मारोठ: राजस्थान का वृन्दावन

मारोठ: राजस्थान का वृन्दावन

मारोठ…एक जगह और कई नाम। मरोठ क़स्बे को…महारोठ, महाराष्ट्र नगर या फिर मारवाड़ के वृन्दावन के नाम से भी जाना जाता है। नागौर ज़िले का यह क़स्बा नागौर (मारवाड़), सीकर (शेखावाटी), जयपुर (ढूढ़ाड़) सीमा पर, अरावली पहाड़ी की तलहटी में बसा हुआ है। यहां पहाड़ियों से गिरते झरने और रेतीले टीलों पर ऐसे ख़ूबसूरत नज़ारे हैं, जो पर्यटकों को बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। यहां किसी समय चंदेल, दहिया, गौड़ और मेड़तिया (राठौड़) वंशों का शासन हुआ करता था। इन शासकों ने यहां कई इमारतें बनाईं थीं, जो आज भी मौजूद हैं। इस जगह की ख़ासियत ये है, कि इस क़स्बे की हर गली-मोहल्ले में एक मंदिर है, जिसे देखकर लगता है मानो ये वृन्दावन हो। आईए, हम आपको यहां की ऐतिहासिक व धार्मिक संस्कृति से रूबरू कराते हैं।

    “फूल सुगन्धी पर्वता, किल्ला सुरंगा कोट, उदयपुर मेवाड़ में, मरूधर में मारोठ

(साहित्यकार संग्राम सिंह मेड़तिया के अनुसार मारोठ के चारों तरफ़ पर्वतीय घाटियों में तरह- तरह के सुगन्धित फूल खिलते हैं। पहाड़ी और तलहटी में सुंदर क़िले और दुर्ग हैं। जिस तरह मेवाड़ में उदयपुर है, ठीक उसी तरह मारवाड़ में मारोठ है जो ख़ूबसूरती से भरपूर एक क़स्बा है।)

मारोठ क़स्बा, नावा रेल्वे स्टेशन से 15 कि.मी. दूर है। एक समय यह बहुत बड़ी सांस्कृतिक नगर हुआ करता था। इस बात का उल्लेख 17वीं शताब्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार मूथा नैणसी की किताब “मारवाड़ रा परगनां री विगत” में मिलता है, जिसमें उन्होंने मारोठ परगने का ज़िक्र किया है। इससे यह साफ़ हो जाता है, कि मारवाड़ के महाराजा जसंवत सिंह के शासन काल में मारोठ एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण स्थान तो था ही, साथ ही इसे परगना (लगभग ज़िले के बराबर) का दर्जा भी दिया गया था।

देवी महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति | लेखक

वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता के अनुसार पहले यह स्थान गराका भैरव के नाम से मशहूर था। शुरु में ये एक छोटी-सी बस्ती हुआ करती थी, लेकिन बाद में इसका विकास होता गया। विकास के कारण इसके आस-पास के कई गांव जैसे सोलाया, जिनवार, ढाणिया, देपाडा, भगवानपुरा, महाराजपुरा, अजीतपुरा, पिरोता, दड़ा, खाती और संगा का बास में स्थित घास फूस से बने हुए छोटे-छोटे घरों के समूह इस क़स्बे के हिस्से बनते गए। यह सभी गांव 5-6 किमी के दायरे में बसे हुए थे। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है ,कि 10वीं शताब्दी में यह नगर या क़स्बा 6 किमी के दायरे में फैला हुआ होगा। 11-12वीं शताब्दी में यहां चंदेल सामंतों का शासन हुआ करता था, जो चौहानों के अधीन थे। इनकी राजधानी रेवासा थी। इन्हीं चंदेल शासकों में से एक केसरी सिंह चंदेल ने गड़ा में भैरू मंदिर बनवाया था।

