प्राकृतिक सौंदर्य और पुरातत्त्व का संगम: किनसरिया

प्राकृतिक सौंदर्य और पुरातत्त्व का संगम: किनसरिया

‘‘जो बनेर ज्वालामुखी, सांभर की समराय,
दिल्ली विराजे कालका, किनसरिया कैवाय,
गढ़ बावतरा महेर करि, दहिया वंश पूजाय”

हमारे देश में समाज अनेक कुल एवं वर्गो में विभाजित है। प्रत्येक कुल की आस्था अपनी देवी-शक्तियों में रही है, जो उन्हें आत्मविश्वास जगाने के साथ ही हर क्षण हौसला प्रदान करती है। भारत में कुलदेवी की अराधना शक्ति पूजा के रूप में करने की परम्परा प्राचीन काल से रही है। वेदों में भी मातृशक्तियों का विवरण आस्था को बढ़ाता है। देश के विभिन्न भागों में शक्तिपीठ स्थापित हैं। राजस्थान में भी कोई ऐसा गांव नहीं है, जहां देवी का पूजा स्थल न हो। एक ऐसा ही आस्था का स्थल नागौर ज़िले के किनसरिया ग्राम में श्री कैवाय माता के मंदिर के रूप में स्थित है। आईये, आज हम यहां के प्रसिद्ध राजवंश और ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से रूबरू होते हैं।

किनसरिया धाम

किनसारिया, नागौर ज़िले में परबतसर तहसील मुख्यालय से मात्र पांच कि.मी. दूर उत्तर-पश्चिम अरावली पहाड़ियों की श्रृंखलाओं के बीच में स्थित है। इस गांव का प्राचीन नाम कनकनगरी और सिणहड़िये भी रहा था।

यहां दहिया वंश के तत्कालीन परबतसर क्षेत्र के राणा चच्च के बनवाये हुये मंदिर में दहिमा वंश की कुल देवी कैवाय माता की मूर्ति विराजमान है। अरावली पहाड़ी की ऊँची चोटी पर स्थित यह देवी मंदिर जन-जन की आस्था का प्रमुख केन्द्र है।

इस गांव में कई अन्य धार्मिक, पर्यटक एवं पुरातत्व महत्त्व के स्थल मौजद हैं। जिनमें, गांव का मुख्य प्रवेश- द्वार, प्राचीन बावड़ी, केल पूज्य देवी का मंदिर, अटलंगा भैरव, नाग बाबा, देवजी का स्थल, सात पहाड़ों के संगम स्थित बांध के पास करमाबाई की तपस्या स्थली करमा कुड़ी (कुई) के अलावा गुंसाई महाराज का मंदिर, धोल्या चबूतरा, भैंसातोड़ स्थल, शिवालय, शेरनी की गुफा तथा गोरावड़ा कुएं के पास पुरातन समय के कई शिलालेख युक्त मूर्तियां हैं।

अरावली पहाड़ी का दृश्य | लेखक

वहीं कुछ ही दूरी पर खिदरपुरा का प्राचीन देवालय है। पहाड़ी के दोनों ओर सैकड़ों बीघा ज़मीन पर फैले अभ्यारण का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। यहां वृक्ष काटना और शिकार पर पूरी तरह रोक होने के कारण, विभिन्न वन्य जीव आज़ादी से घूमते-फिरते दिखाई देते हैं और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहां मौजूद पुरातत्व महत्त्व की सामग्री पर मुहता नैणसी, डा. गोपीनाथ शर्मा, डा. सुखवीर सिंह गहलोत, डा. पेमाराम और मोहनलाल गुप्ता सहित कई साहित्यकारों ने लिखा है।

 

दहिया वंश

प्राचीन राजवंशों में दहियों का अपना योगदान और संघर्षमय इतिहास रहा है। राम सिंह दहिया बताते हैं, कि दहिया शासकों-योद्धाओं ने अपनी ताक़त के बल पर कई जगहों पर अपना आधिपत्य क़ायम कर गौरवमय इतिहास रचा और समय के थपेड़ों से जूझते हुए अपने वंश का नाम रौशन किया। हालांकि उनके इतिहास के बारे में ज़्यादातर सामग्री प्राकृतिक प्रकोप और युद्धों के कारण नष्ट हो गई है। डा. के.सी. जैन के अनुसार दहियों ने मारोठ क्षेत्र पर लगभग तीन सौ वर्षों तक चौहानों के अधीन रहकर राज किया था। इनमें विल्हण दहिया सबसे प्रतापी शासक हुआ था, उसी के नाम से यह क्षेत्र विल्हणवाटी के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत के विभिन्न लेखों में इस क्षत्रिय वंश को दधिचि, दधिचिक, दमिक या दहिमक भी लिखा गया है। इन्होंने जांगलू के अलावा जालोर, बावतरागढ़, मारोठ, परबतसर, मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्र के अलावा साहिलगढ़ (अफगानिस्तान) तक अपना प्रभुत्व बनाये रखा, इसलिए इन्हें गढ़पति की उपमा से भी नवाज़ा गया था। मारवाड़ राज्य में, सन 1811 में की गई जनगणना में दहिया राजवंश को प्रथम श्रेणी का दर्जा भी दिया गया था।

