वाल्टर स्पिंक: अजंता को किताब की तरह पढ़ने वाले संशोधक

वाल्टर स्पिंक: अजंता को किताब की तरह पढ़ने वाले संशोधक

हिन्दुस्तान में यदि किसी प्रोफ़ेसर को चाचा जी की उपाधि मिल जाये तो वह इस बात का प्रमाण बन जाता है कि आप न सिर्फ एक उत्तम शिक्षक हैं बल्कि आपके विद्यार्थियों को आपके ज्ञान और जीवनकाल की कृतियों पर विश्वास तो है ही, और आपसे अपार स्नेह भी है । आज ‘ चाचा जी ‘ वाल्टर स्पिंक (16 फरवरी 1928 – 23 नवम्बर 2019) की वर्षगांठ है। वे एक ऐसे दुर्लभ और विरले किस्म के अमरीकी विद्वान थे जिन्होंने अपनी जिंदगी के साठ से ज्यादा साल एकाग्र रूप से महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में अजंता की चट्टानों में उकेर कर बनीं गुफाओं – के अध्ययन में लगाये । इस क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोगों को यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी कि अजंता और स्पिंक एक दूसरे के लिए बने थे! दुनिया भर में फैले हुए बहुत से लोगों के लिए स्पिंक का नाम सौजन्य, उत्साह, गर्मजोशी, उदारता, कविता, अध्ययन और कितनी ही बातों की याद दिलाता है। उनको सबसे ज़्यादा याद किया जाता है अजंता की स्पष्ट और सटीक ‘सुधारित लघुकालक्रम’ के लिए जिससे गुफाओं के निर्माण से जुड़ी सारी पहेलियां — जैसे कि इनका कब निर्माण हुआ, इन्हें किसने बनवाया और ये गुफ़ाएं किस तरह से प्राचीन भारत के स्वर्णिम काल की प्रतीक हैं — एकसाथ हल हो जाती हैं। उनके सुधारित लघुकालक्रम से अजंता के निर्माण के कई वर्षों बाद की चट्टानों में उकेरी गई गुफाओं के कालक्रम पर भी गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय इतिहास के कुछ भूले बिसरे लेकिन शानदार अध्याय रोशन हुए।

छिपे हुए रहस्यों की अंतहीन खोज करते डॉ स्पिंक | डॉ श्रीकांत जाधव

डॉ वाल्टर एम स्पिंक, 2000 में मिशिगन विश्वविद्यालय से सेवामुक्त होने के बाद वहीँ पर मानद प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए और 2019 के आयु में निधन होने तक कार्यरत रहे । मैसाच्यूसेट्स के ऐमहर्स्ट कालेज में स्नातक स्तर पर कला इतिहास विषय में सर्वोत्तम प्रावीण्य हासिल करने के बाद 1949 में इसी विषय में आगे की पढ़ाई के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिल हुए । वहां उनके गुरु थे बेंजामिन रोलैंड, जो भारतीय कला पर लिखने वाले पहले पश्चिमी कला इतिहासकारों में एक थे । उनसे प्रभावित होकर स्पिंक की भारतीय कला में गहरी रुचि विकसित हुई।

जून १९५२ में अपने विवाह के तीन दिन बाद स्पिंक पत्नी नेस्टा के साथ हवाई जहाज से इंग्लैंड पहुंचे और तुरंत वहां से चलने वाले पानी के जहाज़ पर भारत के लिए रवाना हुए । उस समय वे फ़ुलब्राइट ग्रैजुएट फ़ेलो थे और ओड़िशा के लिंगराज मंदिर में मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला पर अपना शोध प्रबंध लिखना चाहते थे।

