वाराणसी का अद्भुत भारत माता मंदिर

वाराणसी का अद्भुत भारत माता मंदिर

वाराणसी का ख़्याल आते ही कई घाटों की तस्वीर ज़हन में कौंध जाती है और कानों में मंदिरों की आरती और शंखनाद की आवाज़ गूंजने लगती हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि इस शहर में मौजूद कई मंदिरों में एक ऐसा भी अनोखा मंदिर है जो भारत माता को समर्पित है? ये भारत में अपने आप में एक अनोखा मंदिर है, जो बेहद ख़ास है।

इसके पहले कि हम इस मंदिर के बारे में जाने, हमें ये जानना ज़रुरी है कि ‘भारत माता’ का विचार आया कहाँ से। ढ़ाई हज़ार साल से भी पुराने वेदिक पुराणों में पूरे भारत उप-महाद्वीप का ‘भारतवर्ष’ या ‘भारत भूमि’ के नाम से उल्लेख मिलता है। लेकिन कई सदियों के बाद, सन 1870 के दशक में, ख़ासकर सन 1857 के विद्रोह के बाद, भारत माता का विचार लोकप्रिय हुआ। उणाबिंसा पुराण (सन 1866, लेखक अज्ञात), के.सी. बंधोपाध्याय के नाटक भारत माता ( सन 1873) और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ (सन 1880) से “भारत माता” के विचार को बल मिला।

भारत माता शब्द की लोकप्रियता से जहां इसके अस्तित्व की अवधारणा मज़बूत हुई वहीं अवनींद्र नाथ टैगोर ने अपने चित्र में इसे एक मूर्त रुप दिया। इस चित्र में भारत माता को चार हाथों वाली एक हिंदू देवी के रुप में दिखाया गया है जिसने भगवा परिधान पहन रखा है, एक हाथ में ग्रंथ हैं, एक हाथ में धान की बालियां, एक हाथ में माला और एक हाथ में सफ़ेद कपड़ा है। भारत माता की इस छवि से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने में मदद मिली थी। भारत के राष्ट्रीय-गीत वंदे मातरम में भारत माता को मां दुर्गा के नाम से संबोधित किया गया है। श्री अरविंदो घोष ने अपने भजन में भारत माता को दुर्गा देवी के नाम से संबोधित किया था। वह भारत माता को नवविधा-भक्ति के योग्य मानते थे। इससे हमें पता चलता है कि कैसे 1900 के आरंभिक वर्षों तक मां दुर्गा के रुप में भारत की छवि बन गई थी।

कनवास पर टैगोर के चित्रण के बावजूद भारत माता का विचारलोकप्रिय तो था मगर निराकार ही था। भारतवासियों के मन में भारत माता की छवि को चस्पा करने के लिए इसके और ठोस चित्रण की ज़रुरत थी। इसके लिए भारत के प्राचीन नगर वाराणसी में एक मंदिर बनाया गया जो भारत माता को समर्पित था। वाराणसी गंगा के किनारे मंदिरों और घाटों के लिए जाना जाता है। इस मंदिर को शिव प्रसाद गुप्ता ने बनवाया था, जो राजनीतिक विचारक, परोपरकारी और स्वतंत्रता सैनानी थे। शिव प्रसाद गुप्ता का जन्म वाराणसी में सन 1883 में एक अमीर ज़मींदार परिवार में हुआ था। उन्होंने इलाहबाद विश्विद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की थी जहां आचार्य नरेंद्र देव और गोविंद वल्लभ पंत जैसे विचारक और राष्ट्रीय नेता उनके सहपाठी थे। लोकमान्य तिलक से प्रेरित होकर वह इंडियन नैशनल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। वह स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने लगे थे जिसकी वजह से सिंगापुर में अंग्रेज़ पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में बंद कर दिया थ जहां उन्हें ख़ूब यातनाएं भी दी गईं।

शिव प्रसाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और वाराणसी में राष्ट्रीय आंदोलन के नेता के रुप में प्रसिद्ध हो गए और लोगों ने सम्मान स्वरुप उन्हें राष्ट्र रत्न का ख़िताब दिया। राष्ट्र रत्न शिव प्रसाद अपने दान- पुण्य के कामों के लिए भी जाने जाते थे। मदन मोहन मालवीय के कहने पर, सन 1916 में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए एक लाख एक हज़ार रुपए दान किए थे।

शिव प्रसाद गुप्ता महात्मा गांधी के क़रीबी थे और वाराणसी में उनके घर में ही पहली बार, महात्मा गांधी के “असहयोग आंदोलन” के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी। भारतीय ब्रह्मविद्यावादी भगवान दास के साथ मिलकर शिव प्रसाद ने पढ़े-लिखे युवाओं को देश की सेवा के लिए तैयार करने के लिए “काशी विद्यापीठ” की नींव डाली थी। ये वाराणसी छावनी रेल्वे स्टेशन से दो कि.मी. दूर स्थित है जहां बनारस हिंदू विश्विद्यालय है। इसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने सन 1921 में किया था और आज ये राज्य का विश्वविद्यालय है। सन 1995 में इसका नाम बदलकर “महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ” कर दिया गया था और यही वह जगह है जहां आप भरत माता मंदिर देख सकते हैं।

