अमृतसर के वे स्थान जहां लिखी गई स्वतंत्रता की तवारीख़

अमृतसर के वे स्थान जहां लिखी गई स्वतंत्रता की तवारीख़

देश की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब का अमृतसर शहर ही जंग का मैदान बन चुका था। जहां मंदिरों, मस्जिदों और गुरूद्वारों में देशवासियों में देश भक्ति की ज्वाला को भड़काने के लिए तक़रीरें की जा रही थीं, कविताएं और गीत लिखे जा रहे थे, वहीं शहर की ज़्यादातर धर्मशालाएं और कारोबारी स्थल आज़ादी की लड़ाई के लिए बम और गोलियां बनाने के कारख़ाने बन चुके थे। आज हम आपको स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले स्मारकों से रुबरु करवा रहे हैं।

अजनाला का शहीदी कुँआ

राष्ट्रीय विद्रोह की वजह से, 30 जुलाई,सन 1857 की रात, लाहौर की मियां मीर छावनी में नियुक्त बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 26 रैजीमेंट के सिपाहियों ने, प्रकाश पांडे नाम के सिपाही के नेतृत्व में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरूद्ध बग़ावत का बिगुल बजा दिया और वे वहां से भाग निकले। अगले ही दिन 31 जुलाई को शाम 5 बजे ये बे-हथियार सिपाही गिरफ़्तर कर लिए गए। इनमें से 282 सिपाहियों को रस्सों से बांधकर अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर फ़्रेडरिक हेनरी कूपर अपने हथियारबंद घुड़सवार सिपाहियों के साथ आधी रात को अजनाला ले आया। एक अगस्त की सुबह, उनमें से 237 सिपाहियों को गोलियों से भून दिया गया। कूपर के आदेश पर गोलियों से मारे गए सैनिकों के साथ ही 45 शेष बचे जिंदा सिपाहियों को विशाल सूखे कुएँ में फेंक कर कुएँ को ऊपर तक मिट्टी से भर दिया गया।

अजनाला का शहीदी कुँआ

आज़ाद भारत की किसी भी सरकार ने कुएँ की खोज कर उसमें दफ़्न इन हिंदूस्तानी फ़ौजियों के शवों को, 157 वर्षों तक बाहर निकालने का कोई प्रयास नहीं किया। आख़िरकार अमृतसर के इतिहासकार और शोधकर्ता श्री सुरेंद्र कोछड़ ने कुएँ की खोज कर, अजनाला के लोगों के सहयोग से, वहां दफ़्न 282 हिंदुस्तानी सैनिकों के कंकालों को, सन 2014 में सम्मान सहित निकालवाया ।

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क़िला गोबिंदगढ़
ब्रिटिश शासकों को सन 1857 के संग्राम के समय क़िला गोबिंदगढ़ के असली महत्व का अंदाज़ा हुआ। ब्रिटिश इसे ‘धार्मिक राष्ट्रीय धरोहर’ के रूप में स्वीकार करते थे। जे.जी.ए बार्ड प्राईवेट लैटर्ज़ ऑफ़ द् मारकिस ऑफ़ डल्होज़ी’ में लिखते हैं, कि क़िले का नाम सिख गुरु के नाम पर होने के कारण सिखों की धार्मिक भावनाएं इस क़िले के साथ जुड़ी हुई हैं।

क़िला गोबिंदगढ़

कैव बराऊनी ‘द पंजाब एंड दिल्ली इन 1857’ में लिखते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत में, सन 1857 के शुरू में यह विश्वास किया जाने लगा था, कि बाग़ी हिन्दुस्तानी सेना, क़िला गोबिन्दगढ़ पर दोबारा क़ब्ज़ा करके इसे अपने अधिकार में लेने में कामयाब हो जाएगी। देश की इससे पहले आज़ादी के लिए शुरू हुए आंदोलनों में हिस्सा लेने वाले देश-भक्तों को गिरफ़्तार करके,इसी क़िले के नलवा गेट के क़रीब बनी कोठड़ियों में रखा जाता था।

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नामधारी स्मारक
14 जून,सन 1871 की रात अमृतसर के श्री दरबार साहिब के बाहरवार घंटा घर पुलिस चौकी के क़रीब, क़साईओं के मकानों पर हमला करके, वहां क़त्ल के इरादे से बंधी गायों को दस नामधारी (कूका) सिखों ने आज़ाद कर दिया था। इसपर वहां रह रहे क़साईयों ने नामधारी सिखों पर हमला कर दिया। लेकिन वे किसी नामधारी का बाल भी बांका नहीं कर सके। जबकि इस लड़ाई में चार क़साई पीरा, जियूना, शादी और अमामी मारे गए और तीन कर्मदीन, इलाही बख़्श और ख़ीवा बुरी तरह से जख़्मी हो गए।

नामधारी स्मारक

इस सबके लिए ज़िम्मेदार चार नामधारी सिखों को, 15 सितम्बर, सन 1871 को फांसी पर लटकाए जाने का आदेश सुनाया गया। रामबाग (कंपनी बाग) के मुख्य प्रवेश-द्वार की बाहरी ड्योढ़ी के साथ मौजूद एक पुराने विशाल वट वृक्ष के साथ सब लोगों के सामने उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। यह वट वृक्ष नामधारी स्मारक के भीतर आज भी मौजूद है और आज भी वह नामधारियों द्वारा अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ की गई बग़ावत की गवाही दे रहा प्रतीत होता है।

