पालकाप्य मुनि रचित हस्त्य-आयुर्वेद: हाथियों के उपचार का प्राचीनतम ग्रंथ

पालकाप्य मुनि रचित हस्त्य-आयुर्वेद: हाथियों के उपचार का प्राचीनतम ग्रंथ

भारत के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, और धार्मिक जीवन में हाथियों का बड़ा महत्व रहा है। पुरातात्त्विक, सामरिक, यानी कि युद्ध सबंधी और सामान्य जन-जीवन में हाथियों में भी हाथियों को महत्वपूर्ण माना गया है। हाथियों को हस्ति, गज या मातंग के नामों से भी पुकारा जाता रहा है। हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में गज अर्थात हाथी की महत्ता इतनी है, कि हाथी आनन (मुख) होने के कारण सिद्धिविनायक गणपति ‘गजानन’ भी कहलाते हैं। वहीं सुख और समृद्धि की देवी के रूप में मान्य लक्ष्मी के आठ रूपों में एक रूप ‘गज लक्ष्मी’ का है। पौराणिक समुद्र मंथन से निकले नौ रत्नों में एक रत्न ऐरावत हाथी है, जो भगवान इन्द्र की सवारी माना जाता है।

गजलक्ष्मी, तंजावुर पेंटिंग

अत्यंत बलशाली और शानदार चौपाये हाथी को रिवायती रूप से शाही ठाठ-बाट का प्रतीक और राजकीय समारोहों की शोभा माना गया है। शिकार अथवा युद्ध में जाने के लिये यह राजाओं-महाराजाओं की पसंदीदा सवारी हुआ करता था, वहीं भारी सामान को या युद्ध-सामग्री को ढ़ोने में इनका कोई मुकाबला नहीं। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें ‘वज्र'(बिजली) की संज्ञा देते हुए कहा गया है, कि एक हाथी में छह  हजार घोड़ों को परास्त करने की ताक़त होती है।

दशहरा के अवसर पर हर साल मैसूर में निकलती है हाथियों की प्रसिद्ध शोभायात्रा

हाथियों के महत्व के कारण  ‘गरुड़ पुराण’ में उनके बीमार पड़ जाने पर तुरंत स्वस्थ होने के लिये ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथ सोने के गहने और गाय का दान करने की बात कही गई है। ‘ब्रह्म पुराण’ में हाथियों के इलाज करनेवाले ‘गज-वैद्यों’ के उल्लेख मिलते हैं।

दिलचस्प बात यह है, कि प्राचीन काल में जिस तरह से हाथियों की सजावजट के सामने मानव-श्रृंगार बिल्कुल फीका था। महावत ही हाथियों की देखभाल करते थे, रोज़ाना पौष्टिक भोजन देते थे, उनकी मालिश करते थे, और विशेष अवसरों पर उन्हें सजाने की ज़िम्मेदारी भी महावतों की होती थी। उनके सिर और सूंढ पर आकर्षक रंग-बिरंगे डिज़ाइन बनाने के बाद दोनों बाजूओं पर घंटे लटकाये जाते थे। गले में गोलाकार पान-पत्तियां और तारों  के आकार की बेशक़ीमती ‘वृत्त-नक्षत्र मालिकाओं’, मोतियों की माला और फूलों की लड़ियों सहित पैरों में बंधी-करधनी तथा पीठ पर सुनहरी पालकी रखकर सजाया जाता था। यही कारण है, कि हमारी प्राचीन मूर्तिकला में हाथियों की बेहतरीन मुद्रायें देखने को मिलती हैं।

