सूफ़ी संत बाबा पीर दमड़िया

सूफ़ी संत बाबा पीर दमड़िया

बिहार में सूफ़ी परम्परा का इतिहास बहुत पुराना है। जनमानस में इन सूफ़ियों के प्रति ग़ज़ब की श्रद्धा आज भी देखने को मिलती है। उनके दर पर समाज के सभी वर्गों के लोग इकट्ठा होकर दुआएं और मिन्नतें मांगते हैं। “बिहार में सूफ़ी परम्परा” ( सं. डॉ. विनय कुमार) में लिखा है कि सूफ़ियों की साधना की यह तहज़ीब हिंदू-मुस्लिम एकता का माहौल तैयार करने में मदद करता है|

बिना किसी धार्मिक भेदभाव के लोगों के बीच आध्यात्म की शिक्षा प्रदान कर उन्हें मुरीद बनानेवाले सूफ़ी संतों के मज़ारों पर मुसलमानों के साथ हिंदू भी बड़ी श्रद्धा के साथ जाया करते थे और यह सिलसिला आज भी जारी है जिसका जीता-जागता उदाहरण है सूफ़ी संत पीर दमड़िया का आस्ताना। बाबा पीर दमड़िया की ख़ानक़ाह पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर भागलपुर शहर (बिहार) के बीचोबीच लोहिया पुल (उल्टा पुल) के निकट स्थित है। बाबा पीर दमड़िया के प्रति मुग़लकालीन बादशाहों की विशेष आस्था रही है।

देश के पिछले 500 वर्षों के इतिहास में ख़ानक़ाह-ए-पीर दमड़िया की न सिर्फ़ धार्मिक क्षेत्र में, बल्कि कई मुग़लकालीन अहम सियासी घटनाओं में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पीर दमड़िया के वंशज से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद जहां चौसा की लड़ाई में परास्त हुमायूं को दोबारा हिन्दुस्तान की बादशाहत हासिल हुई, वहीं इनकी शख़्सियत के आकर्षण से प्रभावित हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेरशाह ने अपनी मुंहबोली भतीजी की शादी हुमायूं से करायी थी।

बादशाह हुमायूं

चूंकि हज़रत पीर दमड़िया की दुआयें बादशाह हुमायूं के साथ थीं, इसी कारण अकबर भी उनसे अक़ीदत रखता था। हुमायूं की हिदायत पर बादशाह अकबर से लेकर जहांगीर, शाहजहां जैसे बादशाह और उनके शहज़ादे न सिर्फ़ उनके हुज़ूर में आये, बल्कि गद्दी पर बैठने के बाद जागीरों के फ़रमान भी जारी किये। यह सिलसिला शाह आलम द्वितीय तक चलता रहा |

हज़रत पीर दमड़िया के प्रति मुग़ल बादशाहों की विशेष इनायत के कारण आज ख़ानक़ाह-ए-पीर दमड़िया के क़ुतुबख़ाने (पुस्तकालय) में एक हज़ार शाही फ़रमानों के साथ दस हज़ार दस्तावेज़ और एक हज़ार दुर्लभ पांडुलिपियां संरक्षित हैं। यहां संकलित मुग़लकालीन बरतनों को देख लोग मुग्ध हो जाते हैं।

यहां की लाइब्रेरी बेहद समृद्ध रही है । बताते हैं कि शाहजहां जब आगराह में क़ैद था, तो यहां से चुनिंदा किताबें मंगवाकर पढ़ता था जिसकी गवाही यहां की कुछ किताबों देती हैं, जिन पर शाहजहां के हाथों से लिखे नोट्स के साथ उनके क़ैदख़ाने की मुहरें छपी हैं। कुछ किताबों पर बादशाह अकबर के हस्ताक्षर भी देखे जा सकते हैं।

