वाराणसी – जिसकी गलियों और चौबारों में पवित्रता और आस्था की एक अद्भुत छाप मिलती हैI वाराणसी ने धर्म और इतिहास के हर पहलू को अपने भीतर ठीक वैसे समेटा है, ऐसे ही जैसे किसी माला में रंग-बिरंगे फूल गुथे होते हैं I मशहूर अंग्रेजी लेखक मार्क ट्वेन ने शायद सही कहा है, ‘बनारस इतिहास, मान्याताओं और परम्पराओं से भी पुराना हैI’ मगर काशी नाम से लोकप्रिय इस नगरी से जुड़ा एक ऐसा पहलू भी है, जिससे आज न सिर्फ अधिकाँश भारतीय बल्कि इस शहर के कई लोग भी नावाकिफ हैं!
सन 1857 यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले भी भारत के कई हिस्सों में ऐसी कई जंगें लड़ी गईं थीं, जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल बजा दिया था I दिलचस्प बात ये है, कि इनमें से दो जंगें धार्मिक नगरी वाराणसी में भी लड़ी गईं थी, इन जंगों से जुड़ी कुछ घटनाएं आज स्थानीय मान्यताओं और कविताओं में जीवित हैंI जंग लड़नेवालों में से पहले व्यक्ति थे सन 1781 में महाराजा चैत सिंह और दूसरे थे सन 1799 वजीर अली खानI इन दोनों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ बगावत की थीI
महाराजा चैत सिंह की बगावत, 1781
सन 1764 में बक्सर की जंग के बाद, जब बंगाल के नवाबों के साथ-साथ दिल्ली की मुगलिया सल्तनत को भी अंग्रेजों के सामने झुकना पड़ा था, तब इलाहाबाद की संधि के तहत उनको बंगाल, बिहार और ओड़िसा की दीवानी दे दी गयी थीI इन क्षेत्रों का भू-राजस्व अब अंग्रेजों की झोली में जाने लगा थाI इस नीति का विरोध करने वाले बिहार प्रांत के कुछ ज़मींदार थे, जो सारण जिले के हुस्सेपुर राज से ताल्लुक रखने वाले फ़तेह बहादुर शाही के साथ एकजुट हुए और राजस्व देने के बजाए, वे छापेमार युद्ध नीति के ज़रिये अंग्रेजों की छाती पर मूंग दलने लगेI
वहीँ तत्कालीन अवध नवाब आसिफुद्दौला और अंग्रेजी गवर्नर जनरल वारेन हास्टिंग्स के हस्तक्षेप से सन 1771 में वाराणसी के गद्दी महाराजा चैत सिंह को सौंप दी गयी थी I दिलचस्प बात ये थी, कि चैत सिंह ने ये गद्दी पर अपनी जगह नवाब और हेस्टिंग्स को कीमती ‘उपहार’ देकर हासिल की थी!
चैत सिंह ने हेस्टिंग्स को उस क्षेत्र का दुगना भू-राजस्व दिया था और युद्ध के दौरान सैन्य सहायता भी दी थी I सन 1770 के दशक के अंत में, जब मद्रास की संधि (1769) के बाद मैसूर के सुल्तान हैदर अली के साथ दुश्मनी दोबारा पनप रही थी, तब हेस्टिंग्स ने चैत सिंह से 2000 सैनिकों की टुकड़ी के साथ-साथ और पांच लाख के रकम की मांग कीI बहुत इंतज़ार के बाद भी, चैत सिंह हेस्टिंग्स की मांग पूरी नहीं कर पाएI इससे आगबबूला होकर हेस्टिंग्स जून 1781 को वाराणसी में दाखिल हो गयाI चैत सिंह ने हेस्टिंग्स से बातचीत के ज़रिये मामले को सुलझाने की कोशिश की, मगर ये कोशिश नाकामयाब हुईI उल्टा चैत सिंह पर पचास लाख का जुर्माना भी लाद दिया! 16 अगस्त, 1781 को जब हेस्टिंग्स चैत सिंह को गिरफ्तार करने उनके महल जा ही रहा था, उनको इस बात का अंदेशा नहीं था, कि उसे एक शर्मनाक हार का सामना करना पड़ सकता है!
