कश्मीर की भूली हुई विरासत 

कश्मीर की भूली हुई विरासत 

कश्मीर कभी तरह तरह की संस्कृतियों, विचारधाराओं और आस्थाओं का स्थान हुआ करता था। आज यहां बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं लेकिन इसकी ख़ूबसूरती को देखने आने वाले ज़्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि इसका अतीत क्या रहा है। इसका भौगोलिक इतिहास हज़ारों साल पुराना है। यहां कई साम्राज्य रहे, कई तरह की आस्थाएं रहीं, पवित्र मंदिर और स्मारक हैं, विविध शिल्प, रहन-सहन की परंपराएं और महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थान हैं। कुल मिलाकर यही कश्मीर के इतिहास की बुनियाद है। दुख की बात यह है कि कश्मीर घाटी में टकराव और अशांति की वजह से इसकी ज़्यादातर समृद्ध विरासत पर पर्दा पड़ जाता है। कश्मीर के इतिहास और विरासत के बारे में लोग कम ही जानते हैं लेकिन सवाल यह है कि कश्मीर के अद्भुत इतिहास को रौशनी में लाने के लिए क्यों पर्याप्त कोशिशें नहीं की गईं? क्या कश्मीर की विरासत से इस क्षेत्र की तकलीफ़ों पर मरहम लग सकता है?

डल झील | विकिमीडिआ कॉमन्स 

हमारी साप्ताहिक श्रृंखला हेरिटेज मैटर्स के इस सत्र “कश्मीर्स फ़ॉरगॉटन वंडर्स” ( कश्मीर के भूले बिसरे अजूबे) में कश्मीर और उसके इतिहास के सवालों पर गहन विचार विमर्श किया गया। चर्चा में इंटैक जम्मू एंड कश्मीर चैप्टर के संयोजक सलीम बेग, कश्मीर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के सहायक प्रो. डॉ. अजमल शाह और लेखक तथा फ़ोटोग्राफ़र प्रशांत मथावन ने हिस्सा लिया। इनमें से सभी ने कश्मीर के अतीत के विभिन्न पहलुओं पर गहरा अध्ययन किया है जिससे हमें यह समझने में मदद मिली कि इस क्षेत्र की विरासत को लोगों के सामने लाने के मामले में हमसे कहां चूक हुई।

कश्मीर की कहानी तब से शुरु होती है जब यहां एक विशाल सरोवर के सिवाय कुछ और नहीं होता था। कई चरणों में टेकटोनिक परतों के खिसकने की वजह से सरोवर सूख गया। कहा जाता है कि अंतिम बार यह झील तक़रीबन 85 हज़ार साल पहले सूखी थी जिसके बाद सरोवर से ज़मीन उभरी। करेवा (क्षेत्रफल, स्थान) कही जाने वाली यह ज़मीन खेती के लिए एकदम अनुकूल थी और इसी वजह से लोग यहां आकर बसने लगे। डल झील के पास के इलाक़े में तो पांच हज़ार साल तक लोगों के बसने का सिलसिला जारी रहा। कश्मीर में कई पुरातात्विक स्थान हैं जिससे हमें कश्मीर के लंबे इतिहास के बारे में पता चलता है। काफ़ी लोगों को यह नहीं पता होगा कि कश्मीर में नव पाषाण कालीन 14 स्थल हैं।

इनमें सबसे महत्वपूर्ण स्थल है बुर्जहोम। ये उन सबसे पुराने स्थानों में से है जहां ज़मीन के नीचे रहने की जगहों के सबूत मिले हैं।

बुर्जहोम में ज़मीन के नीचे बानी रहने की जगह  | डॉ अजमल शाह

लेकिन क्या आपको पता है कि बुर्जहोम के पास का इलाक़ा, एक बड़े सालाना क्रिकेट प्रतियोगिता का मैदान बन चुका है? यह प्रतियोगिता पुरातात्विक खुदाई स्थल के आसपास ही होती है। पुरातत्वविद और प्रागैतिहासिक कश्मीर के विशेषज्ञ डॉ. शाह ने बताया कि इन स्थानों में से अधिकतर की न तो जांच की गई है और न ही यहां खुदाई हुई है।

उन्होंने कहा, “निरंतर शोध का अभाव रहा है। उदाहरण के लिए बारामुला के कानिसपोरा में बी.आर. मणि के नेतृत्व में सन 1998-99 में खुदाई हुई थी जो उस समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कश्मीर सर्किल के निरीक्षक थे। उसके बाद हाल ही में सन 2017 में यहां कुछ खुदाई हुई। इस दौरान यानी सन 1998 और सन 2017 के बीच, कश्मीर में कोई खुदाई नहीं हुई। बी.आर.मणि और आर.एस. बिष्ट जैसे दिग्गज पुरातत्विदों ने खुदाई करवाई थी और लगातार शोध जारी रखा था। उसी वजह से ही उस समय आम लोगों को इन स्थलों के बारे में पता चल सका।”

