उत्तर भारत में पारंपरिक बनारसी साड़ी के बिना शादी की कल्पना की ही नहीं जा सकती । लेकिन क्या आप जानते हैं कि बनारसी का एक रोचक इतिहास है जो अलग अलग युगों के धागों और संस्कृतियों से गुंथा हुआ है? बनारसी वस्त्रों की तहों में आपको बनारस की कहानी मिलेगी, तबव आप जान पायेंगे कि कैसे 2500 वर्षों में हुए अनेक बदलावों के साथ बनारसी ने ख़ुद को ढ़ाला।
बनारस को अब हालंकि रेशम के लिये जाना जाता है लेकिन बनारसी साड़ियों की शुरुआत सूती कपड़े के साथ हुई थी। काशी के पास के क्षेत्र में कपास की अच्छी खेती होती थी। बनारस शहर गंगा और वारणा तथा अस्सी नदी के समागम के तट पर बसा है। ये तीर्थ स्थल तो रहा ही है साथ ही कपास की खेती की वजह से ये सूती कपड़े बनाने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
बौद्ध दस्तावेज़ से हमें पता चलता है कि बुद्ध साधना के लिये सारनाथ आए थे, जो काशी के पास था और बाद में उन्होंने सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश दिया था। काशी में उस समय विद्वानों का मजमा लगा रहता था। कहा जाता है कि बुद्ध जब अंतिम सांसे गिन रहे थे तब उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि उनके शव को बनारस के उत्कृष्ट कपड़े में लपेटा जाए।
बनारस तीर्थ और व्यापारिक केंद्र के रुप में विकसित हुआ जिसका फ़ायदा उद्योग को बहुत हुआ। बनारस इन केंद्रों की वजह से सदियों तक फलता फूलता रहा। यहां प्राचीन राजधानी तक्षशिला और पाटलीपुत्र से बौद्ध भिक्षु और व्यापारी आते थे। ये उत्तरपथ से दक्षिणपथ तक व्यापार करने का गढ़ भी था।
बनारस चूंकि तीर्थ स्थल था इसलिये मंदिर में चढ़ावे के लिये कपड़ों की हमेशा मांग बनी रहती थी। इसके अलावा चूंकि यह व्यापारिक केंद्र भी था इसलिये शताब्दियों तक रेशम तथा सूती कपड़े का व्यापार होता रहा।
बनारस की बुनाई में आपको फ़ारस, भारत, मध्य एशिया और तिब्बत की सदियों पुरानी संस्क़तियों का प्रभाव देखने को मिलेगा। इनकी झलक गंगा-जमुनी के रूपांकनों की तहज़ीब में दिखाई पड़ती है। बनारसी बुनाई को देखकर ये भी पता लगता है कि कैसे बुनकर बाज़ार की नब्ज़ को पहचानते रहे हैं।
बनारस के रेशम से बनी ज़रदोज़ी की साड़ियां बहुत मशहूर हैं। साड़ियों पर रुपांकन और पैटर्न अलग अलग हो सकता है जैसे किमख़्वाब, जंगला, तनचोई और बूटीदार। इन पैटर्न में साड़ियों पर फूल-पत्तियों, बेलों ये लेकर जानवरों तक की कहानियां नजर आती हैं। बनारसी साड़ियों में आज जो आपको ज़्यादातर रुपांकन दिखते हैं वे मुग़ल काल में फ़ारस और भारत के बीच निकट संबंधों से प्रभावित रहे हैं।
अगर आप बनारस के पुराने इलाक़े मदनपुरा जाएं तो वहां के बुनकर आपको बताएंगे कि कैसे सदियों पहले उनके परिवार यहां आकर बसे थे। विशेषज्ञों का मानना है कि ज़ुबैर अहमद जैसे बुनकरों के वंशज यहां 15वीं-16वीं सदी में आए थे। मदनपुरा के बुनकर, जुबैर अहमद अपने पूर्वजों के बनारस में बसने की कहानी सुनाते हैं।