लेकिन वे मंदिर पहुंचे तो हिन्दू नहीं होने की वजह से मंदिर को भ्रष्ट करने वाले माने गए और उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया गया। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। अगले दिन धोती पहनकर, और पीछे पीछे साड़ी पहनाई हुई अर्धांगिनी को साथ लेकर फिरसे एक ज़िन्दादिल कोशिश की, लेकिन वहां के पुजारियों को बेवकूफ न बना पाए और दोबारा असफल रहे । तब यह विचार उन्होंने छोड़ दिया और भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। ओड़िशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में चट्टानों से निर्मित गुफाओं की स्थापत्य कला से मुग्ध होकर इन शैलियों के प्रति उनका लगाव बढ़ा। लेकिन वह स्थल महाराष्ट्र की वाघुरा नदी की घाटी में स्थित अजंता था जिसने उन्हें बांध लिया और छः दशकों से अधिक अपना बनाए रक्खा। अजंता के इतिहास और विकास पर लिखी हुई अपनी सात खण्डों की ग्रंथावली के पहले खंड में उन्होंने लिखा है कि जो व्यक्ति इस गहरी घाटी का सम्मान करना जानता हैं, उसके लिए यह घाटी एक सर्वोत्तम आश्रयस्थान है।

लेकिन अजंता परिसर में दाखिल होने से पहले ही स्पिंक को यह महसूस होने लगा था कि इन उकेरी हुई गुफाओं के कालमापन में कुछ न कुछ गड़बड़ी थी, जिसे ठीक करना ज़रूरी था । इसका कारण यह था कि भारत में पाए जाने वाले बहुसंख्य अभिलेखों में किसी राजा के शासन काल के अनुसार तिथि दर्ज की गई है, जिसे सौर तिथि, याने कैलेंडर से मिलाकर उनकी तारीख़ निश्चित कर पाना मुश्किल होता है।

अजंता का कालक्रम भी इसी तरह के अशास्त्रीय अनुमान का शिकार था । कुछ विद्वानों का अनुमान था कि इनके निर्माण में लगभग दो सौ साल लगे होंगे । इस अनुमान के बारे में स्पिंक के मन में संदेह पैदा करने वाली कुछ घटनाओं का उन्होंने ज़िक्र किया है जिनके परिणामस्वरूप उन्होंने गंभीरता से यह छानबीन शुरू की । उनमें से पहली घटना थी उनकी कर्नाटक स्थित बादामी गुफाओं की यात्रा। इन गुफाओं में से प्राप्त अभिलेख में यह स्पष्ट लिखा है कि ये गुफ़ाएं छठी शताब्दी में बनी थी । स्पिंक ने वहां जाने से कुछ ही समय पहले मुंबई के समुद्री तट के पास एलीफेंटा गुफाएं देखी थीं। उनकी कला इतिहासकार की पारखी नज़र ने उन्हें एहसास दिलाया कि बादामी की गुफाएँ एलीफेंटा की गुफाओं से अधिक विकसित, और इस कारणवश उसके बाद के समय की थी । लेकिन एलीफेंटा की तारीख उस समय आठवीं शताब्दी मानी जा रही थी। उन्हें यह सन्देह हुआ कि एलीफेंटा की समय निश्चिति में कम से कम दो शताब्दियाँ अधिक जोड़ दी गई थीं।

फिर वे अजंता के अठारह किलोमीटर पश्चिम में जिंजाला गांव के निकट घटोत्कच गुफाओं में पहुंचे जहाँ एक अभिलेख के अनुसार गुफ़ा के प्रायोजक का नाम ‘ वराहदेव ‘ था जो वाकाटक वंश के पांचवीं सदी के मध्य में हुए सम्राट हरिषेण का प्रधानमंत्री था । लेकिन यहाँ एक भित्तिस्तंभ के शिखर पर हुई नक्काशी लगभग वैसी ही थी जैसी स्पिंक ने अजंता में देखी थी और अजंता की तारीख सातवीं शताब्दी मानी जाती थी । दोबारा दो शताब्दियों का घोटाला नज़र आ रहा था ।

स्पिंक ने अब इसमें पूरी तरह डूब कर अजंता की गुफाओं के परिसर और उससे जुड़े घटोत्कच, बाघ, बनोती और औरंगाबाद जैसे स्थलों का इंच दर इंच मुआयना शुरू किया। बारीकियां कितनी ही छोटी या नगण्य क्यों न हो, उन्होंने सबको ऐतिहासिक सबूत समझकर उसका मूल्यांकन किया और अजंता का इतिहास रचने में इस्तेमाल किया।

