भारत के 5 महत्वपूर्ण मंदिरों की कहानी

भारत के 5 महत्वपूर्ण मंदिरों की कहानी

भारत को मंदिरों की भूमि कहा जाता है। भव्य, अलंकृत सम्पदाओं से लेकर सरल, पवित्र स्थलों तक, आस्था के ये प्रतीक आज देश के लगभग हर कोने में देखे जा सकते हैं।

लेकिन सदियों से, मंदिरों का, वास्तुशिल्प भवनों के रूप में, काफी विकास हुआ है। शानदार पत्थर की संरचनाएं आने से पहले, मंदिर लकड़ी जैसे आसानी से नष्ट होने वाली सामग्री से बनते थे। उनका निर्माण ईंटों का उपयोग करके भी किया गया था, या चट्टानों को काट कर भी मंदिर बनाये जाते थे|

हमारे पास दूसरी और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित कुछ संरचनाओं के अवशेष हैं जो माना जाता है कि प्राचीन मंदिरों के है | हालांकि, लोकप्रिय रूप में मंदिर निर्माण परंपरा ने तीसरी शताब्दी ईस्वी में गुप्त वंश के आने के बाद ही प्रसिद्धि प्राप्त की।

आज, हम आपको देश भर में पांच सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से कुछ को देखने के लिए ले जाते हैं।

1- भोरमदेव मंदिर, छत्तीसगढ़

क्या आपको पता है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 134 कि.मी. दूर कबीरधाम ज़िले के एक छोटे से गांव में एक मंदिर है जिसे “छत्तीसगढ़ का खजुराहो” माना जाता है ? अलंकृत मूर्तियों वाला भोरमदेव मंदिर 11वीं शताब्दी का माना जाता है जो खजुराहो और उड़ीसा के कोर्णाक सूर्य मंदिर से काफ़ी मिलता जुलता है। भोरमदेव मंदिर परिसर में ईंटों से बने मंदिरों के ख़ंडहरों के अलावा और भी प्राचीन मंदिर हैं। ये मंदिर और इसके आसपास का ऐतिहासिक परिदृश्य वाक़ई देखने योग्य हैं।

ये मंदिर पहले भगवान विष्णु को समर्पित था। कई पुराने दस्तावेज़ों और साहित्यिक स्रोतों में इसका विष्णु मंदिर नाम से ही उल्लेख मिलता है। लेकिन अब इसे शिव मंदिर के रुप में पूजा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है और माना जाता है कि विष्णु की मूर्ति को हटाकर यहां शिवलिंग की स्थापना की गई थी। मंदिर में विष्णु की एक मूर्ति है जो मंदिर के तीन प्रवेश द्वारों के मध्य स्थित है।

अभिलेखों के अनुसार माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण गोपाल देव राजा के संरक्षण में, 11वीं शताब्दी के दौरान हुआ था। अभिलेख में संवत 840 अंकित है जिसका मतलब हुआ कि मंदिर का निर्माण शायद सन 1089 के आसपास हुआ होगा। कुछ विद्वान गोपाल देव को नाग अथवा नागवंशी राजा मानते हैं जबकि कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि ये गोपाल देव रतनपुर (अब छत्तीसगढ़ का बिलासपुर ज़िला) के राजाओं के साम्राज्य में एक स्थानीय प्रधान था। और पढ़ें

2- कोणार्क का सूर्य मंदिर, ओडिशा

भव्य और सुसज्जित रथ के रुप में किसी मंदिर का निर्माण कोई साधारण बात नहीं है लेकिन ओडिशा के कोणार्क सूर्य मंदिर को तो साधारण श्रेणी में माना ही नहीं जा सकता । यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल सूर्य मंदिर 13वीं शताब्दी का है लेकिन क्या आपको पता है कि कोणार्क में इस तरह के सूर्य मंदिर पहले भी रहे हैं ? कहा जाता है कि यहां ऐसा ही एक मंदिर ढ़ाई हज़ार साल पहले हुआ करता था।

ओडिशा में उत्तर-पूर्वी तटीय शहर पुरी की तरफ़ कोणार्क में स्थित सूर्य मंदिर अपने नाम के अनुरुप सूर्य देवता को समर्पित है। ये मंदिर रथ के आकार में है जिसमें चौबीस पहिये हैं और रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं। इसे भारत का ब्लैक पगोडा (काला देवालय) भी कहा जाता है। ये भारत में मंदिर वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है।

ऐसा माना जाता है कि कोणार्क दो शब्दों को मिलाकर बना है, कोण और आर्क (सूर्य)। कोणार्क की भौगोलिक स्थिति, यानी यहां सूर्य उदय एक ख़ास कोण से होता होगा और तभी शब्द कोर्ण यहां से लिया गया होगा। एक अन्य लोककथा के अनुसार इस शहर को और पवित्र इसलिये भी माना जाता है क्योंकि यहां भगवान शिव ने अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिये ख़ुद सूर्य देवता की पूजा की थी। एक तरफ़ जहां कई अन्य ग्रंथों में कोणार्क का, सूर्य देवता की अराधना के केंद्र के रुप में ज़िक्र है, वहीं एक ग्रंथ में यहां पहले सूर्य मंदिर की स्थापना के बारे में बताया गया है। और पढ़ें

कामाख्या मंदिर | विकिमीडिआ कॉमन्स

3– असम का कामाख्या मंदिर

असम का कामाख्या मंदिर सदियों से पूज्नीय रहा है। आज भी यहां दुनिया भर से रोज़ाना हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। गुवाहाटी शहर की निलांचल पहाड़ियों पर स्थित ये मंदिर भारत में 51 शक्ति पीठों के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। कामाख्या देवी को समर्पित ये मंदिर शक्ति और तंत्र पूजा का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। लेकिन क्या आपको पता है कि ये मंदिर क्यों अनोखा है? इस मंदिर में न तो कोई मूर्ति है और न ही किसी देवी की आकृति है, यहां बस पत्थर में तराशा हुआ योनि का एक प्रतिरूप है जिसकी श्रद्धालु पूजा करते हैं।