फ़ारसी प्रभाव आज बनारसी साड़ियों में रचबस चुका है। ये साड़ियां जिस तरह से बनाई जाती हैं, उस पर भी फ़ारसी प्रभाव है।
नक्शा और नक्शबंद
फ़ारसी शब्द नक़्शा एक देसी उपकरण को दर्शाता है जिसका इस्तेमाल बेल बूटे की जटिल डिज़ाइन बनाने में किया जाता था। इसका मक़सद एक ही डिज़ाइन या पैटर्न को धागों के एक सेट को लेकर बुनना था ताकि बाद में उसकी नक़ल करधे पर की जा सके। इस तरह की बुनाई करने वाले को नक़्शबंद कहा जाता है।
बनारस के नक़्शबंद के तार 14वीं शताब्दी के ईरानी संत हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन से जुड़े हुए हैं। कहा जाता है कि ख़्वाजा बहाउद्दीन बुख़ारा में अंगरखा यानी किमख़ा बनाने में अपने पिता की मदद किया करते थे। कुछ नक़्शबंद ख़ुद को 15वीं शताब्दी के विद्वान ग़यासउद्दीन यजदी का वंशज बताते हैं जो ईरान के शाही कारखाने में काम करते थे। उन्होंने हाथ से कपड़े पर तीन सौ बेलबूटे बनाये थे जिसे तोहफ़े के रुप में मुग़ल बादशाह अकबर को पेश किया गया था। इसी दौरान ईरानी कारीगर पंजाब से लेकर जम्मू-कश्मीर आकर बस गए थे।स्थानीय बुनकरों ने ज़री बुनाई की कला इन्हीं से सीखी थी। कहा जाता है कि रेशम धागे का परिचय बनारस में गुजरात से आए बुनकरों के साथ आया। रेशम के ब्रोकेड की प्रसिद्धी आगे 17वीं-18वीं सदी में हुई गयीं।
बनारसी ब्रोकेड की बुनाई की तकनीक
पारंपरिक रुप से नक़्शबंदों ने ख़ूबसूरती से संयोजित पैटर्न के साथ ब्रोकेड और नक़्श पर उनके दोहराव का अपना हुनर दिखाते थे। इसके बाद बुनकर इन पैटर्न को करधे के ज़रिये कपड़ों पर बुनते थे। प्रसिद्ध संत कबीर बनारस के ही बुनकर थे और अक्सर उन्हें पेंटिंग्स में करधे पर बुनाई करते दिखाया जाता है। पारंपरिक डिज़ाइनों के नमूने पहले अभ्रक पर लोहे के कलम से बनाये जाते थे ताकि डिज़ाइन का रिकॉर्ड सुरक्षित और स्थायी रहे। नक्शबंद को आज स्थानीय भाषा में जोड़िया और नक़्श को जाला कहा जाता है।
नक़्शबंद द्वारा डिज़ाइन के नमूने देने के बाद बुनकर करधे पर ताना तय्यार किया जाता हैं। ताना धागे का अनुदैर्ध्य सेट होता है जो करघे पर फैलाया जाता है।इसके बाद विशेष धागों का जाल उठाकर उसमें धागों का बाना बैठाया जाता है। इस तरह ताना और बाना से बुनाई का काम शुरु होता है। अतिरिक्त बाना तकनीक एक पूरक बाना होता है जो हाथ से बुनाई में डाला जाता है और इस तरह बनारसी ब्रोकेड का काम होता है। पहले समय में ज़री के काम के लिये खादी सिल्क के धागे को पूरक बाने के लिये प्रयोग किया जाता था। बुनाई पूरी होने पर कपड़े के पीछे पूरक बाने के बचे रह गए अतिरिक्त धागों को काट दिया जाता है। ज़री का काम सोने में तांबा और चांदी मिलकर बने काॅटन के धागे से किया जाता है। इनडोर कार्यशालाओं में, चांदी को पिघलाया जाता है, छड़ में बनाया जाता है और फिर इसे चांदी के धागे में बदल दिया जाता है। यह सोना चढ़ाने के एक तंत्र के माध्यम से जाता है। आज के जमाने मे, सस्ते दामों मे बेचने के लिए, सोने की प्लेटिंग के बजाय तांबे का उपयोग किया जाता है, जिसमे सिल्वर की अनुपात कम होती है।