चंदेलों के शासनकाल में बने कुओं को आज भी “चंदेलों के कुएं” कहा जाता है। समय बीतने के साथ ये क़स्बा चौहान राजवंशी डाला के अधीन आ गया, जिनके वंशज डालिया कहलाए। इसी कारण इन्हें डालाटी के नाम से भी जाना जाता था। लेकिन मारोठ पर डालिया अधिक समय तक शासन नहीं रहा। परबतसर के पास स्थित किणसरिया अभिलेख (विक्रम संवत 1056- सन 999) के अनुसार दहिया चच्च के छोटे पुत्र विल्हण ने लगभग इस पुरे क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया था। विल्हण ने अपना डेरा मारोठ से कुछ ही दूर देपाड़ा नामक एक जगह में लगाया था। उसके शासनकाल के अवशेष आज भी पहाड़ी क्षेत्र में सुंदर गोवर्धन स्तम्भों, प्राचीन मूर्तियों, बड़ी ईंटों, दुर्गों और सरोवरों के रुप में मौजूद हैं। दहिया जाति के कई लोग ख़ुद को देपाड़ा दहिए गौत्र का मानते हैं। विल्हण दहिया एक शक्तिशाली सामंत था, जिसके बारे में आज भी लोक-गीत मशहूर हैं। मारवाड़ क्षेत्र में जब दूल्हा अपने घर से दुल्हन को लेने के लिए निकलता है, तब स्त्रियां ‘‘तेजण है मारोठ री’’ मांगलिक गीत गाती हैं। तेजण विल्हण की घोड़ी थी जिस पर वो बैठकर अपने राज्य का दौरा करता था।

मारोठ के इतिहास में गौड़ राजवंश का भी अहम योगदान रहा है।माना जाता है, कि इस राजवंश ने गौड़ बंगाला /बंगाल से बाहर देशभर में अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित किए थे। इसने किनसरिया, मंगलाना और मारोठ क्षेत्रों में दहिया राजवंश को हराकर गौड़ वंश का शासन स्थापित किया था। ये वो दौर था, जब अजमेर और उसके आसपास के क्षेत्र में पृथ्वीराज चौहान-III (सन 1177–1192) का शासन था।

मारोठ के पास स्थित मंगलाना के शिला-लेख (सन 1215) के अनुसार सन 1210  के दशक में जब दिल्ली सल्तनत बहुत ताक़तवर होती जा रही थी, तब रणथंभौर के दुर्ग के प्रधान वल्हण देव हुआ करते थे। उसी दौरान दाधीच वंशीय महामण्डलेश्वर कदवुराज देव के पौत्र और पदमसिंह के पुत्र महाराज जयत्रसिंह देव ने मारोठ में एक बावड़ी बनवाई था। शिला-लेख (सन 1282) इस बात के सबूत मिलते हैं, कि रणथंभौर के चौहान हम्मीर देव दिग्विजय आसपास के सभी राज्यों को जीत लिया था और वह मारोठ तक पहुंच गए थे।

कलात्मक बावड़ी | हितेश जैन

चौदहवीं शताब्दी में नयचन्द्रसुरि ने अपनी पुस्तक हम्मीर महाकाव्य में मारोठ क़स्बे का नाम ‘‘महाराष्ट्र नगर’’ लिखा है, जो हमें 18वीं शताब्दी की किताबों और लेखों में भी मिलता है। कहीं कहीं इसे महारोठ लिखा गया है। वहीँ, 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर (शासनकाल सन 1605 से लेकर सन 1627) ने मारोठ के शासक गोपालदास को आसेरा का क़िलेदार बनाया था। गोपालदास और उसके पुत्र विक्रम ने जहांगीर के विरुद्ध, बग़ावत के समय शहज़ादे ख़ुर्रम (शाहजहां) की ओर से लड़ाई लड़ी थी। इनके बाद गोपालदास का एक अन्य पुत्र विट्ठलदास मारोठ की गद्दी पर बैठा जो एक प्रतापी शासक साबित हुआ। विट्ठलदास को सन 1630 में रणथंभौर का शासक भी नियुक्त किया गया था।

शाहजहां ने तख़्त पर बैठने के बाद विट्ठलदास को सन 1660 में रणथंबोर का हाकिम बना दिया। सन 1640 में उन्हें आगरा का सूबेदार और क़िलेदार नियुक्त कर दिया था। विट्ठलदास के बेटे अर्जुन गौड़ के शासनकाल में मारोठ का काफ़ी विस्तार हुआ था। मारोठ से 24 किलोमीटर दूर घाटवा के मैदान में सन 1658 गौड़ और शेखावत सैनिकों के बीच एक युद्ध हुआ था। मारोठ के गौड़ शासकों की खंडेला शेखावाटी के शेखावतों से दुश्मनी रही थी। गौड़ शासकों ने रघुनाथ सिंह मेड़तिया को मारोठ सौंपने से इंकार कर दिया था। दरअसल रघुनाथ सिंह मेड़तिया मेड़ता के शासक वीर जयमल्ल मेड़तिया के प्रपोत्र थे।  इन्हें शाहजहां ने नरेश की उपाधि, मारोठ के 168 और सांभर जागीर के 36 गांव दिए थे। इसके अलावा जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह ने भी उन्हें नरेश की उपाधि दी थी।

