दिल्ली स्थित भारतीय रिज़र्व बैंक के भवन के मुख्य द्वार पर एक पुरुष और एक महिला की यानी दो विशाल मूर्तियां बनी हैं. उनके हाथों में धन से भरा एक थैला है। ये मूर्तियां यक्ष और यक्षी की हैं जिन्हें धन और समृद्धि का देवी-देवता माना जाता है और जो भारत के सेंट्रल बैंक के द्वारपाल हैं। इन मूर्तियों की स्थापना सन 1960 में हुई थी लेकिन भारत में इनकी पूजा की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। यही नहीं, यक्ष और यक्षी का उल्लेख तब भी मिलता था जब लोगों को लगता था कि पेड़ों में आत्माएं वास करती हैं और वे उनकी पूजा करते थे।
हिंदू आस्था कई चीज़ों का मिश्रण है जिसमें उच्च दर्शन, क्षेत्रीय देवी—देवता और स्थानीय लोक आत्माएं आदि शामिल हैं। इन सभी का न सिर्फ़ सह अस्तित्व रहा है बल्कि इनका मोटे तौर पर जो विवरण रहा है उसे हम आज धर्म कहते हैं। भारत के कई ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग वृक्ष, जल, नदी और पर्वत रुपी आत्माओं की पूजा करते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि उदार और कृपालु आत्माओं की वजह से उन्हें भोजन, अच्छी फ़सल, स्वास्थ, उर्वरता और संताने प्राप्त होती हैं। यक्ष पुरुष-आत्मा है और यक्षी स्त्री-आत्मा। इनका प्रनिधित्व करनेवाली मूर्तियां भारत के हर कोने के मंदिरों में देखी जा सकती हैं।इस सबके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि यक्ष और यक्षी की पूजा कब से आरंभ हुई।
इतिहासकार और “ ए हिस्ट्री ऑफ़ एन्शियंट एंड अर्ली मेडिवल इंडिया” के लेखक डॉ. उपेंद्र सिंह के अनुसार- ‘यक्ष और यक्षी कितनी प्राचीन हैं, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है लेकिन 300 ई.पू.-200 ई.पू. के दौरान भी इनका धार्मिक महत्व था। यक्ष-यक्षी की पूजा करने वालों के संप्रदायों को अक़्सर संख्या के मामले बहुत छोटा मना जाता रहा है और इनका संबंध केवल ग्रामीण इलाकों से बताया जाता है लेकिन सबूत कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।’
पूरे उत्तर भारत में यक्ष और यक्षी की पत्थरों की कई बड़ी बड़ी मूर्तियां मिली हैं जिससे पता चलता है कि ये संप्रदाय कितना लोकप्रिय था। लेकिन 200 ई.पू. के बाद से ये संप्रदाय हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं में समाहित होने लगा। यक्ष हिंदू पुराणों में धन के देवता कुबेर के रुप में शामिल हो गये। दूसरी तरफ़ यक्षी भगवानों की सेविका-आत्माएं के रुप में दिखाई पड़ने लगीं।
सांची, भरहुत और मथुरा के प्रसिद्ध बौद्ध स्तूपों पर यक्षी की कई छवियां होती थीं। इसी तरह यक्षियों का जैन धर्म में भी बहुत महत्व था। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से प्रत्येक तीर्थंकर का संबंध यक्षी से था। इनमें से सबसे प्रमुख नेमीनाथ की यक्षी अंबिका है जो 22वां तीर्थंकर है। जैन गुफाओं और मंदिरों में यक्षी की कई मूर्तियां और छवियां हैं।
बहरहाल, समय के साथ यक्ष और यक्षी की नकारात्म छवि भी इस रुप में बन गई कि इनकी कृपा तभी होगी जब आप इन्हें प्रसन्न करेंगे। एक तरफ़ जहां यक्षी की हज़ारों सुंदर मूर्तियां हैं लेकिन उनमें से प्रसिद्ध मुर्तियां बहुत कम हैं।
इन मूर्तियों में सबसे प्रसिद्ध मूर्ति दीदारगंज चौरी अथवा यक्षी की है जो पटना संग्रहालय में रखी है। पांच फुट दो इंच की यक्षी की आदम क़द मूर्ति एक पीठिका पर रखी हुई है। इसे एक बालू-पत्थर को तराशकर बनाया गया था। ये पत्थर चुनार (अब उत्तरप्रदेश में) से मंगवाया गया था। मूर्ति पर चमकीली मिरर पॉलिश देखते ही बनती है जो, कला-इतिहासकारों के अनुसार यूनानी मूर्ति कला का प्रभाव है। ये मूर्ति क़रीब तीसरी शताब्दी ई.पू. यानी मौर्यकाल की है जो सन 1917 में पुराने पटना शहर के दीदारगंज में मिली थी। दुर्भाग्य से सन 1986 में मूर्ति विवादों में घिर गई थी। दरअसल उस समय मूर्ति स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन और नैशनल गैलरी ऑफ़ आर्ट, वाशिंग्टन, डी.सी, अमेरिका ले जाई जा रही थी, तभी इसकी नाक टूट गई थी। इसे लेकर बहुत बड़ा विवाद पैदा हो गया था। इसी तरह ग्यारसपुर शालभंजिका यक्षी मूर्ति भी बहुत दिलचस्प है जो ग्लालियर के संग्रहालय में रखी हुई है।