नक़्श करधे से बुनाई में काफ़ी मेहनत लगती है। अब इसकी जगह जैकार्ड करधा आ गया है। जैकार्ड तकनीक का अविष्कार फ्रांस के बुनकर जोसेफ़ मैरी जैकार्ड ने 18वीं शताब्दी में किया था। जैक्वार्ड तकनीक में छिद्रित कार्ड की विधि का उपयोग होता है। इन कार्डों में बुनाई के लिए डिज़ाइन बनी रहती हैं। कार्ड पर छिद्रों की प्रत्येक पंक्ति के साथ करघे उन विशिष्ट शाफ्टों को उठाते हैं जहां पूरक बाना बैठाया जाना है। यही काम हाथ से करने में बहुत समय लगता है। आज बहुत कम बुनकर पैटर्न बुनाई के लिये पारंपरिक नक्श का इस्तेमाल करते दिखेंगे। लेकिन फिर भी जहां बेलबूटे बनाने की जैकार्ड की क्षमता जवाब दे जाती हैं वहां आज भी नक़्श का इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिये जैकार्ड करधे पर ऐसा पैटर्न नहीं बुना जा सकता जिसमें तीन सौ से ज़्यादा बार बाने का एक दोहराव करना होता है।
बनारसी का उद्भव
बनारसी जहां साड़ियों का पर्याय बन गया है वहीं पारंपरिक बनारसी कपड़ों का प्रयोग पगड़ी, मंदिर और दरगाह में चढ़ावे के लिये ओढ़नी या फिर महिलाओं के पहनावे शरारा, लहंगा या स्कर्ट के ऊपर ओढ़ी जानेवाली शॉल बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता था।
लेकिन बनारसी ने ख़ुद को समय के साथ ढालना भी सीखा है। बनारस के बुनकरों ने न सिर्फ नयी नयी डिज़ाइन और कच्चा माल ईजाद किया है बल्कि तकनीक में भी वह कभी पीछे नहीं रहे हैं।
ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि चूंकि पास ही बौद्धों के तीर्थ स्थल सारनाथ की बदौलत, यहां के बुनकर आज भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के तमाम बौद्ध केंद्रों में ब्रोकेड के वस्त्र की आपूर्ति करते हैं।
एचएम टेक्सटाइल्स के हसीन मोहम्मद बताते हैं कि कैसे बनारस में बौद्ध मठ का उत्पादन शुरू हुआ।
बेलबूटे की बुनाई की फ़ारसी तकनीक आने के साथ ही ईरानी शैली के फूलों और पशुओं के रुपांकन का भी बनारसी पर प्रभाव पड़ा। मध्यकालीन युग में फारसी क़ालीन, कपड़ों और मिट्टी के बर्तनों पर शिकार के जो दृश्य दिखाई पड़ते हैं, वे बनारसी वस्त्रों पर भी देखे जा सकते हैं। बनारसी ब्रोकेड साड़ियों में, ‘शिकारगाह’ इस ब्रोकेड में घोड़े या हाथी की पीठ पर बैठकर शेर या हिरण को भगाते शिकारियों के दृश्य दिखाई देते हैं। शिकारगाह में साज-सज्जा के लिये फारस के जीवनदायी वृक्ष,पैस्ले और अनार के फूल के रूपांकनों की सजावट भी दिखाई देती है। फारसी के प्रसिद्ध रूपांकन ‘जांगला’ ब्रोकेड फैलती हुई वनस्पति आकृति होती है|