गुफा 4 में एक अवलोकितेश्वर पैनल के ऊपर दो छेद: पूजा के लिए मालाओं के लटकने के साक्ष्य | सरयू कामत

बुद्ध, बोधिसत्व, नाग, देवियों और यक्षों की सुन्दर मूर्तियाँ और स्तूपों के अलावा स्तंभ, खिड़कियों की चौखटें और भूमिगत पानी की टंकी जैसी विशेषताएं धीरे धीरे अजंता की सत्यकथा की रचना में लगे हुए महत्वपूर्ण पुर्ज़े बनते गए।

समय के साथ स्पिंक ने अपनी खोज के दौरान कई ऐसे सबूत ढूंढ निकाले जिन पर आम तौर पर नज़र नहीं जाती। खिड़की की चौखट में बने खांचे, अर्चना स्थल के भित्तिचित्रों पर जमी कालिख, माला लटकाने के लिए छत में लगे छल्ले के आसपास का पलस्तर, दरवाज़े के कब्ज़े, बुद्ध और बोधिसत्व के पट्ट के ऊपर बने छेद, दरवाज़े की धुरी के पास रगड़ के निशान, छत पर से चित्रित दीवार पर छिटका रंग का छींटा – ऐसे कई उदाहरण इतिहास के गवाह बनकर स्पिंक को अपनी कहानी सुनाने लगे। गजब यह कि स्थल के इतिहास के सुराग ढूंढने में उन्हें सबसे ज़्यादा मदद मिली कारीगरों की अधूरी या असफल कोशिशों से और दोषपूर्ण कारीगरी और ग़लतियों के साक्ष्य से ।

अजंता जाने वाले पर्यटकों को अक्सर ‘संगीतमय स्तंभ ‘ या ‘शामियाना प्रभाव’ जैसी बातें चमत्कार के रूप में दिखाई जाती हैं । स्पिंक ने वैज्ञानिक विश्लेषण के जरिए ऐसी कई लोकभ्रांतियों के रहस्य पर से पर्दा उठाया। ये असल में चट्टान को उकेरकर उसमें ढांचा तैयार करने के दौरान किये गये प्रयोगों का परिणाम हैं । स्पिंक के शब्दों में ‘ जो व्यक्ति अजंता स्थल का आदर कमा ले, उसे वह अपने सभी भेद स्वेच्छा से और खुल कर बता देता है’। अजंता ने स्पिंक के सामने अपने 1500 वर्ष पुराने रहस्य खोल दिए और धीरे -धीरे सच्चा इतिहास सामने आने लगा ।

गुफा 19 में शिलालेख के लिए रिक्त स्थान | सरयू कामत

स्पिंक ने वास्तुशिल्प के सरल से जटिल की ओर हुए विकसित होती हुई रचनाओं के क्रमशः विकास को पहचान कर स्थल पर मिले पुरातत्त्वीय सबूतों को 17 एक के बाद एक बनी हुई परतों में बांट दिया। जैसे कि पुरातत्त्वीय खुदाई में नीचे की परत का काल पहले और ऊपर की परत का बाद में मानने का प्रस्थापित नियम है, ठीक उसी तरह अजंता के अंदरूनी सबूतों का उन्होंने अध्ययन करके गुफाओं का कौनसा भाग पहले बना और कौनसा बाद में तथा किस क्रम से गुफाओं में काम का क्रम कैसा रहा, यह पूरा सिलसिला सुनिश्चित किया । यही वह जबरदस्त आधार था जिससे ‘सुधारित लघुकालक्रम’ की अवधि निर्धारित हुई जिसके अनुसार वाकाटक काल की सभी गुफाओं का निर्माण मात्र बीस वर्षों में हुआ ।