यहाँ मौजूद मुग़लकालीन केतली 

वैसे तो भागलपुर में कई पीर-फ़क़ीर हुए हैं, पर बाबा पीर दमड़िया की गिनती मुग़लकाल में यहां आनेवाले सबसे पहले पीर के रूप में होती है। इस कारण लोगों में इनके प्रति विशेष श्रद्धा है। ऐसा माना जाता है कि पीर दमड़िया के पूर्वज मख़दूम सैयद हसन दानिशमंद, पीर दमड़िया के तीसरे पुत्र मख़दूम सैयद हुसैन और पीर दमड़िया 946-47 हिजरी में हसनपुरा, सारण (बिहार) से परगना बनहरा (ज़िला बांका, डिवीज़न भागलपुर) में आकर बस गये थे। मख़दूम सैयद हसन हुमायूं और शेरशाह के समकालीन थे जिनके नाम पर सारण ज़िले के हसनपुरा का नाम पड़ा है।

इतिहासकार प्रो. एच. एस. असकरी बताते हैं कि मख़दूम सैयद हसन के पुत्र और पोते हाजीपुर के सैयद अहमद, मंसूरगंज, पटना के सैयद मुहम्मद और भागलपुर के सैयद हुसैन- सभी को “पीर दमड़िया” कहकर संबोधित किया जाता है। ये सभी सुहरवार्दिया संत थे तथा मख़दूम जहानियन के आध्यात्मिक शागिरदों की कड़ी से जुड़े थे।

ख़ानक़ाह-ए-पीर दमड़िया के मौजूदा गद्दीनशीं सैयद शाह हसन मानी बताते हैं कि पीर दमड़िया सिलसिले के पूर्वज वासित, इराक़ से चलकर बुख़ारा के रास्ते भारत आये थे जो पहले हसनपुरा, सारण में आकर बसे और उसके बाद सुल्तानपुर (बांका) में तशरीफ़ लाए। हज़रत मख़दूम पीर दमड़िया का ख़ानदानी और नस्ली ताल्लुक़ हज़रत सैयदना इमाम हुसैन शहीद-ए-करबला से जाकर मिलता है।

पुस्तकालय में मौजूद पाण्डुलिपि  

गद्दीनशीं सैयद हसन मानी बताते हैं कि पीर दमड़िया ख़ानदान के सबसे पहले बुज़ुर्ग सैयद ज़हीर उद्दीन अलहुसैनी, बलबन बादशाह के ज़माने में इराक़ के मशहूर इल्मी और रूहानी शहर वासत बुख़ारा के रास्ते दिल्ली तशरीफ़ लाए। आप दिल्ली के बादशाह फ़ीरोज़शाह तुग़लक के गुरु थे जो आपकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। आपका मज़ार दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास है।

पीर दमड़िया शाह की तीन पुश्तें दिल्ली में रहीं जिनके मज़ार आज भी वहां हैं। आपके बेटे हज़रत मख़दूम सैयद अताउल्लाह शाह की शादी हज़रत मख़दूम जहांनिया जहांगत की बेटी से हुई थी। आपके बेटे सैयद याहिया करमउल्लाह के नाम से मशहूर हुए जो अपने वक़्त के बड़े सूफ़ी बुज़ुर्गों में से थे। सैयद याहिया करमउल्लाह के एक बेटे सैयद हामिद उर्फ़ सरफ़जहां मीठे शाह बुख़ारी दिल्ली से चलकर सरदना में जाकर बस गये जहां उनकी ख़ानक़ाह और मज़ार है। इनके सात बेटे थे जो मंसूरपुर, ख़ानजहांपुर, बहराइच, जौनपुर वगैरह जगहों में जाकर बस गये और अपनी-अपनी ख़ानक़ाहें क़ायम कीं। आपके एक बेटे हज़रत मख़दूम सैयद अफ़ज़न मिस्कीन बुद्दन शाह बहराइची में बहुत मशहूर हुए।

सैयद याहिया करमउल्ला के एक अन्य बेटे हज़रत मौलाना सैयद क़ासिम साहब ने मेरठ तशरीफ़ लाकर अपनी ख़ानक़ाह और मदरसा क़ायम किया। हज़रत मख़दूम सैयद क़ासिम साहब के चार बेटे थे जिनमें से एक थे हज़रत मख़दूम सैयद हसन दानिशमंद जो मेरठ से इलाहाबाद के कड़ा मानिकपुर में तशरीफ़ लाये और वहां सैयद हिसामुद्दीन मानिकपुरी की ख़िदमत में रहे। फिर वह इलाहाबाद से जौनपुर चले गये । इसके बाद 885 हिज़री में सिवान के उसरी मुहल्ले में हज़रत मख़दूम मीर मल्लिक फ़तेउल्लाह साहब की ख़ानक़ाह में आकर उनकी ख़िदमत करते हुए इबादत-रियाज़त में मशग़ूल हो गये।