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जलियांवाला बाग़
जलियांवाला बाग़ देश की आज़ादी से संबंधित स्मारकों में पंजाब का प्रमुख स्मारक है। ब्रिगेडियर जनरल रिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने इस बाग की भूमि पर 13 अप्रैल,सन 1919 को निर्दोष और निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाकर उन्हें शहीद कर दिया था। उस दिन भारत की स्वाधीनता के इतिहास में एक नया अध्याय आरंभ हो गया था। देश के बँटवारे से पहले और कई वर्ष बाद तक, यहां हर वर्ष अप्रैल महीने के दूसरे सप्ताह में ‘राष्ट्रीय सप्ताह’ के रूप में जलियांवाला बाग़ में मनाया जाता था और बाक़ायदा राष्ट्रीय ध्वज लहराया जाता था लेकिन अब यह प्रथा बंद हो चुकी है।

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जलियांवाला बाग

गोल बाग़ (एचीसन पार्क)
गोल बाग़ के स्थान पर पहले नारायण सिंह वकील का बाग़ हुआ करता था। गोल बाग को पहले एचीसन पार्क कहा जाता था। यह नाम सन 1882 में सर चार्ल्स एचीसन के, पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर नियुक्त होने के बाद, उनके नाम पर रखा गया था। बाग़ गोलाई में है इसलिए इसे गोल बाग़ कहा जाने लगा था।

दिसंबर,सन 1919 में अखिल भारतीय कांग्रेस का महत्त्वपूर्ण तथा विशाल समागम होने के बाद गोल बाग़ का महत्व अपने शिखर पर पहुँच गया। उस सम्मेलन में, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, बिपन चन्द्रपाल, सी.आर. दास, मदन मोहन मालविया, मोहम्मद अली जिन्ना, पंडित मोती लाल नेहरू और श्रीमति ऐनी बेसेंट जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेतागण शामिल हुए थे।

वंदे मातरम् हाल
सन 1905 में स्वदेशी लहर तथा बाईकाट की तहरीक में अमृतसर सबसे आगे था। बाबू कन्हैया लाल भाटिया ने देश की आज़ादी के लिए की जाने वाली पब्लिक मीटिंगों के लिए, अपनी कोठी को वंदे मातरम् हाल में तब्दील कर दिया था। उसी दौरान प्रसिद्ध क्रांतिकारी बाबू सुरेन्द्र नाथ बेनर्जी अमृतसर आए थे और उन्होंने वंदे मातरम् हाल का उद्घाटन किया था। जहां कुछ माह पहले तक कटरा शेर सिंह में रिजेंट सिनेमा हुआ करता था,उससे पहले वहीं पर तब वंदे मातरम् हाल हुआ करता था।

मस्जिद ख़ैरूदीन
हाल गेट के अन्दर प्रवेश करते ही कुछ ही दूरी पर मस्जिद ख़ैरूदीन मौजूद है। मस्जिद ख़ैरूदीन भी स्वंतत्रता अंदोलन के लिए चली लहर में अमृतसर की अग्रिम संस्थाओं में से एक थी। इस मस्जिद के मौलवी इनायतउल्ला बुख़ारी जिन को तूती-ए-हिन्द कहा जाता था, वे ऐसे भाषण देते थे कि सुननेवालों में नया जोश भर जाता था। उन जैसे लोगों की तक़रीरों से पैदा हुए जोश ने बर्तानवी हुकूमत की नींव तक हिला कर रख दी थी।

मस्जिद खेरूदीन

10 अप्रैल,सन 1919 को हाल ब्रिज पर जो 19-20 हिन्दू अंग्रेज़ों की गोलियों से शहीद हो गए थे, उनके पार्थिव शरीर सीधे उस मस्जिद में ही लाए गए थे। यहीं से उनके शवों को नहला कर, अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। उनके पार्थिव शरीरों को कंधा देने वालों में बड़ी संख्या में शहर के मुसलमान भी शामिल थे।

क्रॉलिंग स्ट्रीट
जलियांवाला बाग़ कांड के तीन दिन बाद शहर में फौजी क़ानून लागू कर दिया गया। 19 अप्रैल,सन 1919 को, जनरल डायर ने शहर के कुछ अंदरूनी क्षेत्रों में अपनी फौज साथ गश्त किया। इस मौक़े पर अमृतसर सिटी मिशन स्कूल की मैनेजर और चर्च ऑफ़ इंग्लैंड महिला मिशनरी सोसाईटी के लिए काम करने वाली मिस मार्शिला शेरवूड ने अमृतसर के दंगाइयों के बारे में बताया। उनकी शिकायत सुनकर डायर ने ये आदेश जारी किया, कि इस गली में से निकलने वाले सभी लोग नाक और घुटनों के बल रेंगकर निकलेंगे। इस क्रालिंग ऑर्डर के बाद इस गली में से निकलने वाले सभी लोगों को, पेट के बल रेंगकर एक छिपकली की तर से निकलना पड़ा था।

क्रॉलिंग स्ट्रीट

यदि रेंगने वाला ज़रा भी घुटनों को उठाता या मोड़ता तो उसकी पीठ पर बंदूक के कुंदे से वार किया जाता और उनके लिए गली के बीच (जहां आज मंदिर कुरेशां है) एक टिकटिकी लगा दी गई थी। जहां उनके हाथ-पाँव बाँधकर, उन्हें र्निवस्त्र कर कोड़े लगाए जाते थे।इस हुक्म के पहले ही दिन क़रीब 50 लोगों को यह सज़ा झेलनी पड़ी, जिन में एक गर्भवती स्त्री, एक अंधा और वृद्ध व्यक्ति तथा कुछ अपाहिज लोग भी शामिल थे।

मुख्य चित्र: यश मिश्रा

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