सन 2017 के पहले तक कश्मीर में कोई ऐसा शैक्षिक विभाग नहीं था जो पुरातात्विक अध्ययन पर केंद्रित हो। डॉ. शाह के अनुसार कश्मीर विश्वविद्यालय में सन 2017 में ही इस विषय से संबंधित एक विभाग खोला गया।

जम्मू-कश्मीर में पर्यटन विभाग के पूर्व महा-निदेशक और कई पुनर्नवीकरण परियोजनाओं से जुड़े रहे सलीम बेग ने भी कश्मीर में पुरातात्विक स्थलों से संबंधित मुद्दों पर रौशनी डाली। उन्होंने बताया कि सन 1990 के दशक में विद्रोह के दौरान कई केंद्रीय सरकारी संगठन राज्य से चले गए। यह वो समय था जब स्थानीय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी जम्मू चला गया था। बाद में बाक़ी संगठन तो वापस आ गए लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग नहीं आया। पिछले दस सालों से, यहां तक की जम्मू सर्किल में भी, कोई पुरातत्व निरीक्षक नहीं है।

दो महत्वपूर्ण स्थलों बुर्जहोम और गुफ़कराल का ज़िक्र करते हुए बेग ने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने जहां बुर्जहोम को संरक्षित स्थल का दर्जा दिया, वहीं गुफ़कराल को नहीं दिया हालंकि दोनों स्थलों की खुदाई हुई थी और विस्तृत रिपोर्ट भी सौंपी गई थी। आज ये स्थल उपेक्षा का शिकार है और लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है। “मैंने गुफ़कराल में एक बड़ा पत्थर देखा जिसे सुरक्षा बलों ने पीर बाबा के स्मारक के रुप में तब्दील कर दिया है… सारी समस्या की जड़ संस्थागत है। पुरातत्व विभाग को जो प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी वो नहीं दी गई।”

गुफरकाल  | आदिल पररय/Aadil Parray 

सलीम बेग ने एक और समस्या की तरफ़ ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा कि प्रशासन के अधिकार क्षेत्र में सभी ऐतिहासिक स्थल और स्मारक नहीं आते हैं। उदाहरण के लिए निशात बाग़ और शालीमार गार्डन आदि जैसे कश्मीर के मुग़ल गार्डन प्रशासन के दायरे में नहीं हैं। देश के बाक़ी हिस्सों में जहां मुग़ल गार्डन को पुरातात्विक स्थल माना जाता है वहीं कश्मीर के मुग़ल गार्डन पुष्पकृषि विभाग के अंतर्गत आते हैं। इन्हें राष्ट्रीय स्मारकों के रुप में मान्यता नहीं मिली है।

शालीमार बाग़, श्रीनगर | विकिमीडिआ कॉमन्स

सलीम बेग और अन्य लोगों ने इन मुग़ल गार्डनों की मरम्मत और इन्हें मान्यता दिलाने के लिए एक दशक से भी ज़्यादा समय से मुहिम चला रखी है। अब इन बाग़ों को यूनेस्कों वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स की संभावित सूची में शामिल किया गया है।

8वीं सदी में कश्मीर की प्राचीन राजधानी परिहासपोरा जैसे कुछ स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सुरक्षित हैं लेकिन फिर भी ये उपेक्षा और लापरवाही के शिकार हैं। इन जगहों पर खनन, खुदाई और निर्माण के लिए मिट्टी निकाली जाती है जो अपने आप में बड़ी समस्याएं हैं। हालंकि परिहासपोरा सुरक्षित स्थान तो है लेकिन इसे अभी तक संरक्षित नहीं किया गया है।इसके आसपास के इलाक़ों को भी सुरक्षित दर्जा देने की ज़रुरत है क्योंकि इनकी भी पुरातात्विक एहमियत बहुत ज़्यादा है।

आज के समय में परिहासपोरा का एक दृश्य | प्रशांत मथावन

कश्मीर विरासत का एक और दिलचस्प पहलू इसका, बौद्ध धर्म का अतीत है। पहली और दूसरी सदी में यह बौद्ध धर्म के आरंभिक समय का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। प्रसिद्ध सिल्क रुट पर कश्मीरे गलियारों से होकर ही बौद्ध धर्म दक्षिण में और आगे तथा बाक़ी एशिया में फैला था। कश्मीर में इतिहास के इस अध्याय के कई रहस्य दबे हुए हैं।

इन्हीं में एक है हरवन मठ जो श्रीनगर की सीमा पर स्थित है। माना जाता है कि यहां बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की चौथी बैठक पहली या दूसरी सदी में कभी हुई थी। बैठक का आदेश कुषाण के राजा कनिष्क प्रथम ने दिया था। अन्य ऐतिहासिक स्थलों की तरह इस मठ का भी कोई पुरसाने हाल नहीं है और इसे भी भुला दिया गया है।