फारस से प्रेरित बुटीडर साड़ियों में चांदी और सोने के गहरे शेड ने ब्रोकेड को गंगा-जमुना नाम दिया है। फूल और पत्तियों को गूथकर बनाए गए मुग़ल रुपांकनों में कलग़ा और बेल प्रसिद्ध हैं।किनारों पर पत्तियों का पैटर्न एक ख़ास बनारसी रुपांकन है जिसे झालर कहते हैं। धीरे धीरे व्यापारिक मार्ग बढ़ने के साथ बनारसी में चीनी और तुर्क रुपांकन की भी झलक दिखाई देने लगी।
फारशी मूल के किमख़्वाब में सोने और ज़री का बहुत प्रयोग होता था। 18वीं और 19वीं शताब्दी में ये मुस्लिम उच्च वर्ग में बहुत लोकप्रिय थी। अमरु ब्रोकेड में सिल्क से बुनाई की जाती है । इसमें ज़री का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं होता। इस तरह बेहद नफ़ीस और दबीज़ ब्रोकेड बन जाता है।
अमरु ब्रोकेड की एक ख़ास क़िस्म है जिसे तनचोई कहते हैं। ये भारत में चीन से आई थी। इसके साथ एक दिलचस्प क़िस्सा जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि सन 1856 में सर जमशेतजी जेजीभाॅय, एक पारसी उद्दोगपती ने सूरत के तीन बुनकरों को सिल्क ब्रोकेड की बुनाई का काम सीखने के लिये चीन भेजा था। वापस आने इन बुनकरोंने अपने चीनी शिक्षक का नाम ‘चोई’ अपना लिया। तन का गुजाराती में निकट अर्थ त्रण यानी तीन होता है। इस तरह चोई जोड़कर इस सिल्क ब्रोकेड का नाम तनचोई पड़ गया। तनचोई ब्रोकेड में फूल, उड़ती हुई छोटी चिड़ियें, मोर और तोते देखे जा सकते हैं।
अब्रवान का शाब्दिक अर्थ होता है बुना हुआ पानी। अब्रवान में बहुत महीन सिल्क का ताना और ज़री का बाना होता है जो इसे धातु जैसी चमक देता है। इससे बहुत ही मुलायम कपड़ा बुना जाता है।
आज के समय में बनारसी
भारयीय वस्त्र उद्योग में बनारसी को कभी कम मांग के ख़तरे का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन बनारस के पारंपरिक बुनकरों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। सस्ती साड़ियों और चीन के कारख़ानों में बनने वाले सस्ते कपड़ों ने इनका बाज़ार ख़राब कर दिया है क्योंकि इनकी वजह से हाथ से बुने हुए ख़ास बनारसी वस्त्रों की मांग अचानक कम हो गई। भारत में अन्य कपड़ा उद्योग की तरह यहां भी जिन हालात में बुनकर काम करते हैं और जितनी कमाई करते हैं, वो बहुत गरीब है। बनारस की गलियों में आपको गढ्डोंवालो करधों पर काम करते बुनकर दिखई देंगे जिनका बहुत शोषण होता है। घंटों काम करने के बावजूद उनको बहुत कम मेहनताना मिलता है। बंगाल, कश्मीर,और कर्नाटक से कच्चा माल आता है जो बहुत महंगा पड़ता है जिससे हालात और बदतर हो गए हैं।
बनारसी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि बुनकर परिवारों की नयी पीढ़ि ये काम नहीं अपनाना चाहती। वे कहीं और जाकर दूसरा काम करना चाहते हैं ताकि ज़्यादा कमा सकें। वो परंपरा जो हज़ारों सालों से ज़िंदा थी, आज उसके अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है। क्या आप बिना बनारसी कपड़ों के बनारस की कल्पना कर सकते हैं? ज़ाहिर है नहीं और इसीलिये इस दिशा में ठोस क़दम उठाने की ज़रुरत है।
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