वाराणसी का नेपाली पशुपतिनाथ मंदिर

वाराणसी का नेपाली पशुपतिनाथ मंदिर

नेपाल की राजधानी काठमांडू में प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर में हर साल सैकड़ों श्रद्धालु आते हैं। इसे एशिया में शिव के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं, कि वाराणसी के घाटों पर एक ऐसा भी मंदिर है, जिसे नेपाली मंदिर के नाम से जाना जाता है,जो पशुपतिनाथ मंदिर का प्रतिरुप है। कहा जाता है, कि इसे 19वीं शताब्दी में नेपाल के एक राजा ने अपनी सत्ता का त्यागने के बाद बनवाया था।

वाराणसी के पवित्र ललिता घाट पर स्थित श्री समरेश्वर पशुपतिनाथ महादेव मंदिर को नेपाली मंदिर या काठवाला मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। ये मंदिर अपनी वास्तुकला की वजह से वाराणसी के अन्य मंदिरों से बिल्कुल अलग लगता है। इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है।

ललिता घाट

सन 1800 में वाराणसी में स्वामी निर्गुणानंद नाम का एक व्यक्ति पहुंचा था, जो कोई और नहीं बल्कि नेपाल का निर्वासित राजा राणा बहादुर शाह था। ये राजा नेपाल में काफ़ी उत्पात मचाने के लिये बदनाम हो गये थे। राणा बहादुर शाह सन 1777 में अपने पिता प्रताप सिंह शाह की मौत के बाद अपनी मां राज्यलक्ष्मी देवी और उसके बाद उनके चाचा बहादुर शाह के राज प्रतिनिधि मंडल के तहत यानी उनकी सरपरस्ती में, सत्ता में आये थे। उनके अपने चाचा बहादुर शाह के साथ संबंध तनावपूर्ण थे, और उन्होंने अंत में अपने चाचा को हिरासत में लिया। राणा बहादुर शाह ने एक मैथिली ब्राह्मण विधवा कांतावती से शादी की, और अपने बड़े बेटे के बजाय कांतावती से पैदा हुए बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फ़ैसला किया। दुर्भाग्य से उनके बेटे गिरवन युद्ध बिक्रम शाह के जन्म के एक साल बाद, कांतावती को सन 1798 में टीबी यानी तपेदिक की बीमारी हो गई। इसके बाद राजा स्वेच्छा से पद त्याग कर और गिरवन युद्ध को तख़्त पर बैठाकर, स्वामी निर्गुणानंद के नाम से अपनी रानी के साथ एक तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे।  जल्द ही कांतावती की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई, जिसकी वजह से राजा का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। उन्होंने मंदिरों को नष्ट करना और सत्ता के मामलों में दख़ल देना शुरू किया, जिसकी वजह से दो अलग-अलग सत्ता केंद्र बन गये। युवा राजकुमार गिरवन युद्ध के समर्थकों ने राणा बहादुर शाह को गिरफ्तार करने के लिए एक सेना भेजी और राजा को मजबूरन पीछे हटना पड़ा। राणा बहादुर शाह ने आख़िरकार वाराणसी में शरण ली, जहां वह लगभग चार साल तक रहे।

राजा राणा बहादुर शाह

इससे ज्ञात होता है, कि निर्वासित राजा वाराणसी में अपने देश यानी नेपाल की तरह का माहौल तैयार करना चाहते थे। कहा जाता है, कि वाराणसी में अपनी रिहाइश के दौरान उन्होंने पशुपतिनाथ मंदिर की तरह नेपाली मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में नेपाली पैगोडा वास्तुकला की ख़ास झलक दिखाई देती है। राजा ने ठीक पशुपतिनाथ मंदिर की तरह ही यहां मंदिर बनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पशुपतिनाथ का एक पुराना चित्र

इसके लिये उन्होंने मज़दूरों को नेपाल से बुलवाया था। इस बात में सच्चाई भी हो सकती है, क्योंकि कुछ दस्तावेज़ों के मुताबिक़ मंदिर की लकड़ियों पर नक़्क़ाशी स्थानीय कारीगरों की कला नहीं हो सकती थी। लाल रंग का मंदिर पूरी तरह से लकड़ी और टेराकोटा पत्थर से बना हुआ है, जिस पर महीन नक़्क़ाशी की गई है, और इमली और पीपल के पेड़ों से घिरे रहने की वजह से, ये एकदम अलग जान पड़ता है। दरअसल इस मंदिर को इसकी लकड़ी की संरचना के कारण काठवाले मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। दिलचस्प बात यह है, कि इस मंदिर पर एक ख़ास तरह की नक़्क़ाशी की वजह से इसे ‘मिनी खजुराहो’ भी कहा जाता है।