मूर्तिकला में हाथी, 11 वीं शताब्दी, दक्षिण। श्रीकृष्ण जुगनू

क्योंकि हाथी, मनुष्य के लिए बेहद उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है, इसीलिये भारत के प्राचीन चिकित्सा-विज्ञान ‘आयुर्वेद’ में इंसानी चिकित्सा के साथ पशु चिकित्सा के अंतर्गत हाथियों के इलाज एक विशेष हिस्सा है। हाथियों की चिकित्सा संबंधी शास्त्र ‘हस्त्यायुर्वेद’ अर्थात हस्ति-आयुर्वेद कहलाता है। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है, कि हाथियों के इलाज की इस प्राचीन पद्धति की शुरुआत अपने देश से ही हुई है।

हाथियों की चिकित्सा का सबसे पुराना ग्रंथ ‘हस्त्यायुर्वेद’ को माना जाता है, जिसकी रचना पालकाप्य मुनि ने संस्कृत में की थी। विद्वानों के मतानुसार ‘हस्त्यायुर्वेद’ की रचना पुराणों (200 ई.पू. से 500 ई.पू.) से भी पहले हुई थी। अग्नि-पुराण सहित मत्स्य-पुराण और रामायण में पालकाप्य के उल्लेख मिलते हैं। के.कृष्णस्वामी (11 वीं शताब्दी) ने अपने ‘अमर कोश’ में पालकाप्य मुनि द्वारा रचित ‘हस्त्यायुर्वेद’ का संदर्भ लिया है। पालकाप्य अंग जनपद (बिहार के भागलपुर जिला सहित मुंगेर क्षेत्र) की राजधानी चम्पा (भागलपुर मुख्यालय से 3-4 कि.मी. दूर) के निवासी थे।

स्त्यायुर्वेद का मुख-पृष्ट

चार खंडों वाली ‘हस्त्यायुर्वेद’ एक वृहत ग्रंथ है, जिसमें 171 अध्याय और 12 हज़ार श्लोक हैं, जिसमें हाथियों की शरीर-रचना, शरीर क्रिया और रोग-विज्ञान, शल्य क्रिया सहित इनकी दवायें, खाना-पीना, और पालन-पोषण के बारे में विस्तृत जानकारी है। यह ग्रंथ पालकाव्य मुनि और अंग के राजा रोमपाद के बीच बातचीत के रूप में है।

ऐसे तो हाथियों की चिकित्सा के संबंध में ऋषि वृहस्पति ने ‘गजलक्षण’, नीलकंठ ने ‘मातंग लीला’ और हेमाद्रि ने ‘गज दर्पण’ जैसे ग्रंथों की रचना की है, लेकिन इस क्षेत्र में पालकाप्य के ‘हस्त्यायुर्वेद’ को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ‘अग्निपुराण’ में पालकप्य को हस्ति-आयुर्वेद का प्रतिपादक कहा गया है।

जयपुर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद के महेश चन्द्र शर्मा बताते हैं, कि यह दुर्लभ ग्रंथ हस्ति-आयुर्वेद पर उपलब्ध एकमात्र मुद्रित संहिता है, जिसका सम्पादन संस्कृत के विद्वान पंडित शिवदत्त शर्मा ने किया है। इसे सन 1894 में आनन्दाश्रम प्रेस में छापा गया था। इसकी एक प्रति तंजावुर के राजा सरफ़ोजी महल लाईब्रेरी में मौजूद है। ‘महाराणा प्रताप का युग’ शीर्षक किताब के लेखक श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं, कि महाराणा मेवाड़ फाऊण्डेशन ने सन 1745 में ‘हस्त्यायुर्वेद’ का अनुवाद करवाया था।

पालकाप्य मुनि अंग की राजधानी चम्पा के निवासी थे, इस बात की पुष्टि इतिहासकार एन.एल. डे ने भी बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित अपने ‘नोट्स ऑन एनशिएंट अंग ऑर डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ भागलपुर’ (1914) शीर्षक लेख में की है। पालकाप्य, अंग के राजा रोमपाद के समकालीन थे। ‘रामायण’ के अनुसार, रोमपाद और अयोध्या नरेश दशरथ के भी मित्र थे।

