वो लोग जो अजंता और एलोरा की गुफाएं देखने जाना चाहते हैं उनके लिये महाराष्ट्र में औरंगाबाद सबसे बेहतर आधार शिविर हो सकता है। औरंगाबाद अजंता गुफाओं से साढ़े तीन घंटे औऱ एलोरा गुफाओं से डेढ़ घंटे की दूरी पर है। यही वजह है कि यहां आकस्मिक आने वाले लोगों की नज़र शहर के इतिहास और इसकी धरोहर पर नहीं पड़ती। कुछ लोग भले ही यहां पनचक्की और बीबी का मक़बरा, जिसे दक्कन का ताज कहते हैं, देखने चले जाएं लेकिन कुछ औरंगाबाद की गुफाओं के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। ये बौद्ध गुफा-परिसर अजंता से अलग नहीं है।
औरंगाबाद गुफ़ाएं क्या हैं? जो लोग बुद्ध के रास्ते चलकर भिक्षु बनना चाहते हैं, उनके लिये बुद्ध ने ऐसे जीवन की कल्पना की थी जो सांस्कारिक मोह माया से दूर था। जीवित रहने के लिये बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगते थे और ज्ञानोदय के लिये लंबे समय तक एकांतवास तथा ध्यान लगाते थे। भिक्षुओं ने रहने के लिये जंगल या पहाड़ों में गुफाओं को अपना निवास बनाया था। सारे देश में बौद्ध धर्म के प्रसार और इसे शाही संरक्षण मिलने के बाद इन गुफाओं को मूर्तियों, कलाकृतियों आदि से सजाया गया। अक्सर पहाड़ को काटकर इन गुफाओं को बनाया जाता था। औरंगाबाद में 12 गुफाएं हैं जिन्हें शहर के पास ही एक पहाड़ी की खुदाई में निकाला गया था।
औरंगाबाद की ये गुफाएं किस समय की हैं, इसकी तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन पुरातत्विद गुफाओं की वास्तुकला से मिलने वाले संकेतों पर ही निर्भर करते हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भारतीय और दक्षिण एशिया की प्रोफ़ेसर और कला इतिहासकार जिन्हें पद्म भूषण सम्मान मिल चुका है, विद्या देहेजिया ने अपनी पुस्तक अर्ली बुद्धिस्ट रॉक कट टैंपल (1972) में लिखा है कि औरंगाबाद की गुफा नंबर 4 और अजंता की गुफा नंबर 9 में काफ़ी समानता है जिससे लगता है कि ये दोनों ही एक समय की रही होंगी यानी ये गुफायें प्रथम शताब्दी के मध्य में कभी गईं होंगी। लेकिन कई अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि ये गुफा दूसरी शताब्दी की हैं। बहरहाल विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि गुफा नंबर 4 आरंभिक खुदाई को दर्शाती हैं और इसलिये कहा जा सकता है कि औरंगाबाद की गुफाएं उतनी ही पुरानी हैं जितनी कि अजंता की गुफाएं।
पिया ब्रांकाक्सिऊ ने अपनी किताब “द बुद्धिस्ट केव्स एट औरंगाबाद: ट्रांसफ़ॉर्मेशन्स इन आर्ट एंड रेलीजन” (2011) में औरंगाबाद गुफाओं के बारे में लिखा है।गुफाओं के पश्चिमी समूह में गुफा नंबर 1,2,3,4,4ए और 5 आती हैं जबकि गुफाओं का पूर्वी समूह क़रीब एक मील दूर है और इसमें 5 गुफाएं हैं जो कार्य और डिज़ाइन के लिहाज़ से एक दूसरे से भिन्न हैं। गुफाओं के उत्तरी समूह में तीन गुफाएं हैं जिनमें से किसी पर भी नंबर नहीं लिखा है और अपूर्ण हैं।