कैवाय माता मंदिर

किनसरिया गांव से कुछ ही दूरी पर पहाड़ी की तलहटी में मंदिर के प्रवेश-द्वार से मंदिर तक पहुंचने का सर्पिला मार्ग बना हुआ है। जिसमें लगभग 1141 सीढ़ियाँ हैं। इस बीच पहाड़ी पर कई प्रकार की दुलर्भ औषधि जड़ी-बूटियां भी दिखाई देती हैं। सावन के मास में बादलों की लुका-छिपी और मनमोहक नज़ारों से हर कोई आकर्षित हो जाता है।

मंदिर तक बनी सीढ़ियां | लेखक

पहाड़ी की मुख्य चोटी पर बने प्राचीन मंदिर में देवी कैवाय (ब्राह्मणी) माता की प्राचीन मूर्ति प्रतिष्ठित की हुई है। पुजारी ओमप्रकाश सेवग बताते हैं, कि सन 1712 में जोधपुर मारवाड़ के महाराजा अजीत सिंह ने चामुण्डा माता (रूद्राणी) की एक मूर्ति स्थापित करवाई थी। मंदिर का मुख्य गर्भगृह चतुर्भुजाकार है। छत दो भागों में बंटी हुई है, जिसके प्रत्येक भाग में लगे पत्थर त्रिभुजाकार हैं। मंदिर परिसर में चौंसठ योगिनी और बावन भैरव विराजमान हैं।

मंदिर के गर्भगृह में मुख्य देवी प्रतिमाए | लेखक

एक मूर्ति चारभुजानाथ की है, जो मीराबाई के समय की मानी गई है। मंदिर की मुख्य कैवाय माता अष्टभुजाधारी मूर्ति में ढ़ाल, खड़ग, कमान, गदा धारण किए हुए है। दो मुख्य भुजाओं में एक त्रिशूल से महिषासुर का वध करते हुए तो दूसरी भुजा को भैंसे पर सवारी कर रहे व्यक्ति की चोटी को पकड़े हुए दर्शाया गया है। देवी के चरणों में सिंह और भैंसे को उकेरा गया है। स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह मूर्ति शिल्प और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है। मंदिर परिक्रमा में अनेक शिलालेख, देवलियां मौजूद हैं।

दो वीरों की देवलीयां | लेखक

वहीं पोल में हिंगलाज माता तथा बाहर काले और गोरे भैरव की मूर्तिया स्थापित ही हुई हैं। विभिन्न जाति, गौत्र के लोग कैवाय माता को अपनी कुलदेवी अथवा इष्टदेवी मानकर पूजा-पाठ, जात-झड़ुला चठाकर दीर्घायु होने की कामना करने देश-विदेश से यहां आते हैं।

चारभुजानाथ की मूर्ति | लेखक

इस मंदिर में पूजा और धार्मिक आयोजन संवत् 1622 से सेवग शाकलद्वीपीय ब्राह्मण पुजारी परिवार द्वारा किया जा रहा है। यहां आस-पास के ग्रामीण दूध, दही, घी और अनाज चढ़ाते हैं। परम्परानुसार मंदिर के पास होली हुड़ा पत्थर पर होलिका दहन होने के बाद ही आस-पास गांवों में ज्वाला देखकर होली दहन करते हैं।

ऐतिहासिक स्त्रोत

अनगिनत शिलालेख वाली प्रतिमाओं और स्तम्भों से यहां के प्राचीन वैभव और इतिहास से परिचय होता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण राणा चच्च का अभिलेख है। जिसमें सन 999 की वैशाख सुदि के दिन देवी कैवाय माता की मूर्ति स्थापित हुई थी। यह लेख 23 पंक्तियों और 26 श्लोकों में उकेरा गया है।

परिक्रमा में स्थित शिलालेख | लेखक

लेख के अनुसार यह मूर्ति अम्बिका माता के मंदिर के रूप में स्थापित की गई थी। इसमें लिपि उत्तरी वर्णमाला की है और भाषा संस्कृत है। पंक्ति 22 को छोड़कर सम्पूर्ण लेख पद्यमय है। इस लेख में देवियों की स्तुति के साथ चाहमान (चौहान) वंश के शासक वाक्पतिरातज, सिंहराज, दुर्लभराज की उपलब्धियों का वर्णन किया हुआ है। लेख में दधीचि वंश के मेघनाद, मासटा देवी, वेरी सिंह, दुन्दा तथा राणा चच्च का उल्लेख किया हुआ है।

शिलालेख | लेखक

इसके लेखक गौड़ कायस्थ महादेव थे, जिनके पिता कल्या कवि थे। दूसरे शिलालेखों के बारे में डा. विक्रमसिंह भाटी बताते हैं, कि इस क्षेत्र में दहियों का लम्बे समय तक आधिपत्य रहने के लेख हैं, जिनमें संवत् 1220, 1310, 1354, 1388, 1526 से 1554 तक की तिथि अंकित है। इनमें उदलपुत्र कान्ह, जयधन, मलसीहो, कित्र्रसीह, रानी नैला देवी, जगधर, अनेसिंह, लाखा दहिया सहित अन्य राजवंश के लेख भी मौजूद हैं। इसीलिये पुरातत्त्व की दृष्टि से भी यहां का अलग ही महत्त्व रहा है।

मंदिर कैवाय माता रो, परबतसर रे माँय, किनसरियों प्रसिद्ध हुयो, चार खूंट रे माँय।

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