मकराना : विश्वप्रसिद्ध संगमरमर के गढ़ की कहानी

मकराना : विश्वप्रसिद्ध संगमरमर के गढ़ की कहानी

अगर शिल्पकार के पास सधा हुआ हाथ और कल्पना शक्ति हो , तो उसकी छुअन से बेजान पत्थर भी बोल उठते हैं।  जी हाँ, कुछ ऐसा ही नज़ारा आप नागौर ज़िले के मकराना (मकराणा) क़स्बे में देख सकते हैं। विश्व विख्यात ‘‘मकराना का भाटा’’ संगमरमर बेहतरीन और शानदार माना गया है। इसके मुक़ाबले का दूसरा पत्थर दुनिया में है ही नहीं । इस क़स्बे के होनहार शिल्पकारों की बनाई जाने वाली विभिन्न कलाकृतियों को देखकर ये बोलते पत्थर बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेते हैं। मकराना क़स्बा मार्बल की सबसे बड़ी और पुरानी मंडी रहा है। सालों पहले यहां के मार्बल से विश्व प्रसिद्ध ताजमहल बनाया गया था। वर्तमान समय में यही मार्बल अब संसार के प्रत्येक कोने में पहुंच रहा है। आइए, जाने इस क़स्बे सहित आस-पास की विशेष बातें जो अन्य क़स्बों से कुछ अलग रही हैं।

 

मकराना की मूल जानकारी

नागौर ज़िला मुख्यालय से 85 किमी दूर, जोधपुर-जयपुर मुख्य रेल्वे लाइन पर बसे इस क़स्बे का नाम ज़हन में आते ही चमचमाता ख़ूबसूरत, मख़मली संगमरमर दिखाई देता है, जो दुनिया भर की इमारतों को चार चांद लगा रहा है। मकराना के चारों ओर संगमरमर की गहरी खदानें, यहीं से निकलता सफ़ेद और शीतल पत्थर, इसके लिए यहां स्थापित अनेक औद्योगिक इकाईयां और यहां वर्षों से छैनी-हथौड़े की मदद से इस संगमरमर में विविध आकृतियां उकेरकर बेजान, निर्जिव पत्थर में जान डालते कारीगर, शिल्पकार ठक-ठक करते तल्लीनता के साथ शिल्पकारी करते नज़र आते हैं। इस पत्थर की जाली-झरोखे, गमले, मूर्तियां, शेर-हाथी, घोड़े जैसे अनेक खिलौने, मेहराब, चौखट, छतरियां, झूले-बेलबूटे डिज़ाइन के खम्भों के अलावा तरह-तरह के पात्रों पर चित्रकारी स्थापत्यकला की दृष्टि से सुंदर और उत्कृष्ट श्रेणी में आती है।

मकराना की खदानें | लेखक

मकराना का शुरूआती इतिहास

इस क्षेत्र का इतिहास काफ़ी प्राचीन है। इसके प्रमाण के रूप में कई शिला-लेख मौजूद हैं। मकराना से पाँच कि.मी. दूर मंगलाना (मंगलाणक) 8वीं शताब्दी में प्रतिहार कालीन सभ्यता का प्रमुख केन्द्र रहा था। ‘नागौर का राजनीतिक और सांस्कृति वैभव’ नाम की पुस्तक के अनुसार यहां के निवासी दद्दुक की पत्नी लक्ष्मी ने 8वीं शताब्दी में एक सुंदर उमा माहेश्वरपट्ट (मूर्ति) प्रतिष्ठित की थी। इसपर उकेरे गए लेख में कुछ इस प्रकार लिखा है:

 ‘‘(जयति) भुवन-कारणं स्वयं भुजंयति पुरंदर-नंदनो मुरारिजंर्जयति गिरिसुता निरूद्धदेहो, (द्ध) रित भय आप हरो हरश्च देवः।।

श्री मद्रुर्जरत्रा मण्डल आंतः पाति मंगलानक विभिर्ग्गत, नमकान्वय जेन्दुकसुत देद्दुकेन भगवत्याः कारित मंडपिका प्रसंगेन तद् भार्यया लक्ष्म्या, तिष्ठापितोन्यं उमा माहेश्वरपट्टः।।

 (इस श्लोक में भगवान शिव स्वंय द्वारा संसार के विनाशकर्ता, विपत्तियों को दूर कर प्रसंता प्रदान करने वाले, भय विपत्तियों का नाश करने वाले, मंगलकारी स्वरूप की अद्भुत मूर्ति या उमा महेश्वर पट का निर्माण करवाकर स्थापित करने का उल्लेख मिलता है)