बाबा पीर दमड़िया की ख़ानक़ाह

उनकी क़ाबिलियत से प्रभावित होकर मीर मल्लिक साहब ने अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दी। हज़रत मीर अली फ़तेउल्लाह की बेटी से उनके यहां पांच बेटे सैयद अहमद पीर दमड़िया, सैयद मुबारक हुसैन, सैयद हुसैन पीर दमड़िया, सैयद चंदन और सैयद अब्दुल रज़्ज़ाक़ तथा एक बेटी सैयदा राज़ी भूरी पैदा हुई। लेकिन आपके दो छोटे बेटे सैयद चंदन और रज़्ज़ाक़ का इंतक़ाल बचपन में ही हो गया।। हज़रत मख़दूम हसन के तीनों बेटे बहुत ही बड़े आलिम थे तथा तसव्वुफ़ के ऊंचे मुक़ाम पर थे, पर तीसरे बेटे मख़दूम सैयद हसन सबसे अधिक ताबदार थे।

बताते हैं कि जब हज़रत मख़दूम सैयद हसन सीवान में थे, तो एक रात बादशाह हुमायूं चौसा की लड़ाई में शेरशाह से हारने के बाद हज़रत के खा़नक़ाह में पहुंचा। हुमायूं वहां भोर होने से पहले पहुंच गया था। जब हज़रत ने हुमायूं से पूछा कि तुम कौन हो, तो उसने कहा कि मैं एक मुसाफ़िर हूं। इसपर हज़रत ने पूछा, “मुसाफ़िर हो या बादशाह”, तो बादशाह ने पहचान ज़ाहिर करते हुए कहा , “बहुत परेशान हूं, सभी साथी बिछड़ गये हैं।” इसपर हुज़ूर ने फ़रमाया, “कोई बात नहीं, ये सब वक़्ती परेशानियां हैं। इस मुल्क पर तुम्हारी औलाद और नस्लें पुश्त- दर-पुश्त हुकूमत करेंगी।” हज़रत की बात सुनकर हुमायूं वहां से चला गया।

बादशाह हुमायूं के जाने के बाद दूसरे दिन मख़दूम सैयद हसन दानिशमंद ने अपने तीनों बेटों को बुलाकर फ़रमाया, “देखो, मैं तो 90 साल का हो चुका हूं और अब मेरा आख़िरी वक़्त है। लेकिन जब शेरशाह को मालूम होगा कि मैंने हुमायूं के लिये दुआ की थी तो वो तुम लोगों को तकलीफ़ पहुंचा सकता है। इसलिये जबतक शेरशाह का दौर रहे, तुम लोग रूपोश (छिपे) रहना|”

हज़रत मख़दूम सैयद हसन का इंतक़ाल 945-46 हिज़री में हो जाने के बाद उनकी इच्छा के अनुसार उनके बड़े बेटे सैयद अहमद पीर दमड़िया अपने वालिद की हिदायत की रौशनी में मीनापुर, हाजीपुर में तशरीफ़ ले आये। आपके दूसरे बेटे सैयद मुबारक सीवान के आसपास किसी गांव में रहने लगे और तीसरे बेटे 946-47 हिज़री में सुल्तानपुर (अमरपुर, बांका), जो उस समय बनहरा कहलाता था, में एक कुटिया बनाकर इबादत-रियाज़त में मशग़ूल हो गये। उन दिनों बनहरा जंगलों से घिरा हुआ था और और बादशाहों का शिकारगाह था। शेरशाह को जब मालूम हुआ कि मख़दूम सैयद दानिशमंद ने उसके दुश्मन हुमायूं के लिये दुआ की थी, तो उसने अपने फ़ौजियों को हज़रत के बेटों को गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया‌। जब शेरशाह के सैनिक इबादत में मशग़ूल सैयद पीर दमड़िया को गिरफ़्तार करने सुल्तानपुर बनहरा पहुंचे, तो उनकी रूहानियत से प्रभावित होकर सैनिक ख़ुद उनके मुरीद हो गये।

