बनारस और शाही ठाट-बाट 

बनारस और शाही ठाट-बाट 

बनारस, न सिर्फ मंदिरों के शहर बल्कि एक सभ्यता की कहानी है | एक ऐसी कहानी जो शायद इतिहास के पन्नों से भी पुरानी है | इस शहर का धार्मिक महत्व तो है ही, साथ ही यहाँ के शाही परिवार का इतिहास में बोलबाला रहा है। आपको बता दें, ब्रिटिश शासन के दौर में, मौजूदा समय का वाराणसी शहर एक रियासत हुआ करता था । ऐसा माना जाता है कि, अंग्रेज़ों के शासनकाल में पराजित या ज़ायदाद से बेदख़ल किए गए विद्रोही राजाओं को इस रियासत में भेजा जाता था।

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बौद्धकाल में बनारस

बौद्ध-ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है। इस काल में बनारस व्यापार का केंद्र बन चूका था। काशी से तक्षशिला तक सीधा व्यापार होता था। अलग-अलग संस्कृति और परम्पराओं को मानने वाले व्यापारियों का यहाँ आना-जाना शुरू हो गया था। इसी वजह से यहाँ अलग-अलग घाटों और मंदिरों का निर्माण होना शुरू हुआ था। अगर कभी वाराणसी जाना हो तो आप देख पाएंगे कि इस शहर में अलग-अलग बनावट और कलाकारी से सजे मंदिर दिखाई पड़ेंगे।

पाली बौद्ध-ग्रंथों में बनारस की व्याख्या भारत के प्रसिद्ध नगरों में की गई है।

मुग़लकाल में बनारस

सन ११९४ में शहाबुद्दीन ग़ौरी ने इस शहर को लूटकर नुक़्सान पहुंचाया था। इस दौर में काशी का नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रखा गया। बहुत समय तक बनारस को अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रहा। राजा बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश सरकार का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में काशी को अवध राज से स्वतंत्र करवा दिया गया।

प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्ज़ | विकिमीडिया कॉमन्स 

काशी रियासत की जड़ें काशी राज्य तक जाती हैं जो सन ११९४ तक एक स्वतंत्र राज्य था। इसके शासक भूमिहार ब्राह्मण थे। सन १७७५ में यह अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गया। ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन राजा चैत सिंह ने प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्ज़ के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था और हैस्टिंग्ज़ ने चैत सिंह के विरुद्ध युद्ध का आगाज़ कर दिया था । आख़िरकार युद्ध में हार के बाद हैस्टिंग्ज़ चुनार भाग निकला लेकिन कुछ समय बाद अंग्रेज़ी फ़ौज को साथ लाकर उसने चैत सिंह पर दोबारा हमला किया। अंग्रेज़ी फ़ौज की संख्या और बल अधिक होने के कारण चैत सिंह को काशी से हाथ धोना पड़ा।

रामनगर क़िला,वाराणसी  | विकिमीडिया कॉमन्स 

कहा जाता है कि, इसके बाद काशी के राजाओं ने गंगा के तट से सटे रामनगर को अपना गढ़ बना लिया। इस दुर्ग का निर्माण चरणों में हुआ। इस क़िले को, सुरक्षा के मद्देनज़र एक ख़ास जगह बसाया गया ह था। इस गढ़ पर बाहरी आक्रमण की सम्भावना ना के बराबर थी। किसी भी सेना के लिए, गंगा के चौड़े पाट को पार करके, आक्रमण करना असंभव था ।

पुराणों के अनुसार मनु से ११ वीं पीढ़ी के राजा काश के नाम पर काशी बसी थी । काशी अलग अलग कालों में समय के साथ विकसित होती गयी।

काशी पर अंग्रेज़ों का शासन स्थापित होने के बाद, कई शाही परिवारों ने काशी के आसपास बसेरा बना लिया था। जिनमें से एक था महाराष्ट्र का पेशवा परिवार। इस शाही परिवार में जन्मी थीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। जिनका नाम बनारस के घाट मणिकर्णिका पर रखा गया था।

वाराणसी का प्रसिद्द दशाश्वमेध घाट  | विकिमीडिया कॉमन्स 

वाराणसी के घाट

इस प्राचीन नगर में 88 घाट हैं। बहुत से घाटों का पुनर्निर्माण 1700 ईस्वी के बाद किया गया था, जब यह शहर मराठा साम्राज्य का हिस्सा था। वर्तमान घाटों के संरक्षक मराठा, सिंधिया, होल्कर,भोसले और पेशवा रहे हैं। कई घाट किंवदंतियों या पौराणिक कथाओं से जुड़े हैं, जबकि कई घाट निजी स्वामित्व में हैं। घाटों पर,सुबह सुबह,गंगा पर नावों की सवारी, पर्यटकों के लिए बहुत बड़ा आकर्षण है।

काशी विश्वनाथ मंदिर  | विकिमीडिया कॉमन्स 

काशी विश्वनाथ मंदिर

प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में कई रोचक तथ्य हैं जिनकी जानकारी आमतौर पर कम ही लोगों को है। इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण सन १७८० के आसपास होल्कर राज्य (इंदौर) की महारानी अहल्याबाई होल्कर ने करवाया था। यह भव्य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। जिनकी आराधना लिंग के रूप में होती है। इस भव्य मंदिर को कई मुस्लिम शासकों ने गंभीर क्षति पहुंचाई थी। जैसे की सन ११९४ में क़ुतुब्बुद्दीन ऐबक ने और सन १६७९ में औरंगज़ेब ने इसे नष्ट कर दिया था।

अहल्याबाई होल्कर  | विकिमीडिया कॉमन्स 

सन १७४२ में मराठा शासक मल्हार राव होल्कर ने ध्वस्त हो चुके मंदिर के पुनःनिर्माण की योजना बनाई लेकिन उनकी योजना लखनऊ के नवाबों के हस्तक्षेप के कारण विफल हो गई थी। सन १७५० के आसपास जयपुर के महाराजा ने इस मंदिर के पुनःनिर्माण के उद्देश्य से भूमि ख़रीदने का सर्वेक्षण आरम्भ कर दिया था परन्तु उनके बाहरी निवासी होने के कारण ये योजना विफल हो गई थी। सन १८८८ में ग्वालियर के मराठा राजा दौलतराव सिंधिया की पत्नी बायजाबाई ने ज्ञानवापी परिसर में ४४० खम्बे के साथ एक छत वाले तिरुमला का निर्माण करवाया था।

बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है। – प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन

वाराणसी संसार के प्राचीनतम शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम शहर है। बनारस, हिन्दू धर्म के अनुसार सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध और जैन धर्मों में भी इसे पवित्र माना जाता है। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी, श्री कशी विश्वनाथ मन्दिर एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है।

वाराणसी अपने आकर्षक रेशमी कपड़ों के लिए भी जाना जाता है। यहाँ पर बुने कपड़ों को सबसे उच्च क़िस्म का माना जाता है। काशी चन्दन के लिए भी जाना जाता है।

वाराणसी के घाट  | विकिमीडिया कॉमन्स 

भारतीय शास्त्रीय संगीत की जन्मस्थली

भारतीय शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना रहा है। इस कला ने न सिर्फ़ यहाँ जन्म लिया बल्कि यहीं विकसित भी हुई। हिंदुस्तान के कई दार्शनिक, कवि, लेखक और संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि ।

गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का महात्वपूर्ण ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन भी यहीं,अर्थात सारनाथ में दिया था।

वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय भी हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हाइयर टिबेटियन स्ट्डीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है।

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