पारिस्थितिक प्रमाणों के आधार पर स्पिंक ने सम्राट हरिषेण को पहली गुफ़ा का प्रायोजक माना हालांकि ऐसा कोई अभिलेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है जिसमें इसका ज़िक्र हो। स्पिंक का कहना था कि अजंता ही दुनिया भर में एकमात्र ऐसा स्थल है जो एक खुली किताब है जिसमें वाकाटक राजवंश की समाप्ति का राजनीतिक इतिहास छोटी मोटी बारीकियों समेत पढ़ा जा सकता है। 462 ईसवी से 480 ईसवी तक की छोटी सी अवधि में अजंता का विकास विभिन्न रूपों और रूपान्तरों से ऐसा खचाखच भरा है कि विश्व के किसी भी ऐतिहासिक स्थल के मुकाबले अजंता को पूरी तरह बिखेर कर हूबहू वापस स्थापित करना सबसे अधिक आसान बन जाता है, यह बात स्पिंक ने साबित कर दी, हालाँकि आज भी कुछ एक विद्वानों को इस बात पर हैरत होती है। अपनी साठ से अधिक सालों की छानबीन में स्पिंक को वाकाटक कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की झलक अजंता के कोने-कोने में मिली।

गुफा 21 में नक्काशीदार खिड़की, जो अंदर से बंद है | सरयू कामत

सम्राट हरिषेण लगभग 462 ईसवी में वाकाटक साम्राज्य के सिंहासन पर बैठे। स्पिंक के शोध में तब से लेकर बहुत सी राजनीतिक घटनाओं का पता चलता है। हरिषेण के समय में अजंता की शुरुआत, उनके सामंती राज्य ऋषिक और अश्मक में युद्ध, ऋषिक की जीत और अश्मकों की हार, पुनः युद्ध और इस बार अश्मकों की जीत और ऋषिकों का निष्कासन। सम्राट हरिषेण की अचानक मृत्यु, बाकी सामंतों से मिलकर अश्मकों ने हरिषेण के अयोग्य पुत्र सर्वसेन III से विश्वासघात और विद्रोह, सर्वसेन III की हार और मृत्यु, फलस्वरूप बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक विस्तृत वाकाटक साम्राज्य में इसके बाद फैली अराजकता, सर्वसेन की विधवा पत्नी , युवराज और पुत्री का पलायन और महिष्मती में शरण लेना, वहां के शासकों का रानी से विश्वासघात और अंत में सुबंधु नाम के अवसरवादी व्यक्ति द्वारा वाकाटक साम्राज्य के बिखरे हुए टुकड़ों पर कब्ज़ा करके वाकाटक सिंहासन पर अधिकार जमाकर कलचुरी वंश की स्थापना – ये सारी घटनाएँ स्पिंक के सुधारित लघुकालक्रम में कैद हो चुकी हैं ।

गुफा 20 में बायीं ओर अधूरा द्वार | सरयू कामत

स्पिंक के सूक्ष्म विश्लेषण से अजंता का सापेक्ष समयकाल निश्चित हो गया जिससे किस गुफा में कौनसा भाग पहले बना और कौनसा बाद में और अलग अलग गुफाओं का विकास किस क्रम से हुआ, इसका तो पता चल गया, लेकिन राजनीतिक घटनाओं की तारीख नियत नहीं हो पाई। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए स्पिंक ने दूसरे ऐतिहासिक स्रोतों का आधार लेकर उनसे अपने निष्कर्ष जोड़े और इस तरह दोनों को मिलाकर सुधारित लघुकालक्रम निश्चित हुआ।

स्पिंक ने सुधारित लघुकालक्रम का ऐलान अजंता पर काम शुरू करने के बारह साल बाद एक सम्मेलन में किया। इसने इतिहास कालगणना में 200 साल के अंतर को समाप्त कर दिया। यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने स्पिंक की संशोधित तिथियों का स्वीकार तथा सम्मान करते हुए, इसी आधार पर एलीफेंटा के नाम पट्टों पर लिखी हुई तिथियाँ बदल दी हैं लेकिन अजंता में, जहां सुधारित लघुकालक्रम भौतिक अवशेषों के ज़रिए स्पष्ट रूप में पहली बार उभर कर सामने आया वहां के नाम पट्ट अभी तक पुराना कालक्रम धारण किये हुए हैं।

अपने जीवन के शेष काल में उन्होंने विश्व भर में कला इतिहास के अनेकों विद्यार्थियों को सुधारित लघुकालक्रम सिखाया, और उसके पक्ष में हर उपलब्ध मंच पर अपने तर्क रखते रहे । उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थी आज दुनिया के जाने माने विश्वविद्यालयों, संग्रहालयों और संस्थानों में ऊंचे पदों पर नियुक्त हैं।