हेस्टिंग्स चैत सिंह के महल के करीब आया ही था, कि रामनगर किले से आई चैत सिंह की टुकड़ी निकली और हेस्टिंग्स पर हमला बोल दिया, जहां उसके कई अंग्रेज़ अफसरों को भी मार डालाI हेस्टिंग्स के पास चैत सिंह की फ़ौज के मुकाबले बहुत कम सैनिक थेI साथ-ही-साथ, वाराणसी की आम जनता भी चैत सिंह के सैनिकों के साथ मिल गयी थी और उन्होंने भी अंग्रेजी फ़ौज को शिकस्त देने में कोई कसर नहीं छोड़ीI नतीजन, हेस्टिंग्स और बचे सैनिक वहाँ से भाग खड़े हुए, और उन्होंने चूनार किले में शरण लीI इसपर एक स्थानीय लोकुक्ति आज भी मशहूर है:
“घोड़े पर हौदा, हाथी पर जीन, काशी से भागा वारेन हास्टिंग्स!”
उस वक़्त बिहार के ज़मींदारों ने मौके का फायदा उठाकर अपनीं कारवाई में और तेज़ी कर दी, जिसके लिए अब उनको पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ ज़मींदारों के साथ-साथ वहाँ की आम जनता का समर्थन भी मिला I इसका प्रभाव उस पूरे क्षेत्र में देखा जाने लगा, एक तरफ डाक सेवाएँ रोक दी गयी थीं और दूसरी तरफ, नाव से यात्रा करना अंग्रेजों के लिए अब और खतरनाक हो गया थाI
विडम्बना ये रही, कि जगदीशपुर और आरा जैसी कुछ ज़मीन्दारियाँ ने इस बगावत के दौरान अंग्रेजों का साथ दिया था, और 1857 के क्रान्ति के दौरान, यही लोग उनके खिलाफ भी हुए!
मगर आखिरकार हेस्टिंग्स को कलकत्ता से सैन्य सहायता मिल ही गयी थी, और नवम्बर 1781 तक वाराणसी पर अंग्रेजों का कब्जा मुकम्मिल हुआI ये चैत सिंह की खुशकिस्मती ही थी, कि वो महदजी सिंधिया के सम्पर्क में आये और उनके प्रभाव में आकर अंग्रेजों ने उनको ग्वालियर में नज़रबंद रखने की इजाज़त दे दीI सन 1810 में वहीँ उनकी मृत्यु हुई I
वज़ीर खान की बगावत, 1799
अब जहां एक तरफ अंग्रेज़ चेत सिंह को हराने के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और अब बंगाल में विद्रोह को कुचलने और अपना शासन सुचारू रूप से चलाने के बीच संतुलन बना ही रहे थे, तब 1790 के दशक में उनको वाराणसी में एक बार और बगावत का सामना करना पड़ा थाI इस बगावत को बढ़ावा देने वाले थे अवध के नवाब आसिफुद्दौलाह के दत्तक पुत्र वज़ीर अली खानI
आसिफुद्दौला की मौत के बाद, अंग्रेजों ने सत्रह वर्षीय वज़ीर को अवध का नवाब बनाया थाI मगर उसका शासन सिर्फ चार महीने तक चल सका, क्यूंकि अंग्रेज वज़ीर के उनके प्रति रवैय्ये को देखकर नाखुश थेI एक तो अंग्रेज़ों की सिफ़ारिश पर बनाए गए अवध के कुछ मंत्रियों को निकाल दिया था, और जब अंग्रेज़ अफ़सर जॉन शोरे लखनऊ आया, तो उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं कियाI
जहां एक तरफ़ बग़ावती अंदाज़ और दूसरी तरफ़ दुर्व्यव्हार, अंग्रेज़ों ने आनन-फ़ानन में आसिफ़उद्दौला के भाई, सआदत अली खान को नवाब बना दिया और वज़ीर को वाराणसी के रामनगर किले में नज़रबंद रखाI कुछ महीनों बाद ये तय हुआ, कि वज़ीर को 15 जनवरी, 1799 को वाराणसी से कलकत्ते के लिए रवाना कर दिया जाएगाI
गुस्साए वजीर ने बनारस में तैनात अंग्रेज़ अफसर जॉर्ज फ्रेडरिक चेरी से मिलने की इच्छा जताई, ताकि इस मामले पर एक बार पुनर्विचार किया जा सकेI 14 जनवरी, 1799 की सुबह चेरी रामनगर के किले में आए और वजीर को लेकर करीब दो सौ सैनिकों के जत्थे के साथ अपने घर की ओर रवाना हुए I मगर, बीच रस्ते, चेरी को ये जानकार हैरानी हुई, कि वे सभी सैनिक दरअसल वजीर के करीबी दोस्त इज्ज़त अली और वारिस अली के थे!
