औरंगाबाद गुफ़ाएं क्या हैं? जो लोग बुद्ध के रास्ते चलकर भिक्षु बनना चाहते हैं, उनके लिये बुद्ध ने ऐसे जीवन की कल्पना की थी जो सांस्कारिक मोह माया से दूर था। जीवित रहने के लिये बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगते थे और ज्ञानोदय के लिये लंबे समय तक एकांतवास तथा ध्यान लगाते थे। भिक्षुओं ने रहने के लिये जंगल या पहाड़ों में गुफाओं को अपना निवास बनाया था। सारे देश में बौद्ध धर्म के प्रसार और इसे शाही संरक्षण मिलने के बाद इन गुफाओं को मूर्तियों, कलाकृतियों आदि से सजाया गया। अक्सर पहाड़ को काटकर इन गुफाओं को बनाया जाता था। औरंगाबाद में 12 गुफाएं हैं जिन्हें शहर के पास ही एक पहाड़ी की खुदाई में निकाला गया था।
समय के साथ दक्कन में भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव आया। ये बदलाव औरंगाबाद की गुफाओं की कला में दिखाई पड़ता है। और पढ़े
5- पातालेश्वर गुफा
महाराष्ट्र के शहर पुणे में इतिहास की एक नायाब चीज़ है जिसे पातालेश्वर गुफा मंदिर कहते हैं । 400 साल पुराना ये मंदिर शिवाजी नगर रोड पर है । पातालेश्वर मंदिर की बनावट ही इसका मुख्य आकर्षण है । मंदिर दिखने में अधूरा सा लगता है । समझा जाता है कि गर्भ गृह में किसी कमी की वजह से इसे और तराशना जोख़िम भरा हो गया था और इसीलिए ये अधूरा रह गया लेकिन इसके बावजूद इसकी महत्व पर कोई असर नहीं पड़ा है ।
कहा जाता है कि गुफाओं में देवालय बनाने की शुरूआत पशुपथ संप्रदाय ने की थी । शिव के मुख्य पुजारी के रूप में विख्यात पशुपथ संप्रदाय ने अजंता और एलोरा जैसी विश्व प्रसिद्ध गुफाओं का भी निर्माण किया था।
स्थानीय कथाओं के अनुसार, 6ठी से 10वीं शताब्दी के दौरान राष्ट्रकूट वंश के शासनकाल के दौरान चट्टान को तराशकर पातालेश्वर गुफा मंदिर बनाया गया था । यहाँ बैठने की काफ़ी जगह है इसलिए पर्यटक यहां बैठकर ध्यान लगा सकते हैं । आज भी यह मंदिर ज़मीन के नीचे ही है । मंदिर की सुरक्षा के लिए इसके चारों तरफ़ कुएँ जैसी संरचना हैं । यहां की गहरी गुफाएँ और आसपास की हरियाली पर्यटकों का मन मोह लेती हैं । इस शिवालय में दर्शन के लिए सुबह 8 से शाम 7 तक का समय बेहतर है । और पढ़े
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