बुद्ध छवि, गुफा 26 | सरयू कामत

सुधारित लघुकालक्रम ने इतिहासकारों और विद्वानों के बीच तूफ़ान खड़ा कर दिया।एक ही झटके में अजंता की आयु दो सौ वर्षों से घटकर मात्र बीस वर्ष रह गई। उनके इस अनुसंधान को चुनौती देने वालों में कार्ल खंडालावाला, ए.पी.जामखेडकर और ब्रह्मानंद देशपांडे जैसे प्रख्यात विद्वान थे। स्पिंक की अभिधारणाओं को लेकर उनके बीच लंबा विवाद छिड़ा। यह पूरा संवाद स्पिंक की सात खंडों की ग्रंथावली “अजंता: हिस्ट्री एंड डेवलपमेंट “ के दूसरे भाग में प्रकाशित हुआ। यह किसी लम्बे समय तक चले हुए मुकदमे के बाद हासिल हुए अदालत के फ़ैसले के सामान रोचक है, जिसमें उठाए हुए हरेक सवाल, संदेह या तर्क का उचित समाधान (जवाब) स्पिंक ने दिया है।

इतने बड़े पैमाने पर इतने उत्कृष्ट कार्य को इतनी कम अवधि में अंजाम देना स्पिंक के नज़रिए से इस तर्क का समर्थन करता है कि गुप्त काल के बजाय सम्राट हरिषेण का सत्रह वर्षों का शासनकाल ही प्राचीन भारत का स्वर्णिम काल कहलाने के लिए अधिक उपयुक्त है।

नागपुर संग्रहालय में हिस्से बोराला शिलालेख | लेखक

अजंता से अत्यधिक प्रभावित होने के साथ साथ भारतीय संस्कृति से सम्बंधित कई विषयों में उनकी गहरी रुचि रही। उनकी ऐक्सिस आफ़ ईरोस (1988) एक ऐसी अनोखी किताब है जो चित्रों की अनुकृतियों, मूर्तिकला की मिसालों, और तस्वीरों का खज़ाना है । साथ-साथ उसमें कविताएं, पुरानी ऋचाएं, सूत्र और मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों तथा अन्य विचारकों के उद्धरणों को लेखक ने अपनी टीका टिपण्णी के साथ पेश किया है। इस किताब में स्पिंक यौन परिकल्पनाओं के बारे में पूर्व और पश्चिम में प्रचलित मूल भेद पर गौर करते हुए इस मुख्य बात पर ध्यान दिलाते हैं कि भारत में लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम का रूपक है जबकि पश्चिम में यह पाप और अपराध के एहसास से जुड़ा है।

उनकी कृष्णमंडल (1971) नामक पुस्तक कृष्ण के बारे में लिखे गए अधिकृत ग्रंथों में से एक के रूप में मान्यताप्राप्त है। मिशिगन विश्वविद्यालय में कला इतिहास पढ़ाते हुए वे अक्सर वैष्णव भक्तिगीतों के उदाहरण दिया करते थे। स्पिंक को अनेकों अध्येतावृत्ति, पुरस्कार और अनुदान मिले। तीस से अधिक शास्त्रीय संस्थानों में वे सर्वोच्च पद पर कार्यरत थे। उनके द्वारा अजंता साईट पर साल में दो बार आयोजित होने वाले सेमिनार भारतीय और विदेशी सभी छात्रों के बीच लोकप्रिय थे। उनसे परिचित लोगों के पास उनके स्नेहिल और अपनापन भरे व्यवहार की ढेरों कहानियां हैं। अपने आसपास के सभी लोगों के प्रति उनके अपार स्नेह का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी सात खण्डों की ग्रंथावली ‘‘अजंता: हिस्ट्री एंड डेवलपमेंट’ का छठा खंड सादिक़ को समर्पित किया है जो अजंता के नजदीक फ़र्दापुर एम् टी डी सी रिजोर्ट में तीस साल तक उनके निजी सहायक रहे।

अनुवाद: दिव्या सिन्हा

इस कहानी को अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें

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