हरवान मठ | प्रशांत मथावन

कश्मीर का गहन अध्ययन करने वाले प्रशांत मथावन ने बताया, “मैं कश्मीर में ही बड़ा हुआ हूँ। लेकिन मुझे हरवन मठ के बारे में कुछ भी नहीं पता था, मुझे तो ये तक नहीं मालूम था कि बौद्ध धर्म का कश्मीर से कोई संबंध भी है। कई लोग भूल चुके हैं कि कश्मीर बौद्ध धर्म का उद्गम स्थल हुआ करता था… हरवन मठ बौद्ध धर्म संबंधी बचे रह गए कुछ स्थलों में एक है। पहली बार जब मैं वहां गया तो मुझे वो मिला नहीं। अगली दफ़ा जब मैं फिर वहां गया तो वहां कोई नहीं था। इसका रखरखाव अच्छा था लेकिन वहां कोई नहीं था, संग्रहालय भी नहीं। मैं वहां से कुछ भी उठा सकता था।”

सलीम बेग के अनुसार कश्मीर की वास्तुकला में उसके विविधतापूर्ण अतीत की झलक नज़र आती है। उन्होंने बताया कि कैसे मस्जिद जैसे पवित्र पूजा स्थलों की वास्तुकला में हिंदू और बौद्ध दोनों की वास्तुकला शैली का मिश्रण है। कश्मीर में मस्जिदों पर गुंबद की बजाय शिखर देखे जा सकते हैं। “कश्मीर की सांस्कृतिक स्मृति देशज है…अगर आप हमारी वास्तुकला को देखें तो वह भी देशज और अनोखी है। हमने हिंदू औऱ बौद्ध धर्म दोनों के अतीत से रुपों, रुपांकनों और स्थानों को आत्मसात किया है और ये कुछ पूजा स्थलों में मौजूद हैं।”

ख़ानक़ाह-इ-मौला, श्रीनगर  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

इनके अलावा कश्मीर में और उसके आस पास के क्षेत्र में और भी कई दिलचस्प चीज़ें हैं जैसे लद्दाख में चट्टानों पर बने हज़ारों चित्र या फिर सूफ़ी परंपरा और त्यौहार। इन सबको मिलाकर एक संयुक्त सांस्कृतिक धरोहर बनती है जिसे सनद करने और संरक्षित करने की ज़रुरत है।

हमारी पैनल के सभी सदस्य इस बात पर एकमत थे कि समस्या शिक्षा की रुपरेखा में भी है। स्कूल के पाठ्यक्रम में स्थानीय इतिहास शामिल नहीं है। बेग के अनुसार हो सकता है कि ग्रामीण या दूर दराज़ के इलाक़ों के स्कूलों में आज भी छात्रों को क्षेत्रीय इतिहास के बारे में बताया जा रहा हो लेकिन शहरी स्कूलों में इस बारे में जागरुकता पैदा करने की ज़रुरत है।

हम कश्मीर की विरासत को लोगों के सामने कैसे ला सकते हैं?

पैनल के सभी सदस्य इस बात पर सहमत थे कि धरोहरों को बढ़ावा देने के लिए जागरुकता पैदा करनी बहुत ज़रुरी है। स्थानीय लोगों को कश्मीर के विविधतापूर्ण इतिहास और विरासत के बारे में बताया जाना चाहिए । डॉ. शाह का मानना है कि शोध, ख़ासकर पुरातत्व के क्षेत्र में, बहुत ज़रुरी है। केंद्रीय और राज्य पुरातत्व विभागों को इन स्थानों पर शोध और खुदाई करवानी चाहिए ताकि और नए तथ्य सामने आ सकें।

प्रशांत का मानना है कि जागरुकता पैदा करने और धरोहरों के संरक्षण के लिए संग्रहालय-संस्कृति कारगर साबित हो सकती है। इसके लिए स्थानीय संग्रहालयों की स्थापना भी ज़रुरी है। श्रीनगर के एस.पी.एस. संग्रहालय का ज़िक्र करते हुए प्रशांत ने कहा कि एक बार जब लोग संग्रहालय आने लगेंगे तो संग्रहालय में रखी वस्तुओं के इतिहास और उनसे संबंधित कहानियों में उनकी दिलचस्पी पैदा होने लगेगी। संग्रहालय में आने से लोगों में उन स्थानों के प्रति उत्सुकता पैदा होगी जहां से ये कलाकृतियां लाई गईं हैं। प्रशांत का यह भी मानना है कि विरासत की कहानी कहने और इन्हें लोगों के सामने रखने में, सोशल मीडिया भी एक बढ़िया माध्यम हो सकता है।

सलीम बेग का मानना है कि संस्कृति ही कश्मीर को आगे की तरफ़ ले जा सकती है। शिक्षा और जागरुकता के ज़रिये अतीत से संबंधों को फिर से जीवित करने की ज़रुरत है। इससे इस क्षेत्र की मौजूदा स्थिति भी बेहतर हो सकती है।

ये सत्र अंग्रेज़ी में हमारे चैनल पर दिखाया गया है। आप इस सत्र की पूरी परिचर्चा अंग्रेज़ी में यहां देख सकते हैं-

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