लेकिन सवाल ये है कि औरंगाबाद गुफाओं का अध्ययन क्यों किया जाए और ये भारत में अन्य बौद्ध गुफाओं से कैसे अलग हैं? भारत में दूसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म लोकप्रिय हो गया था और इसी समय बौद्ध गुफाएं बनने लगी थीं। इनमें से सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं भाजा, जुन्नार, नासिक, कारली, कन्हेरी और अजंता की गुफाएं। इसी समय औरंगबाद गुफाएं भी बनने लगी थीं। गुफा नंबर 4 कैत्य सभागार या कैत्य गृह है जो बौद्ध प्रार्थना हॉल है जिसके एक तरफ़ एक स्तूप भी है।
औरंगाबाद गुफाओं के अविर्भाव का संबंध बौद्ध गुफाओं की तरह क्षेत्र में व्यावसायिक गतिविधियों, समृद्धि और कृषि आधारित आर्थिक उन्नति से है। बहरहाल, समय गुज़रने के साथ दक्कन की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति काफी बदल गई हैं। कई बौद्ध स्थल अनुपयोगी हो गए हैं जबकि कई अन्य स्थलों को देखकर लगता है कि वहां गतिविधियां लगातार नहीं हो रही थीं।
ब्रांकाक्सिऊ का कहना है कि “औरंगाबाद लोकप्रिय परंपरा का दर्पण है और इससे पहली शताब्दी में गुफाओं की स्थापना से लेकर 7वीं शताब्दी के आरंभ तक पेशे में असमान्य निरंतरता और शाही संरक्षण का पता लगता है। इनसे बौद्ध परंपरा के विकास के विभिन्न चरणों का भी पता चलता है जिसे आज भी ठीक से नहीं समझा गया है। इस तरह औरंगबाद की गुफाएं एक ऐसी खिड़की की तरह हैं जहां से हम उन तमाम जटिल मुद्दों को देख और समझ सकते हैं जिसने बौद्ध परंपरा को गढ़ा। इसके अलावा औरंगाबाद गुफाओं से कॉमन युग की पहली सात शताब्दियों में पश्चिम दक्कन की कला और समुदायों को भी समझने में मदद मिलती है।”
दिलचस्प बात ये है कि कान्हरी गुफाओं में मिले एक ब्रह्मी अभिलेख में औरंगाबाद गुफाओं का उल्लेख मिलता है। गुफा नंबर 3 के बाएं तरफ़ एक खंबे पर एक शिला-लेख है जिसमें राजातलाका में एक गुफा परिसर का ज़िक्र है। राजातलाका औरंगाबाद का प्राचीन नाम हुआ करता था। अभिलेख में पैठन का भी ज़िक्र है कभी सातवाहन राजवंश की राजधानी हुआ करता था। इसी राजवंश ने अजंता गुफा परिसर बनवाने में आर्थिक मदद की थी।
समय के साथ दक्कन में भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव आया। ये बदलाव औरंगाबाद की गुफाओं की कला में दिखाई पड़ता है। गुफा नंबर 3 जो कैत्य हॉल है, इस स्थल के अधिवास के प्रथम अवधि की है। सबूतों के अनुसार ये गुफा अंत तक पवित्र मानी जाती रही थी। स्तूप भी कम से कम पहली शताब्दी के अंत का है। यहां दूसरी शताब्दी के मध्य में खुदाई में रुकावट आ गई थी। उस समय बैद्ध धर्म को मिलने वाला संरक्षण समाप्त हो चुका था। उस समय गुप्त और वकाटाका राजवंशों का उदय हो गया था और वे भी बौद्ध धर्म को संरक्षण देने लगे थे