असम के प्रारंभिक इतिहास में कामाख्या देवी नाम प्रधान नामों से से एक है। कामाख्या कामरुप अथवा प्राचीन असम की अधिष्ठातृ देवी थी। इस वजह से इसे कामरुप-कामाख्या भी कहा जाता है। माना जाता है कि कामाख्या इस प्रांत के आदिवासियों की माता देवी हुआ करती थीं। माता देवी की पूजा करने वाले संप्रदाय का संबंध खासी और गारो जैसी मातृस्वामिक जानजातियों से है जो नीलांचल पहाड़ियों में रहती थीं।

कुछ प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार, कामाख्या काली का रुप है। अन्य ग्रंथों में कामाख्या को शिव की पत्नी शक्ति का भी रुप माना जाता है। शक्ति और तंत्र की पूजा करने वाले संप्रदाय के लिये कामाख्या का हमेशा से एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। असम में, जिसे पहले प्राग्ज्युतिषपुर और बाद में कामरुप के नाम से भी जाना जाता था, तंत्र-पूजा का लंबा इतिहास रहा है। कहा तो यहां तक जाता है कि तंत्र पूजा की शुरुआत ही असम प्रांत में हुई थी। और पढ़ें

तिरुपति बालाजी मंदिर | विकिमीडिआ कॉमन्स

4- तिरुपति बालाजी मंदिर आंध्र प्रदेश

आंध्र प्रदेश के तिरुपति में श्री वेंकटेश्वर मंदिर भारत के उन मंदिरों में से एक है जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिये जाते तो हैं लेकिन इनमें से कुछ लोगों को ही पता है कि ये मंदिर कितना पुराना है। मंदिर को लेकर कई दंतकथाएं हैं लेकिन एक बात जो हम अच्छी तरह जानते हैं वो ये कि ये हज़ार बरसों से पूजा-अर्चना का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसे दक्षिण में पल्लव से लेकर विजयनगर के राय राजवंश का संरक्षण प्राप्त था। इस मंदिर में आज भी लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

ये मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर ज़िले के तिरुपति शहर में तिरुमाला अथवा तिरुमलय पहाड़ी पर स्थित है। ये पूर्वी घाटों में शेषाचलम पर्वतमाला का हिस्सा है जिसकी सात चोटियां हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि ये सात चोटियां नागराज आदिशेष के सात फनों का प्रतिनिधित्व करती हैं। पर्वतमाला को देखने से लगता है मानों कोई सांप कुंडली मारे बैठा हो।

तिरुपति का मंदिर द्रविड वास्तुकला शैली में बना है। गर्भगृह, जहां श्री वेंकटेश्वर की मूर्ति स्थापित है, उसे आनंद निलायम भी कहा जाता है। ये मूर्ति खड़ी हुई अवस्था में है। मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं जो गर्भगृह की तरफ़ जाते हैं। पहले प्रवेश द्वार के सामने एक विशाल दरवाज़ा या गोपुरम है जो पचास फ़ुट ऊंचा है। मंदिर में दो घुमावदार पथ हैं। पहले पथ में स्तंभों पर आश्रित कई हॉल, ध्वज स्टाफ़ और एक निश्चित स्थान है जहां से श्रद्धालुओं को प्रसाद दिया जाता है। दूसरे पथ में अन्य उप-मंदिर और मुख्य रसोईघर जैसे अन्य भवन हैं। श्रद्धालुओं के लिये मंदिर परिसर में हाल ही में गेस्ट हाउस और खाने-पीने के काउंटर बनाए गए हैं। और पढ़ें

मोढेरा सूर्य मंदिर | विकिमीडिआ कॉमन्स

5- मोढेरा सूर्य मंदिर गुजरात

अहमदाबाद के पास एक छोटा सा गांव है मोढ़ेरा। यूं तो आज ये गुमनामी के अंधेरों में छुपा हुआ है लेकिन किसी ज़माने में यह एक शक्तिशाली राजधानी हुआ करता था। सोलंकी राजवंश ने यहां 942 ई. से 1305 ई. तक राज किया था। सोलंकी शासकों ने मोढ़ेरा सूर्य मंदिर बनवाया था जो पश्चिम भारत के शानदार मंदिरों में से एक माना जाता है।

मोढ़ेरा सूर्य मंदिर मध्यकालीन भारत के भव्य और मनोरम मंदिरों में गिना जाता है। इसे सोलंकी साम्राज्य के राजा भीमदेव ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था। मोढ़ेरा सूर्य मंदिर मारु-गुर्जर वास्तुकला शैली में बलुआ पत्थर का बना है। इस मंदिर के तीन मुख्य भाग हैं : गर्भ-गृह एवं गूढ़-मंडप, सभा-मंड़प एवं सूर्य-कुंड या बावड़ी।

सूर्य देवता को समर्पित यह मंदिर अपनी बेहतरीन कारीगरी के लिए जाना जाता है। मध्य मंदिर और मंडप, दोनों ही चबूतरे पर बने हैं। मंदिर हालंकि 11वीं सदी में बनकर तैयार हो गया था लेकिन इसका निर्माण चरणों में हुआ था। मंदिर बनने के बाद कुंड बना था और फिर बाद में मंडप का निर्माण हुआ। यह मंदिर कर्क रेखा के ऊपर स्थापित है। और पढ़ें

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