मंदिर में लकड़ी की नक्काशी

लेकिन यह सिर्फ़ पशुपतिनाथ मंदिर का ही प्रतिरुप नहीं है। जहां ये दोनों मंदिरों बने हुए हैं, उनकी स्थिति भी काफ़ी हद तक एक जैसी है। पशुपतिनाथ मंदिर बागमती नदी के किनारे स्थित है, जिसे नेपाल में एक पवित्र श्मशान घाट माना जाता है। दूसरी ओर नेपाली मंदिर वाराणसी के सबसे पवित्र श्मशान घाट, मणिकर्णिका घाट से सिर्फ़ 100 मीटर दूर है, जो शहर के केवल दो श्मशान घाटों में से एक है।

कहा जाता है, कि जिस पवित्र ललिता घाट (देवी ललिता के नाम पर) पर यह मंदिर बना है, वह भी राणा बहादुर शाह ने ही बनवाया था।

लेकिन सवाल ये भी पैदा होता है, कि आखिर नेपाल का कोई राजा वाराणसी में मंदिर क्यों बनवाएगा? इसकी वजह यह है, कि वाराणसी और नेपाल के बीच हमेशा से गहरे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंध रहे हैं। दोनों शहरों का शिव से संबंध रहा है, और यहां कुछ सबसे पवित्र शिव मंदिर भी हैं। दिलचस्प बात यह है, कि भगवान बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी में हुआ था, और उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश वाराणसी शहर के पास सारनाथ में दिया था। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक वाराणसी सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। प्राचीन काल में यह धार्मिक, शैक्षिक, दार्शनिक, कलात्मक और व्यावसायिक गतिविधियों का केंद्र रहा था। इसका नेपाल के कई राजाओं के साथ गहरा संबंध रहा था, जो वाराणसी अक्सर आते थे। उन्होंने शहर के कई मंदिरों के निर्माण में दान भी किया था। नेपाल के निर्वासित राजा अक्सर वाराणसी आते थे। राजाओं के अलावा नेपाल के कई विद्वान अध्ययन के लिये वाराणसी आते थे।

मंदिर का एक दृश्य

इस आकर्षक मंदिर को बनने में लगभग तीन दशक लगे। मंदिर जब बन रहा था, उसी बीच राणा बहादुर शाह सन 1804 में नेपाल वापस चले गए थे। सन 1806 में उनकी मृत्यु के बाद, उनके बेटे गिरवन युद्ध बिक्रम शाह देव ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया, जो निर्धारित समय सीमा के लगभग 20 साल बाद पूरा हुआ।

ये अनोखा मंदिर, यहां आने वाले विद्वानों और यात्रियों की नज़रों से कभी ओझिल नहीं रह सका। उन्होंने इसका उल्लेख अपनी किताबों में किया है। विद्वान और लेखक रजनी रंजन सेन अपनी पुस्तक, ‘द होली सिटी: “बनारस’ में लिखते हैं, “पास ही एक छायादार स्थान पर नेपाली पशुपतिनाथ शिव मंदिर हैजो दो मंज़िला है और, इस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है और नेपाली शेरकी मूर्तियां बनी हुई हैं। यह बनारस में अपनी तरह का एक अनूठा मंदिर है, जो पूरी तरह से लकड़ी से बना है, जिसमें पर्याप्त और विस्तृत सुंदर नक़्क़ाशी है। लकड़ियों पर विभिन्न देवी-देवताओं की छवियां बनी हुई हैं। इसके अलावा मंदिर महीन अलंकरणों से सजा हुआ है।”

मंदिर में नक्काशी

इस आकर्षक मंदिर के बारे में लोग अपेक्षाकृत कम ही जानते हैं।सन 1843 में तत्कालीन काशी नरेश (काशी के राजा) ने राणा बहादुर शाह के नाम पर भूमि हस्तांतरित कर दी थी। धर्मशाला और ललिता घाट सहित मंदिर और उसके आस-पास का क्षेत्र नेपाली सरकार के अधीन है।

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