मौजूदा नदेसर इलाके के करीब स्थिर चेरी के घर तक पहुँचते-पहुँचते, वजीर और उसके सहयोगियों ने हमला बोल दिया, जिसके कारण चेरी और यहाँ तक सात और अंग्रेजी अफसरों को मौत के घाट उतारा दिया गयाI वहां जो उपलब्ध सैन्य सहायता पहुँच रही थी, उसका भी कोई फायदा नहीं हुआ और पूरे इलाके में लूट-पाट और खूनखराबे का मंज़र बना रहा, जिसमें अंग्रेजी सम्पत्ति को भारी नुक्सान पहुँचाया गयाI अंग्रेजी जनसंख्या हताहत होकर अपने-अपने घरों में जाकर छिप रही थीI वाराणसी एक बार फिर बगावत की आग से जल उठाI
बगावत की ये खबर तुरंत कलकत्ता पहुंच गयी, जहां से और अंग्रेजी फौजी टुकड़ियां भेजी गयी थीI मगर जब तक वो वारणसी पहुंचे, वज़ीर और उनके सहयोगी वहाँ से भाग चुके थे! कहा जाता है, कि वे सबसे पहले तराई तक गए और जब उनके पास संसाधन कम होने लगे थे, उन्होंने जयपुर जाकर वहाँ के तत्कालीन राजा प्रताप सिंह के महल में शरण ली थीI
मगर चैन के पल कुछ दिनों तक ही रह पाए, और धोखे से वज़ीर को अंग्रेजों ने अपनी गिरफ्त में लेकर कलकत्ता के फोर्ट सेंट विलियम के कैदखाने में बंद कर दिया सन 1817 में उनकी वहीँ मौत हुईंI
कई इतिहासकारों का मानना है, कि इन्हीं दोनों युद्धों की वजह से, सन 1857 की बग़ावत की प्रेरणा मिली थी। इन युद्धों की वजह से ही इस क्षेत्र के लोगों में बग़ावत की ज्वाला भड़की थी। दिलचस्प बात ये हैकि मंगल पांडे भी इसी इलाक़े से ताल्लुक रखते थे। मंगल पांडे ने सन 1857 में बैरकपुर छावनी में विद्रोह किया था!
आज वाराणसी में चैत सिंह के नाम पर बने घाट में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, मगर इससे जुड़ी वीरता की कहानियां आज सिर्फ़ कुछ इतिहासकारों और मल्लाहों तक ही सीमित रह गई हैं।रामनगर क़िला भारतीय पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आ चुका है। मक़बूल आलम रोडपर मौजूद सेंट मैरी क्रिस्चियन सिमेट्री (क़ब्रिस्तान) में उन सभी अंग्रेज़ों की क़ब्रें हैं, जिन्हें वज़ीर ख़ान और उनके सिपाहियों ने मौत के घाट उतारा था।यहां लगी तख़्ती पर वज़ीर ख़ान का नाम तो दर्ज है, लेकिन शहर के इतिहास के पन्नों पर उनका नामो-निशान तक मौजूद नहीं है।
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