ब्रांकाक्सिऊ संरक्षण में बदलाव को भारत में बौद्ध धर्म में महायान संप्रदाय से जोड़कर देखते हैं।औरंगाबाद में क़रीब 5वीं शताब्दी में फिर खुदाई शुरु हुई और तभी गुफा नंबर 3 मिली। इस गुफा को देखकर लगता है कि इसका संबंध महायान आंदोलन से रहा होगा। इसके अलावा ये अजंता की गुफा नंबर 1 और 2 से काफ़ी मिलती जुलती है। ये गुफा, विहार के लिये बनाई गई होगी लेकिन हर कमरे के दरवाज़े एकदम अछूते लगते हैं जिससे पता चलता है कि इनका कभी इस्तेमाल हुआ ही नहीं होगा। गुफा के एक एकांत कक्ष में बुद्ध की भद्रासन मुद्रा में एक छवि है जिसके चारों तरफ़ विशाल बोधीसत्व हैं जिनके हाथों में पंखे हैं। कक्ष की दूसरी तरफ़ बुद्ध के श्रद्धालुओं की घुटने के बल बैठी आदमक़द छवियां हैं। इनमें से एक के हाथ में एक जानवर का सिर है। सजावट के लिये अंदर रखी गई मूर्तियों पर रंगों के धुंधले निशान देखे जा सकते हैं।
इसी समय की गुफा नंबर 7 है जो पूरे परिसर में सबसे बड़ी और विचित्र है। यहां की मूर्तियां बोद्ध धर्म में उस समय आए भारी बदलाव को दर्शाती हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर देवियों के सुंदर चित्र अंकित हैं। अंदर भद्रासन मुद्रा में बुद्ध की छवि है जिसके आसपास बुद्ध की छोटी-छोटी छवियां हैं|
छवि के दाहिने तरफ़ महिलाओं की छवियां हैं। बीच में एक छवि तारा की है। पैनल पर रंग के निशान देखे जा सकते हैं जिससे पता चलता है कि यहां कभी रंगाई की गई होगी। ब्रंकाक्सिऊ का अनुमान था कि गुफा नंबर 7 के चित्र से बौद्ध धर्म के वज्रायन संप्रदाय उद्भव का संकेत मिलता है।यहां बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों की मौजूदगी के सबूत से औरंगाबाद गुफाएं और दिलचस्प हो जाती हैं।
उदाहरण के लिये गुफ़ा नंबर 5 को यहां रहने वाले जैन भिक्षुओं ने पूरी तरह से सफ़ेद रंग में रंग दिया था वो रंग अब भी नज़र आता है। उन्होंने बुद्ध के सिंहासन के सामने शंख भी रखा था। ब्रह्मण गुफ़ा भी उतनी ही दिलचस्प है हालंकि इस पर नंबर नहीं डला है। ब्राह्मण गुफा अधूरी है और आयताकार है। इसमें कुछ हिंदू छवियां हैं जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। यहां महिषासुरमर्दिनी के रुप में दुर्गा की छवि है और पीछे की दीवार पर चमुंडा और गणेश की छवियां हैं। इसके अलावा यहां सप्ताम्रात्रिक की भी छवियां देखी जा सकती हैं। ब्रानकासियो के अनुसार ये गुफा औरंगाबाद में विकास के अंतिम चरण की तरफ़ इंगित करती है।
“ये वो समय था जागीरदारी प्रथा ज़ोर पकड़ने लगी थी और अर्थव्यवस्था ज़मीन के स्वामित्व पर आधारित होने लगी थी। हिंदू धर्म, इसकी कला और बौद्ध धर्म इस नयी व्यवस्था के एक घटक के रूप में उभरने लगे थे।” ब्रांकाक्सिऊ ने इस समय के दौरान महिला चित्रकारी के प्रभुत्व का भी उल्लेख किया है। बौद्ध ग्रंथों में इस चरण में बौद्ध धर्म के विकास का कोई ख़ास लेखा-जोखा नहीं मिलता।
सरकार की उदासीनता की वजह से लोग औरंगाबाद गुफाओं के बारे में नहीं जानते हैं। शौकिया सैलानियों के लिये पुष्कर सोहनी की औरंगाबाद विद दौलताबाद, खुलबाद एंड अहमदनगर किताब औरंगाबाद गुफाओं ही नहीं बल्कि इस शहर को जानने और समझने की एक अच्छी गाइड है।
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