प्राचीन अंगभूमि में हाथियों के बड़ी संख्या में उपलब्ध होने की चर्चा इतिहासकार एन.एल. डे ने भी की है। एल.एन.डे बताते हैं, कि सुगंधित चम्पक वृक्षों से भरी इसकी राजधानी चम्पा के अधिकांश भागों में घने जंगल हुआ करते थे, जहाँ पाये जानेवाले हाथी बड़े मशहूर थे। चाणक्य ने भी अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में भी कलिंग और कुरूष के साथ अंग के हाथियों को पूरे भारत में श्रेष्ठ बताया है।

‘हस्त्यायुर्वेद’ के विषय-वस्तु की बात करें, तो इसमें हाथियों के उपचार संबंधी विस्तृत व्याख्या के साथ इस ग्रंथ की रचना की पृष्ठभूमि, इसके रचनाकार पालकाप्य के जन्म, पृथ्वी पर हाथियों की उत्पत्ति आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। हस्ति-शास्त्र और भारतीय इतिहास-संस्कृति की जानकार गीथा एन. ने अपनी किताब ‘एलिफ़ेंटॉलॉजी एंड इट्स एनशिएंट संस्कृत सोर्सेज़’ के हस्त्यायुर्वेद (हस्ति-आयुर्वेद) शीर्षक अध्याय में इन इसकी रोचक चर्चा की है।

हाथियों की उत्पत्ति के बारे में ‘हस्त्यायुर्वेद’ में कथा है, कि उनका जन्म श्रृष्टकर्ता ब्रह्मा की हथेलियों से तब हुआ था, जब उन्होंने अपने हाथों में  ब्रह्मांड-पिंड लेकर मंत्रोच्चार किया था। पहले हाथी आसमान में उड़ सकते थे। एक बार आकाश में उड़ते समय उनकी एक भूल से क्रोधित होकर ऋषि दीर्घतपा ने उन्हें पृथ्वीलोक में जाकर मनुष्य का वाहन बनने का श्राप दे दिया। इससे चिंतित होकर दिग्गजों ने जब ब्रह्मा से कहा, कि पृथ्वी पर जाकर दूषित भोजन करने से हाथी संक्रामक बीमारियों के शिकार हो सकते हैं, तो इस पर ब्रह्मा ने आश्वासन दिया, कि पृथ्वी पर एक ऐसा ऋषि जन्म लेगा जिसका संबंध हाथियों से होगा और वह उनकी रक्षा करेगा।

इसी तरह ‘हस्त्यायुर्वेद’ में पालकाप्य मुनि के जन्म के बारे में भी बताया गया है, कि एक बार ब्रह्मा के वरदान से गुणावती नाम की एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया, जो मातंग ऋषि के आश्रम में रहने लगी। लेकिन उसके अबोध होने के बावजूद इन्द्र के श्राप से वह हथिनी बन गयी। लेकिन बाद में इन्द्र के वरदान से समज्ञान नाम के एक ऋषि से पुत्र प्राप्ति होने के बाद वह इस श्राप से मुक्त हो गई।

जंगल में हाथियों के बीच पलने के कारण गुणावती के इस शिशु का नाम ‘पाल’ पड़ गया, और समज्ञान ऋषि का गोत्र ‘कप्य’ होने के कारण उनके नाम के साथ ‘कप्य’ जुड़ गया। इस तरह वह शिशु आगे चलकर ‘पालकाप्य’  (पाल+कप्य) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस ग्रंथ में ‘हस्त्यायुर्वेद’ रचना के पीछे की कहानी में बताया गया है, कि एक बार जब हाथियों के उत्पात से अंग की राजधानी चम्पा के बाग़-बगीचे और खेत-खलिहान नष्ट हो गये, तो राजा रोमपाद ने गुस्से में आकर उन हाथियों को बंदी बना लिया। जब बात की जानकारी हाथियों के संरक्षक पालकप्य को हुई, तो उन्होंने वहां आकर बंदी हाथियों के जख़्मों का इलाज करके उन्हें दोबारा स्वस्थ बनाया।