एक अन्य शिल-लेख के अनुसार सन 1215 में मंगलाना महामण्डलेश्वर कदुवराज, पुत्र पद्यसिंह, पुत्र महाराज, पुत्र जयत्रसिंह के नाम अंकित है। इस लेख से पता चलता है, कि जिस समय दिल्ली का शासक शम्सउद्दीन ग़ौरी था, उस समय रणथम्भोर के दुर्ग पति चौहान वल्हणदेव के अधीन दधीच वंशीय महामण्डलेश्वर कदवुराज ने एक बावड़ी का निर्माण करवाया था। इस लेख के अनुसार यहां सामन्त रणथम्भौर चौहान के अधीन थे। इसके बाद सन 1282 में जब रणथम्भौर के चौहान राजा हम्मीर देव दिग्विजय यात्रा पर निकले थे तो उनके यहां तक आने के प्रमाण मिलते हैं।

श्री चारभुजानाथ की प्राचीन प्रतिमा | महेश पुजारी

श्री चारभुजानाथ मंदिर की स्थापना और सम्राट अकबर से रिश्ता

मकराना के इतिहास के बारे में चारभुजा सेवा समिति के अध्यक्ष सूर्यवीर सिंह चौहन बताते हैं, कि मकराना में मकरानवी शासकों के अलावा चौहान राजवंश का शासन भी रहा है। सन 1551 में कल्याण राव साम्भरिया (चौहान) शासक हुए थे, जो धार्मिक और प्रजा पालक थे। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार एक बार मकराना क्षेत्र में हुए युद्ध में राव जी को 84 घाव लगे थे। इस युद्ध की सूचना मिलने पर मुग़ल सम्राट अकबर, युद्धस्थल का दृश्य देखकर बोले थे, कि कल्याण राव ने बहुत कचरघान कर दिया…धन्य है राव कचरा। उसी दिन से कल्याणराव का नाम कचरा कल्याण राव पड़ गया।

‘‘धन्य धन्य दो बार कही, बहयो प्रश्न अतिशाह,

शुद्ध खिताब कचरों दिया, लौट गयों पतशाह”

(बादशाह अकबर ने कल्याण राव के युद्ध कौशल को देखकर कहा था, कि हे राव कल्याण! आप धन्य हैं, जो इस धरा, इस कुल में जन्म लिया है। युद्ध में शत्रु सैनिकों को भारी नुक़सान होने के कारण बादशाह अकबर ने राव कल्याण से कहा कि आपने हमारी सेना का कचरा कर दिया इसलिए आपको कचरा की उपाधि दी जाती है। अकबर ने कल्याण राव के घाव गिने फिर उन्हें कचरा की उपाधि और 84 गांव की जागीर देकर बादशाह दिल्ली वापस चला गया था।)

 

कुछ समय बाद राव कचरा ने पुष्कर स्नान के दौरान गऊघाट पर अपना आधा राज्य मय भूमि और अपनी पैतृक सम्पति  के, तीर्थराज पुष्कर के चरणों में अर्पण कर दिया था।

‘‘कचरा चौहान खूब था, मकवाणीपुर का, बांटा पुष्कर घाट पे, धन आधा घर का।

एक समय तीर्थराज पुष्कर के घाट पर अन्य राजा महाराजाओं और सामंतों के साथ, कल्याण राव ने स्नान किया था। उसके  बाद दान-दक्षिणा में अपने गृह राज्य मकराना की आधी ज़मीन और अपने घर का आधा धन दान कर दिया था इस अवसर पर किसी कवि ने उपरोक्त शब्द कहे थे।

बाद में इन्हीं 42 गांवों का भू-भाग मारवाड़ राज्य का परबतसर परगना बना था। राजा कल्याण राव सम्राट अकबर के साथ आगरा चले जाने के बाद कुंवर प्रेमसिंह ने मकराना में अपना राजकाज संभाला और इसी दौरान उनके कामदार हरकचंद तोषनीवाल के कहने पर क़स्बे के बीच में स्थित प्राचीन बावड़ी की खुदाई और सफ़ाई का कार्य करवाया गया ।

