मारवाड़ का नागौर, इतिहास और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। राव अमरसिंह राठौड़ की कर्म-स्थली के साथ-साथ पर्यावरण और जीव-रक्षा का गुरु मंत्र प्रदान करने वाले जाम्भोजी महाराज, सत्यवादी लोकदेवता तेजाजी महाराज, भक्त शिरोमणि मीरां तथा करमाबाई की जन्म-स्थली होने का यश भी इस जगह को ही प्राप्त है। यहीं पर मध्यकाल में सूफ़ी संतों ने आध्यात्मिकता की जो सरिता बहाई, वो आज भी उसी रफ़्तार से बह रही है। ईश्वर की आराधना करने के विभिन्न तरीक़े बतलाए गए हैं। कुछ भक्त गीत-संगीत और नृत्य के माध्यम से अपने आराध्य को प्रसन्न करते हैं। इसी तरह सूफ़ी-संतों ने अपनी ख़ानकाहों में क़व्वाली की जो परम्परा शुरू की थी, वो भी हिन्दूस्तान की ही देन है। साथ ही कविताओं, ग़ज़लों और लेखों में भी की सूफ़ियों के उच्च विचारों को शामिल किया गया है। सूफ़ी मत की बुनियाद आध्यात्मक के माध्यम से ही शुरू हुई थी। सूफ़ी-संतों ने अपने हृदय की पवित्रता के अलावा ध्यान, व्यवहार में नम्रता, जीवन में सादगी और अक़्ल के बजाए दिल को अहमियत देने का पाठ पढ़ाया था।
ऐसा माना जाता है, कि सूफ़ीमत या रहस्यवाद….यह शब्द आठ तरह की विचार धाराओं से मिलकर बना है। कुछ विद्वानों ने रहस्यवाद के ज्ञान को ही सूफ़ीमत कहा है। दूसरे शब्दों में सूफ़ीमत ईश्वर के आदेशों का पालन करना बताया गया है। भारत में सूफ़ीमत के सिलसिलों (संप्रदाय) का 12 वीं शताब्दी में विकास हुआ ।इनमें मुख्य रूप से चिश्ती, सुहरावर्दी, फ़िरदौसिया, मग़राबिया, मदारिया, शत्तरिया, क़ादिरिया और नक़्शबंदिया प्रमुख सिलसिले हैं।
क़ादिरिया सिलसिले के बानी बग़दाद के शेखमोहीउद्दीन अब्दुल क़ादिर जिलानी (मृत्यु सन1166 ) इस्लामी रहस्यवाद के महत्वपूर्ण संत थे। यह सिलसिला 15 वीं शताब्दी में अपनी बुलंदी पर पहुंच गया था और इसकी तीन शाखाएं भी बनी थीं। भारत में इस सिलसिले के बड़े पीर साहब की दरगाह नागौर में है। आइए, आज इनके सालाना उर्स पर इनकी दरगाह पर आस्था के फूल अर्पित करते हैं।
नागौर में, आठ सौ वर्षों से भी अधिक पुरानी, भारत में बड़े और पूरे विश्व में दूसरा स्थान रखने वाले क़ादिरिया संप्रदाय के बड़े पीर साहब की दरगाह जन आस्था का मुख्य केंद्र है। दिल्ली दरवाज़ा (सैयद सैफ़ुद्दीन जीलानी रोड) पर स्थित बड़े पीर साहब की दरगाह के सज्जादा नशीं सैयद सदाक़त अली जीलानी बताते हैं, कि हज़रत सैयद सैफ़उद्दीन अब्लुल वहाब जीलानी का जन्म 2 जुलाई सन 1128 को बग़दाद (इराक़) में हुआ था। इनके पिता सैयद अब्दुल क़ादिर जीलानी ग़ौस-ए-आज़म थे, जिनकी मज़ार बग़दाद में स्थित है।
हज़रत सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी (बड़े पीर साहब) का आध्यात्मिक ज्ञान, अपना अलग ही महत्त्व रखता है। उन्होंने इस्लाम की शिक्षा को बग़दाद से लेकर हिन्दुस्तान के नागौर तक प्रसिद्ध किया था।
सन 1189 में हज़रत सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी, ख़्वाजा मोइनउद्दीन चिश्ती के साथ भारत आए थे। कुछ समय अजमेर में रहने के बाद वह नागौर आ गए थे। हिन्दूस्तान में क़ादिरिया संप्रदाय के जन्मदाता सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी हैं, जिन्हें ‘क़ुतुब-उल हिन्द’और भारत के बड़े पीर साहब भी कहा जाता है।
क़ुतुब-उल-हिन्द हज़रत सैयदना सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी ( बड़े पीर साहब ) की मृत्यु 25 शव्वाल 603 हिजरी को नागौर में हुई, जहां आज बड़े पीर साहब की दरगाह बनी हुई है । इसी दरगाह में बने लाल गुम्बद के अंदर सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी, उनकी पत्नी , उनके पुत्र और उनके पोते के मज़ार हैं। आज नागौर में सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी का मज़ार है, वहीं बड़े पीर साहब की दरगाह भी है। इस मज़ार पर बने गुम्बद ( रोज़ा-ए-मुबारक) के अलावा तीन गुम्बद और हैं। इन दो गुम्बदों ( रोज़ा-एय-मुबारक) में सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी के वंशजों के मज़ार हैं। इन तीनों गुम्बदों ( रोज़ा-ए-मुबारक) के अलावा एक मक़बरा काले गुम्बद के नाम से बना हुआ है। इस मक़बरे में कुल पांच मज़ार हैं। जिनमें, उस वक़्त के सूबेदार-ए-नागौर शमसउद्दीन ख़ान दनदानी सहित इनके दो बेटों, एक बेटी और इनकी बीवी की क़ब्रें हैं।