युद्ध में रघुनाथ सिंह का, उनके ननिहाल और ससुराल के शेखावत सरदारों के सैनिकों ने साथ दिया था। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने युद्ध में शेखावत सैनिकों की मदद की और इस तरह उन्होंने गौड़ सैनिकों को हरा दिया। इसके बाद सन 1659 में औरंगज़ेब ने मारोठ परगने को अजमेर सूबे में शामिल करके, मेड़तिया रघुनाथ सिंह को दे दिया था। उधर गौड़ सैनिकों ने पास के गांगवा गांव से लेकर रोहिणी गांव तक संघर्ष जारी रखा लेकिन अंत में रघुनाथ सिंह की जीत हुई।

राजा रघुनाथसिंह ने अपने पांच पुत्रों को ताज़ीम ठिकाना (अन्य रियासत से मिलने वाली सम्मान-राशि) और जागीर में मींडा, जिलिया, लूणवा, पांचोता और मारोठ रियासतें दे दीं। इन्हें मारोठ के पंचमहल भी कहते हैं। इनमें मींडा और जिलिया दोनों ही मारोठ राज्य की डेढ़ सौ घोड़ों की वतन जागीर के बराबर थे। मनसबदारों की जागीरों को एक प्रांत से दूसरे प्रांत में स्थानान्तरित कर दिया जाता था और ऐसी जागीरों को ‘वतन जागीर’ कहा जाता था। राजा रघुनाथसिंह ने 17वीं शताब्दी में कई युद्ध लड़े। आख़िरकार उन्हें  पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर और आस-पास के मंदिरों की रक्षा करते हुए, सन 1680 में वीरगति प्राप्त हुई । मारोठ क़स्बे में राजा रघुनाथ की याद में हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष तेरस को समारोह आयोजित किया जाता है।

19वीं शताब्दी में मारोठ अंग्रेज़ों के अधीन हो गया। सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद ये राजस्थान राज्य का हिस्सा बन गया।

राजा रघुनाथसिंह का चित्र | गोपालसिंह

जिनालय (जैन मंदिर)

सन 1653 में मारोठ में मिले एक जैन अभिलेख के अनुसार अर्जुन गौड़ के शासनकाल में,लालचंद ने भट्टारक चन्द्रकीर्ति से, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की स्थापना के लिए विशाल समारोह आयोजित करवाया था। साहित्यकार हितेश कुमार जैन के अनुसार इस क़स्बे में लम्बे समय तक जैन साधु-संतों का प्रभाव रहा था। यहां 11वीं-12वीं शताब्दी की कई जैन मूर्तियां मिली हैं। अभिलेखों से पता चलता है, कि इनमें से कुछ मूर्तियों की स्थापना जैन संत सकल कीर्ति ने सन 1175 में की थी। यहां आज भी कई मध्यकालीन जिनालय (जैनियों के धार्मिक स्थल) मौजूद हैं। सन 1328 में बेनीराम अजमेरा ने आदिनाथ और सन 1425 में जीवनदास पाटोदी ने चन्द्र प्रभु जिनालय बनवाया था। सन 1737 में बैरिशाल के प्रधान रामसिंह ने अजमेर के भट्टारक अनंत कीर्ति से मूर्ति की स्थापना करवाई थी। इस अवसर पर बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे। एक लेख में सन 1750 में,इस बात का ज़िक्र है, कि महाराजा रामसिंह के शासनकाल में, महारोठ नगर में श्री खेमकीर्ति ने अपने गुरु सकल कीर्ति के गुरु, श्री नरेन्द्रकीर्ति की छतरी बनवाई थी।