प्राचीन कलात्मक बावड़ी | लेखक

इस बावड़ी की खुदाई के दौरान भगवान श्री चारभुजानाथ की मूर्ति प्रकट हुई, जिसे भव्य शोभायात्रा के साथ गढ़ परिसर में रखकर  गढ़ के पास  मंदिर की नींव लगाकर कार्य शुरू किया गया। वर्तमान समय में इस मंदिर में सफ़ेद मार्बल लगाया गया है। इसमें कई प्रकार की आकृतियां उकेरी गई हैं। जलझूलनी एकादशी पर्व के अवसर पर इस मंदिर से शोभा-यात्रा और वार्षिक उत्सव के दौरान रेवाड़ी यात्रा बावड़ी तक निकाली जाती है। यह मंदिर क़स्बे का मुख्य आस्था का केंद्र है। यहां भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित है जिस पर जगत पिता ब्रह्मा, शिव, भुदेव, देवीया व अन्य अनुचर देवता की मनमोहक आकृतिया उकेरी गई हैं। इसी मंदिर में नृवराह (वराह) प्रतिमा भी स्थापित की हुई है। पुजारी दिनेश दाधीच ने बताया कि इस ज़िले की एक मात्र खण्डित मूर्ति है, जो शालिग्राम या  शिला-पत्थर से निर्मित है । जिसकी 465 वर्ष से रोज़ पांच बार पूजा होती है। इस प्रतिमा से लोगों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है।श्री चारभुजानाथ मूर्ति का प्राकट्य दिवस संवत 1615 माघ सप्तमी तथा फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को मूर्ति प्रतिष्ठा के साथ शिव पंचायत, श्री हनुमान, गरूड़ भगवान, मां अन्नपूर्णा की मूर्तियाँ भी स्थापित की गई थी। गढ़ परिसर में स्थित देवी आशापुरा माता, अल्लूदास जी महाराज का स्थल, पाबुजी,झुंझारजी,गणेश-डुगरी, शीतलामाता, तुरतफुरत माताजी मंदिर, घाट वाला बालाजी, पारानगर क्षेत्र का शिव मंदिर, प्राचीन कलात्मक बावड़ी, शाहजाही/शाहजहानी  मस्जिद, दरगाह, चारों दिशाओं में बालाजी मंदिर बने हुए हैं। मकराना के पास मोडी डूंगरी पहाड़ी की तलहटी में सुखराम बाबाजी  का आश्रम भी जन आस्था का प्रमुख केंद्र है ।बाबा ने यहां पर 24 वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। पहाड़ी पर चारों तरफ़ गोल और बेडौल पत्थर दिखाई देते हैं। यहां हरियाली अमावस के दिन विशेष पूजा अर्चना, रात्रि जागरण और मेले का आयोजन होता है। इसके अलावा ऋषि दुर्वासा का आश्रम, खुड़द इन्द्रबाईसा का मंदिर भी मुख्य धार्मिक और आस्था स्थल है। क़स्बे के पास स्थित गुणावती गांव के बीरबल (महेश दास) सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक थे। इनके सम्मान में चारभुजा मंदिर के पास बुर्ज बनाई हुई है। क़स्बे में चारभुजा सेवा समिति प्रतिवर्ष दशहरे के अवसर पर दो दिवसीय मेले का आयोजन करनाती है। इस अवसर पर समिति के स्थानीय कारीगरों के बनाए जाने वाले रावण का पुतला राज्य में दूसरे स्थान पर होता है। इस पुतले को हाथी पर सवारी के साथ बनाया जाता है। इस मेले का आयोजन सन 1963 से निरंतर किया जा रहा है। क़स्बे में अजूंमन सदर जैसी समितियां मानव और समाज सेवा में तत्पर हैं।

 

मकराना से ताजमहल तक का सफ़र

मकराना के पास गुणावती (गुणावाती) से 1061 हिजरी, शाहजहां 1089 हिजरी और 7 जून 1685, औरंगजेब शासनकाल के दो शिला-लेख मिले हैं। पहाड़ी कुआ ख़ानों के पास स्थित एक मस्जिद के  शिला-लेख के अनुसार ताजमहल बनाने के लिए बादशाह शाहजहां ने मकराना के राजा से संगमरमर  हाथियों और  भैंसागाड़ियों के माध्यम से आगरा मंगवाया था। इसका बकायदा स्थानीय शुल्क भी जमा किया गया था। ताजमहल का नक़्शा अरब के वास्तुकार ईसा अफ़िनदी से बनवाया गया था। इसी वास्तुकार ने ताजमहल निर्माण के लिए नरम और नमी गुण वाले संगमरमर को लगाने की सलाह बादशाह को दी थी। वास्तुकार  ने मकराना के इस पत्थर को उच्च कोटि का भी बताया था। इसपर बादशाह ने अपने दरबारी पहाड़खा को मकराना भेजा था ।

आगे चलकर, सन 1751 में मकराना का जोधपुर स्टेट में विलय कर दिया गया. इस तरह मकराना मारवाड़ की नौवीं कूट से जुड़ गया और फिर सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, ये नवगठित राजस्थान का हिस्सा बन गया।