इस दरगाह में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है। यहां प्रतिवर्ष मुहर्रम, सालाना उर्स, ईद सहित कई त्यौहार उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। इन आयोजनों में देश-विदेश से भी ज़ायरीन शिरकत करते हैं। विशेषकर अजमेर में ख़्वाजा साहब और नागौर में हज़रत सूफ़ी हमीदउद्दीन के उर्स में भाग लेने के लिए आने वाले ज़ायरीन यहां भी ज़ियारत के लिए बड़ी संख्या में आते हैं। भारत की क़ादिरिया संप्रदाय की इस एक मात्र दरगाह है, जिस पर केन्द्र सरकार के आर्थिक सहयोग से, हमदर्द यूनिवर्सिटी (नई दिल्ली) के डीन प्रोफ़ेसर डॉ. ग़ुलाम याहया अंजुम ने शोध किया है। प्रो.अंजुम ने हिन्दूस्तान में सिलसिला-ए-क़ादरिया के बानी, बड़े पीर साहब क़ुतुब-उल-हिंद सैयदना अब्दुल वहाब जीलानी पर भी पुस्तक लिखी है।
बड़े पीर साहब की दरगाह-परिसर में स्थित संग्रहालय में रखी दुलर्भ सामग्री, यहां आने वाले अक़ीदतमंदों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी रहती है। बड़े पीर साहब दरगाह के सज्जादा नशीन के बेटे और उनके उत्तराधिकारी सैयद सैफ़उद्दीन जीलानी बताते हैं कि 17 अप्रैल सन 2008 को, उनके पिता ने इस दरगाह परिसर में यह संग्रहालय खोला था । संग्रहालय में सैकड़ों साल पुरानी ऐतिहासिक वस्तुओं के साथ, आठ सौ वर्षों से भी अधिक पुराना, हज़रत सैयद सैफ़उद्दीन अब्दुल वहाब जीलानी के हाथों से लिखा हुआ क़ुरान-ए-पाक, उनकी असा-ए-मुबारक (लकड़ी की छड़ी) और उनका अमामा शरीफ़(पगड़ी) है। यह तीनों चीज़ें आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं। इसके अलावा यहां पर कई प्रकार के ताले, सिक्के, बर्तन आदि वस्तुएं भी रखी हैं। बादशाह औरंगज़ेब की नागौर यात्रा से जुड़े अनेक प्रसंग हैं। औरंगज़ेब ने सज्जादा नशीन सैयद मोहम्मद हामिद साहब को,12 जून सन1680 को शाही पालकी के साथ 500 रूपए नगद, चांदी की एक चौब(छड़ी) और एक घोड़ा भी भेंट किया था।
मुग़ल बादशाह अकबर ,शाहजहां, औरंगजेब और मुहम्मद शाह के फ़ारसी भाषा में लिखे शाही फ़रमान और शाही पालकी आज भी सुरक्षित है। इस पालकी के साथ, ईद के मौक़े पर शाही जुलूस निकलता है। नागौर शहर में यह परम्परा पिछले तीन सौ वर्षों से लगातार निभाई जा रही है। यह जुलूस हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
इन सभी ऐतिहासिक चीज़ों के अलावा सन 1805 के भारतीय सिक्कों के साथ अब्राहम लिंकन की छवि वाले अमेरिकी सिक्के, ईरान, सऊदी अरब, ओमान, नेपाल और जयपुर रियासत कालीन मुद्राऐं, तक़रीबन 150 साल पुराने शुतरर्मुग़ के अंडे, एक छोटी तोप, पुरानी डाक सामग्री, रजिस्ट्री पत्र, पोस्ट कार्ड, टेलीग्राम भी शामिल हैं। मारवाड़ के महाराजा मानसिंह का, सन1833 में जारी किया गया ताम्र-पत्र भी यहां रखा हुआ है। इसी दरगाह मैं 900 वर्षों से भी अधिक पुराना खेजड़े का वृक्ष यानी आस्था का चिन्ह भी मौजूद है, जिसके साए में बड़े पीर साहब इबादत करते थे और आराम भी फ़रमाया करते थे।इस प्राचीन सामग्री और क़ादिरिया संप्रदाय की इस ऐतिहासिक दरगाह को राजस्थान सरकार ने टूरिज़्म सर्किट में शामिल किया है। यह दरगाह आस्था और इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के मुख्य आकर्षण का केन्द्र है।
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