कुछ अभिलेखों में इस बात का उल्लेख है, कि पारसराम ने, सन 1759 में तेरापंथी मंदिर बनवाया था। उन्होंने आदिनाथ और चन्द्रप्रभु चैत्यालय की मरम्मत भी करवाई थी। कई मंदिरों की छतों और स्तंभों पर असली सोने की गई “सुनहरी चित्रकारी” है। गौड़ शासकों को भवन बनवाने का शौक़ था। उन्होंने कई सुंदर भवन बनवाए। 14वीं शताब्दी का लक्ष्मीनारायण मंदिर, शिव मंदिर, नौलखा बाग़, सुंदर छतरियों, चबूतरों सहित अन्य कई धरोहर आज भी मौजूद हैं जिन्हें देखने के लिए दूर-दराज़ से पर्यटक आते हैं। वकील गोपालसिंह राठौड़ के अनुसार सन 1658 में मारोठ से पच्चीस कि.मी. दूर, घाटवा के मैदान में, शेखावाटी के शेखावतों के साथ हुए युद्ध में महान राजपूत योद्धा राव शेखा (शेषमल) घायल हो गए थे। इसके बाद मारवाड़ नरेश अजीतसिंह ने सन 1708 में मारोठ के इस गौड़ावाटी परगने को अपने राज्य में मिल लिया था।

मारोठ को वृंदावन के नाम से भी जाना जाता है। यहां सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के धार्मिक स्थल हैं। गांव की दक्षिण दिशा में प्रसिद्ध भैरव मंदिर है, जहां पर देश-विदेश से श्रद्धालु, नव-दंपत्तियां और नवजात शिशु के मुंडन के लिए लोग आते हैं। 31 फ़ुट ऊँची भगवान महावीर की प्रतिमा है। यहां देश की एक मात्र बक्रशाला भी है जो सौ साल पुरानी है। इसके अलावा गौशाला, कबूतर ख़ाने सहित हर गली-मोहल्ले में मंदिर बने हुए हैं।

महावीर स्वामी की प्रतिमा | हितेश जैन

पुरावशेष

मारोठ से दस किमी दूर स्थित पहाड़ी क्षेत्रों, दुपाड़ा और बाटलिया के आस-पास कई प्राचीन धरोहरें आज भी मरम्मत का इंतज़ार कर रहीं हैं। यहां खुदाई में मां दुर्गा की अवतार महिषासुरमर्दनी की अद्भूत अष्टभुजा प्रतिमा, मिट्टी के कलश, पूजा-सामग्री, कोड़िया, धुणे की भभूती, पुराने आवास के अवशेष, हथियार बनाने और अनाज पीसने के पत्थर मिले हैं। इसके अलावा गोवर्धन स्तम्भ  भी मिले हैं जिन पर श्रीहरि विष्णु, भगवान गणेश, शिव-पार्वती, सूर्य, गोवर्धनधारी श्री कृष्ण की आकृतियां बनी हुई हैं। इस क्षेत्र में मौजूद पुरासंपदा बदहाली की स्थिति में है। इन धरोहरों की देखरेख की सख़्त ज़रुरत है।

पुरा अवशेष/ मंदिर | लेखक

लेखक बिशन सिंह शेखावत के अनुसार नागौर क़स्बे के शासक राव अमरसिंह राठौड़ की, आगरा के क़िले में प्रवेश करते समय धोखे से हत्या कर दी गई थी। उनके साले अर्जुन गौड़ का संबंध भी इसी क़स्बे से था। गौड़ राजवंश का मारोठ सहित आसपास के गांवों पर लगभग तीन वर्षों तक शासन रहा था। इस वजह से इसे गोड़ावाटी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पहाड़ गढ़, कोर्ट, प्राचीन बावड़ी और छतरियां भी हैं। साथ ही यहां मंदिर स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने भी हैं। इन्हें देखने दूरदराज़ से पर्यटकों के अलावा शोध-छात्र भी आते रहते हैं। इस क़स्बे को ढूंढाड़ और मारवाड़ के बीच मुख्य प्रवेश-द्वार भी कहा जाता है। “अहिंसा परमो धर्म” अहिंसा उपदेश का पालन करने का उदाहरण राजस्थान में संभवत: मारोठ क़स्बे में ही देखा जा सकता है। यहां बकरों को रखने के लिए जगहें और कबूतर ख़ानों की तरह बक्रशाला भी बनी हुई हैं, जो इस क़स्बे की मुख्य पहचान हैं।

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