मकराना के संगमरमर और राजस्थान से निकलने वाले विभिन्न खनिज पदार्थ अपनी विशिष्टता के कारण विश्व में अपनी ख़ास पहचान रखते हैं। राज्य से निकलने वाले  खनिज देश-दुनिया में अपनी अग्रणी भूमिका निभा रहे है। इनमें से संगमरमर के लिए नागौर ज़िले के मकराना का मार्बल विश्वस्तर का माना जाता है। इस क़स्बे में मध्यकाल से ही संगमरमर निकला जाता रहा है। यहां पाया जाने वाला यह पत्थर सफ़ेद, गुलाबी, चित्तिदार रंगों में उपलब्ध है। मगर अपनी सफ़ेदी के लिए प्रसिद्ध संगमरमर को सन 2019 में, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ जिओलॉजिकल साइंस (आईयूजीएस), की एग्ज़ीक्यूटिव कमेटी ने, मकराना मार्बल को ग्लोबल हैरिटेज के रूप में मान्यता दे दी। यह फ़ैसला, भारतीय शोध दल के प्रस्ताव के बाद लिया गया। इसी कारण यहां के मार्बल को वैश्विक स्तर पर चमक मिली है। साहित्यकार प्रकाश प्रजापत बताते हैं, कि मकराना की पाताल तोड़ खदानों से निकलकर सैकड़ों इमारतों में जड़ा संगमरमर वर्षों से विश्वभर में अपनी चमक फैला रहा है। तीन सौ फ़ुट से भी अधिक गहरी खाने धरती को चीर कर क्रेन और आधुनिक मशीनों से निकाली जाती हैं। इसी संगमरमर से संसार के सात अजूबों में शामिल आगरा का ताजमहल, अबू धाबी की मशहूर शेख ज़यैद मस्जिद, कोलकाता का विकटोरिया मेमोरियल, दिलवाड़ा जैन मंदिर, श्रीकृष्ण मंदिर मथुरा, वैष्णों देवी मंदिर, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, अक्षरधाम मंदिर, इस्कॉन मंदिर, श्रीनगर की मस्जिद,  अयोध्या का निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर , स्वामी नारायण और बिरला मंदिर सहित देश-विदेश की अनेक ऐतिहासिक धरोहरों में अपनी चमक बिखेर रहा है।

कलात्मक डिजाइन | प्रकाश प्रजापत

यही एक मात्र ऐसा पत्थर है जो,जितना पुराना होता जाता है,उसकी चमक बढती जाती है। यह पत्थर भूगर्भीय दृष्टि से कैब्रियन काल के पहले चूना पत्थर की, कायांतरित चट्टानों से बना है। इस मार्बल में कैल्शियम की मात्रा अधिक होने से यह गुणवक्ता और टिकाऊपन में अन्य सभी मार्बल से श्रेष्ठ माना जाता है। यहां से निकलने वाले अलबेटा सफ़ेद मार्बल को उत्तम श्रेणी का माना गया है। यह कैल्साइट का अकूल स्त्रोत है। यह विश्व की सबसे उत्कृष्ट श्रेणी मानी जाती है।

इस क़स्बे में सबसे पहले मार्टिन बर्न एण्ड कम्पनी ने सन 1911 में संगमरमर की खुदाई और चिनाई के लिए मशीनों का प्रयोग किया था। जिसके कारण इस छोटे से क़स्बे के राजस्व के साथ-साथ देश-विदेश में एक नई पहचान बनी और सैकड़ों लोगों को रोजगार मिलने लगा। सन 1939 में इटली से आने वाले संगमरमर पत्थर से भी मकराना के इस पत्थर की स्पर्धा भी हुई। मगर सन 1952-53 में विदेशी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध के बाद इस उद्योग को दोबारा संजीवनी मिली और यहां के कारोबार का विस्तार होता गया। सौ फ़ीसदी शुद्धता, मज़बूती और सुंदरता के कारण देश-विदेश में प्रसिद्धि पा चुके इस मकराना के भाटा से भव्य भवनों के अलावा मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारा, जिनालय, स्मारक, छतरियां, देवी-देवताओं की सहित अन्य प्रतिमाएं तथा घरों में दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी बनाई जाती हैं। मकराना से निकलने वाले संगमरमर के छोटे से छोटे टुकड़ों का भी यहां के हुनरमंद कारीगर भरपूर उपयोग करते हुए कई कलात्मक वस्तुएं बना रहे हैं, जिनकी मांग दिन प्रतिदिन बढ रही है। जिससे घर-घर में कुटीर उद्योगों सा नज़ारा देखा जा एकता है। ताजमहल जैसे अनेक नायाब तोहफ़े देने वाल इस क़स्बे के संगमरमर में क़ुदरत ने गुणों का ख़ज़ाना बक्शा है। प्रकृति ने मकराना को विशेष सौग़ात प्रदान की है, जिससे इस पत्थर पर पानी, धूप, हवा और जलवायु का भी कोई असर नहीं पड़ता है।

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