शिव प्रसाद गुप्ता का मानना था कि भारत में पहले से ही देवी-देवताओं के कई मंदिर हैं लेकिन ऐसा कोई मंदिर नहीं है जहां भारत माता की पूजा होती हो। इसके बाद उन्होंने काशी विद्यापीठ परिसर के पास भारत माता मंदिर बनवाया। मंदिर निर्माण के लिए वाराणसी में काशी विद्यापीठ परिसर में एक स्थान चुना गया और मंदिर का डिज़ाइन भी ख़ुद शिव प्रसाद ने तैयार किया था। मंदिर निर्माण का कार्य सन 1908 में शुरु हुआ जो सन 1924 में पूरा हुआ। महात्मा गांधी ने 25 अक्टूबर सन 1936 में इसका उद्घाटन किया। 20वीं सदी के हिंदी कवि मैथली शरण गुप्त, जिन्हें राष्ट्र कवि भी कहा जाता है, ने मंदिर के उद्घाटन के मौक़े पर “भारत माता का मंदिर यहां” शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो इमारत के एक बोर्ड पर लिखी हुई है।

दिलचस्प बात ये है कि जहां अन्य मंदिरों में देवी-देवताओं की मूर्तियां होती हैं, वहीं इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है। इसके फ़र्श पर अविभाजित भारत का एक बड़ा नक़्शा बना हुआ है। नक़्शे की डिज़ाइन अद्वितीय है। भारत माता सभी धार्मिक देवी-देवताओं, स्वतंत्रता सैनानियों और नेताओं को दर्शाती है।

नक़्शा अविभाजित भारत का है क्योंकि तब देश का विभाजन नहीं हुआ था। भवन के बीच अविभाजित भारत के नक़्शे में अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बलूचिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा (म्यंमार) और सीलोन (श्रीलंका) शामिल हैं। नक़्शे के लिए राजस्थान के मकराना से संगमरमर मंगवाया गया था। फ़र्श में धंसे हुए नक़्शे को भवन की पहली मंज़िल के चक्करदार गलियारे से देखा जा सकता है।

नक़्शे में 450 पर्वत श्रंखलाएं और चोटियां, उप-महाद्वीप के मैदानी इलाक़े और उप-माहाद्वीप की विभिन्न भौगोलिक स्थितियां हैं। इस नक़्शे में संगमरमर की 762 सिल्लियों का प्रयोग किया है और प्रत्येक सिल्ली 11×11 इंच की है। इसमें माउंट एवरेस्ट और के-टू पर्वतों को देखा जा सकता है जो उप-महाद्वीप की दो सबसे ऊंची चोटियां हैं। नक़्शे में उप-महाद्वीप के आस पास समुंदरी सतह पर छोटे पर्वत और छोटे-छोटे द्वीप भी आसानी से देखे जा सकते हैं। गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर नक़्शे में बने जलाशयों में पानी भरा जाता है और बाक़ी हिस्सों को फूलों से सजाया जाता है। भवन के एक कोने पर लगे फ़लक पर उन तीस मज़दूरों और 25 मिस्त्रियों के नाम खुदे हुए हैं जो मंदिर निर्माण में शामिल थे। नक़्शे में एक इंच क्षेत्र, दरअसल 6.40 मील क्षेत्र को दर्शाता है और विभिन्न पर्वतों को उनकी अलग अलग ऊंचाई के हिसाब से, साफ़ तौर पर देखा जा सकता है।

मंदिर की वास्तुकला शैली सन 1900 के दशक के मंदिरों की पारंपरिक डिज़ाइन से मिलती जुलती है। दो मंज़िला मंदिर का आकार चौकोर है जिसके सामने भू-दृश्य बने हुए हैं। मंदिर का कोई शिखर नहीं है जो अमूमन हिंदू मंदिरों में देखने को मिलता है। इस मंदिर की छत सपाट है। इसके अलावा मंदिर के अंदर पांच स्तंभ हैं जो सृष्टि के पांच तत्वों-अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल और आकाश के प्रतीक हैं। ये पांचों एक बिंदु पर आकर मिल जाते हैं जो दर्शाता है कि सभी तत्व अंतत: परमात्मा से मिल जाते हैं। चूंकि ये मंदिर काशी विद्यापीठ परिसर का हिस्सा है, इसलिए पहले इसका रखरखाव विश्वविद्यालय प्रशासन करता था। इस वजह से यहां आने वाले लोगों में अधिकतर छात्र हुआ करते थे। अब ये केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय की “हृदय परियोजना” का हिस्सा बन चुका है।

भारत माता मंदिर की विशिष्टता सराहनीय है। ये वो मंदिर है जिसका निर्माण आज़ादी और भारत विभाजन के पहले हुआ था। इसमें देवी या देवता की कोई पारंपरिक मूर्ति नहीं है लेकिन इसमें भारत माता का वास्तविक नक़्शा है जो यहां आने वाले लोगों में देश भक्ति की भावना का संचार करता है।

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