दरअसल, राजा रोमपाद ने मुनि पालकाप्य की इस क़ाबलियत से प्रभावित होकर पहले तो उनसे उनका परिचय जानना चाहा था। फिर उनसे अपनी प्रजा के उपयोग के लिये जंगली हाथियों को पालतू बनाने के गुर जानने चाहे थे। इसी सिलसिले में पालकाप्य मुनि और राजा रोमपाद के बीच हुई बातचीत ही ‘हस्त्यायुर्वेद’ ग्रंथ की रचना का आधार बन गई।

हाथियों की चिकित्सा के बारे में यह ग्रंथ का आकार काफ़ी बड़ा है, जो 4 ‘स्थानों’ (खंडों) और 160 अध्यायों में बंटा हुआ है। इसके पहले खंड का नाम ‘महारोग-स्थान’ है, जिसके 18 अध्यायों में बुखार, सिर संबंधी रोग, पसीना, और आँख जैसी बड़ी बीमारियों के इलाज की चर्चा है, तो ‘क्षुद्ररोग-स्थान’ नामक दूसरे खंड के 72 अध्यायों में उल्टी, हृदय रोग, दंत रोग, और गारत रोग जैसी छोटी बीमारियों के निदान की चर्चा है।

इसी तरह ग्रंथ के तीसरे खंड ‘शल्य-रोग स्थान’ के 34 अध्याय शल्य, यानी कि सर्जरी से संबंधित हैं, जिसमें गहरे जख़्मों, स्नायु रोगों, गर्भधारण और गर्भपात आदि के उपचार की चर्चा है। जबकि चौथे खंड ‘उत्तर रोग स्थान’ के 36 अध्यायों में चिकित्सा के बाद होने वाली आवश्यक थैरेपी सहित मौसमी भोजन, विभिन्न ऋतु आदि के वर्णन हैं। इनके अलावा इस ग्रंथ में इलाज में उपयोग होने वाले, दवाओं में काम आनेवाले पौधों (मेडिसनल प्लांट्स) पर भी महत्त्वपूर्ण जानकारी है, जो आज के दौर में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं।

हस्ति-चिकित्सा पर महारत रखनेवाले पालकाप्य मुनि ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ के अलावा ‘गजशास्त्र’ नाम के एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की है। ‘हस्त्यायुर्वेद’ की तरह इस ग्रंथ में रोगों के निदान के बारे में तो नहीं, लेकिन उनके लक्षणों के साथ एनाटॉमी, फ़िजियोलॉजी, सहवास की विभिन्न विधियों के साथ हाथियों के अस्तबल (गजशाला) के निर्माण, हाथियों के वनों, उनके भोजन तथा उनकी संभावित मृत्यु के संकेतों पर विशेष रूप से प्रकाश डाले गये हैं।

हाथी पर महावत, मुर्शिदाबाद, भारत, 18वीं सदी | V&A Images via Rarebook Society

इस तरह गज-चिकित्सा के क्षेत्र में ‘हस्त्यायुर्वेद’ सरीख़े पहले ग्रंथ की रचना कर भारत ने इस विद्या में पूरे विश्व में अपना अग्रणी स्थान बनाया है। तभी तो इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू कहते हैं, कि हमारे देश में हाथियों के वर्णन करने वाले लगभग 50 ग्रंथ होंगे, जो पालकाप्य के संस्कृत गजशास्त्र  से लेकर राजस्थानी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, बांग्ला, कश्मीरी, ओडिया आदि भाषाओं के अलावा इन शास्त्रों के अलावा संहिताओं में भी संकलित हैं। यहाँ तक कि ‘आईन-ए-अकबरी’ तक में इसके उल्लेख शामिल हैं।

मुख्य चित्र: हस्त्यायुर्वेद की मेवाड़ी प्रतिलिपि – श्रीकृष्ण जुगनू

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