इसकी सुंदरता की तुलना वीनस दे मीलो की मूर्ति की सुंदरता से की जाती है जो पेरिस के लौवर संग्रहालय में रखी है। चेहरे पर मुस्कान वाली यक्षी की ये मूर्ति सन1933 में विदिशा से 13 कि.मी. दूर ग्यारसपुर में मिली थी। ग्यारसपुर बौद्ध केंद्र हुआ करता था और यहां ग्वालियर राज्य पुरातत्व विभाग ने खुदाई करवाई थी। यक्षी शालभंजिका (महिला) का प्रतिनिधितिव करती है जिसके हाथ में शाल वृक्ष की एक शाख है। मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला में शाल वृक्ष का चित्रण ख़ूब मिलता है। ग्यारसपुर यक्षी मूर्ति को सन 1986 में पेरिस की एक नुमाइश में दिखाया गया था और लोग इसे देखकर चकित रह गए थे। दुख की बात ये है कि अब ये मूर्ति सलाखों के पीछे बंद है और इसे लोग नहीं देख सकते। इसे देखने के लिये आपको ग्वालियर संग्रहालय से विशेष प्रार्थना करनी पड़ती है।
यक्षी की तीसरी प्रसिद्ध मूर्ति चंद्र यक्षी है जो कोलकता के भारतीय संग्रहालय में रखी हुई है। यक्षी की ये दुर्लभ मूर्ति पहले भरहुत स्तूप की शोभा बढ़ाती थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने सन 1874 में मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में भरहुट में खुदाई करवाई थी जिसमें बौद्ध स्तूप के सुंदर तरीक़े से तराशी गईं मूर्तियों के अवशेष मिले थे। ये स्तूप दूसरी शताब्दी ई.पू. का है। खुदाई के दौरान मिले अवशेषों में सुंदर यक्षी का एक अवशेष भी मिला था। इस मूर्ति में यक्षी का सुंदर केशविन्यास दिखाई पड़ता है और पैनल पर चंद्रा नाम अंकित है। इतिहासकारों का मानना है कि यक्षी की अब तक मिली मूर्तियों में ये मूर्ति सबसे महत्वपूर्ण है।
पत्थरों को तरशाकर बनाई गईं मूर्तियों ने जहां यक्षी को अमर कर दिया है वहीं दक्षिण में, केरल में यक्षी का दुष्ट या द्वेषपूर्ण रुप नज़र आता है। दक्षिण में इसे अक्सर पिशाचनी के रुप में दर्शाय गया है जो अकेले यात्रा करने वालों को अपना शिकार बनाती है। ऐसा विश्वास किया जाता था कि वो युवती जिसकी अप्राकृतिक मौत हुई हो, वो यक्षी बन जाती है। कहा जाता है कि तुरुवानंतपुरम के पद्मनाभास्वामी मंदिर में एक बंद बक्से कल्लारा बी में यक्षी की आत्मा है जो ध्यान मग्न है। सन 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के बंद ख़ज़ाने को खोलने का आदेश दिया था और तब इसके ख़िलाफ़ ये तर्क दिया गया था कि ग़ुस्सैल यक्षी को बिल्कुल परेशान नहीं किया जाना चाहिये। ये बक्सा कभी खोला नहीं गया है।
अवधारणा के रुप में यक्ष-यक्षी के उद्भव से इस बात का भी आभास होता है कि कैसे हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों के देवताओं के समूह में इनका समावेश हुआ। जब किसी नये क़बीले का धर्मांतरण होता था तब उनके देवी-देवताओं को भी इस धर्म में सम्मिलित कर लिया जाता था हालंकि उनकी भूमिका उस धर्म के प्रमुख देवी-देवताओं से कम ही होती थी। इन देवी-देवताओं को शिव, विष्णु, बुद्ध और तार्थंकरों के सेवक का दर्जा दिया जाता था। इनकी भले ही पूजा-अर्चना की जाती रही हो मगर ये रहते थे दोयम दर्जे के।
यक्ष-यक्षी का उद्भव भले ही रहस्यों में घिरा हो लेकिन आज यक्षी की मूर्ति को उसकी सुंदरता और शोभा के लिये जाना जाता है। ये भारतीय मूर्तिकला का शानदार उदाहरण हैं।
*कवर इमेज-सोहम बैनर्जी, विकीमीडिया कॉमंस
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