बाबा पीर दमड़िया की ख़ानक़ाह

इससे परेशान होकर शेरशाह हज़रत की गिरफ़्तारी की जुगत में लगा था, तभी सैयद पीर दमड़िया की गिरफ़्तारी की बात सुनकर शेरशाह के पीर ने उसे ऐसा करने से मना किया क्योंकि उनके ही जैसे सैयद ज़ादे को तकलीफ़ पहुंचाने से शेरशाह की बरबादी हो सकती थी। अपने पीर के सुझाव पर शेरशाह ने, अपनी एक बड़े ओहदेदार दरिया खां नूहानी, जिसे वह अपने भाई के समान मानता था, की बेटी बीबी सलीमा की शादी का रिश्ता पीर दमड़िया को भिजवाया। पहले तो वे इसके लिये तैयार नहीं हुए, पर शाही दबाव के कारण इसे मंज़ूर कर लिया।

आज भागलपुर डिवीज़न के, बांका ज़िले के मौजूदा सुल्तानपुर में मख़दूम सैयद हुसैन पीर दमड़िया का मज़ार इस पुरानी दास्तां को बयां कर रहा है। सौ साल से भी अधिक पुराने घने बरगद के नीचे मौजूद.. आकर्षक गुंबदों, मीनारों और जालीदार झरोखों से युक्त कलात्मक ढंग से निर्मित मख़दूम सैयद हुसैन पीर दमड़िया के मज़ार पर हिंदू और मुसलमान दोनों श्रद्धा से आकर सर नवाते हैं।

ख़ानक़ाह का हिस्सा

उनके मज़ार के पास ही उनकी पत्नी बीबी सलीमा का मज़ार है। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार बाद में पीर दमड़िया के वंशज सुल्तानपुर बनहरा से भागलपुर आकर बस गये थे। क्षेत्रीय इतिहासकार सैयद शाह मंज़र हुसैन अपनी पुस्तक में बताते हैं कि सन 1576 में अकबर की सेना ने भागलपुर क्षेत्र की एक लड़ाई में दाऊद ख़ां क़र्रानी को शिकस्त देकर मौत के घाट उतार दिया था। उसी के बाद इस क्षेत्र के शासन का मुख्यालय सुल्तानपुर बनहरा से क़स्बा भागलपुर स्थानांतरित कर दिया गया । वहां के राजकीय कर्मचारी, पीर-फ़क़ीर और व प्रजा सब बादशाह के हुक्म से भागलपुर चले आये।

बाबा पीर दमड़िया भी सुल्तानपुर से भागलपुर चले आये और यहां हुसैनपुर मुहल्ले में आकर बस गये। अकबरी फ़रमान सन 1576 के मुताबिक़ सुल्तानपुर की 2,500 बीघा ज़मीन बाबा पीर दमड़िया के नाम पर उनकी जागीर में पहले की तरह रही। इसी मौज़े से 19 बीघा ज़मीन निकालकर सन 1646 में शाहजहां ने मौलाना शाहबाज़ मोहम्मद के मज़ार की देखरेख के लिये दी थी।

बाबा पीर दमड़िया का मज़ार

बाबा पीर दमड़िया का मज़ार भागलपुर के उल्टा पुल (लोहिया पुल) के निकट मुजाहिदपुर मुहल्ले में स्थित है। इस मुहल्ले का नाम बादशाह अकबर के एक कर्मचारी मुजाहिद के नाम पर सन 1576 में पड़ा जिसकी मृत्यु के बाद 1000 बीघे की जागीर दमड़िया बाबा के पोते सैयद अलाउद्दीन के नाम से शाह शुजा ने दी थी। पीर दमड़िया के वंशजों को समय-समय पर मुग़ल बादशाह जागीरें देते रहते थे। डॉ. सैयद हसन असकरी और डॉ क़यामुद्दीन अहमद ने भी मख़दूम सैयद हसन उर्फ़ पीर दमड़िया को जागीर दिये जाने के उल्लेख किये हैं।

बाबा पीर दमड़िया अपने जीवन-काल में ही अख़्लाक़-ए-आलिया के कारण मशहूर हो गये थे और इनके दर पर दीन-दुखियों के तांते लगे रहते थे, जो सिलसिला आज भी जारी है।

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