जब टेराकोटा मंदिरों के शहर/गांव की बात आती है, तो पश्चिम बंगाल के विष्णुपुर, अंबिका कलना का नाम अपने आप दिमाग़ में आ जाता है। लेकिन अगर कोई आपसे ऐसे शहरों/गाँवों के नाम पूछे, जहां मंदिरों को फूलपत्थर से सजाया गया है, तो शायद आपको कोई नाम नहीं सूझेगा। दरअसल ज़्यादातर लोग यह भी नहीं जानते, कि ‘फूलपत्थर’ या ‘लेटराइट (ज़ंग जैसी लाल मिट्टी)’ का मतलब क्या होता है!
पश्चिम बंगाल में बीरभूम के मोहम्मद बाज़ार सीडी ब्लॉक के गणपुर गांव और झारखंड के दुमका ज़िले के पास मलूटी गांव में कई छोटे मंदिर हैं, जिनके अगले हिस्से और कोनों में सॉफ़्ट स्टोन के बने पैनलों पर सुंदर नक़्क़ाशी है। नक़्क़ाशी में रामायण, महाभारत और पुराणों के विभिन्न मिथकों और विषयों को दर्शाया गया है। जिस सॉफ़्ट स्टोन पर ये नक़्क़ाशी की गई थी, उसे ‘फूलपत्थर’ कहते हैं। फूलपत्थर का रंग गहरे भूरे से लेकर गहरे लाल रंग का होता है। कहीं-कहीं इनसे मिलते-जुलते हल्के रंगो के पैटर्न भी देखे जा सकते हैं। चूंकि ये टेराकोटा के रंग की तरह दिखते हैं, इसलिये कई शोधकर्ता फूलपत्थर को टेराकोटा मान लेते होंगे।
यह फूलपत्थर दरअसल बारीक दाने वाले लेटराइट की एक स्थानीय क़िस्म होती है, जिसमें मिट्टी और पत्थर दोनों मिले होते हैं। अमूमन फूलपत्थर गहरे लाल रंग का होता है। बीरभूम के पाटुअओं (कारीगरों) ने मुरम को घिसकर बनाये गये रंगों से मंदिरों पर रंग-रोग़न किया है, जबकि गणपुर के सूत्रधारों (मंदिर बनाने वाले वास्तुकार) ने इससे मंदिरों को बनाया है, और फूलपत्थर से इसकी सजावट की है। कोलकता के सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ के डॉ. हितेशरंजन सान्याल अपनी किताब “बांग्लार मंदिर” (प्रकाशक: कारीगर, सन 2012) में लिखते हैं, “गणपुर मंदिर को सजाने वाले मूर्तिकारों में से, कुछ को जब जीवन की समझ थी। जब जीवन की समझ रखनेवाले कलाकार रचना करता है, तो उसमें जान पड़ जाती है- रचना में हाड़मांस और रक्त की गर्मी का संचार हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं, कि गणपुर में इस तरह का एक बड़ा प्रयास किया गया है।”
भौगोलिक रुप से बीरभूम की ज़मीन लाल रंग की है। जहां तक कृषि-जलवायु वर्गीकरण का सवाल है, बीरभूम ज़िला गंगा के निचले इलाक़े में आता है। भौतिक भूगोल के दृष्टि से देखें, तो इसका ऊपरी भू-भाग छोटानागपुर पठार के उत्तर-पूर्वी किनारे का हिस्सा है और यहां दक्षिण-पूर्व दिशा की तरफ़ बहने वाली दो महत्वपूर्ण नदियां: अजय और मयूराक्षी हैं। ये हुगली नदी की उप-नदियां हैं। इसका अधिकतर भाग लाल रंग की लैटेरिटिक मिट्टी से ढ़का हुआ है, जो छोटनागपुर ग्रैनिटोइड्स का एक ख़ास अपक्षय उत्पाद है। इस लाल रंग की मिट्टी को पकाकर सड़क बनाई जाती है।
यह प्रसिद्ध स्कॉटलैंड निवासी सर्जन और प्रकृतिवादी डॉ. फ्रांसिस हैमिल्टन-बुकानन थे, जिन्हें केरल के मल्लापुरम ज़िले में अंगदीपुरम नामक एक जगह में संयोग से एक खदान मिल गई थी। इसे अब भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने राष्ट्रीय भू-स्मारक घोषित कर दिया है। दरअसल बुकानन सन 1807 में देशभर की यात्रा पर निकले थे, और इसके अनोखे गुणों से मोहित होकर उन्होंने इस ओर दुनिया का ध्यान दिलाया। उन्हेंने इस बचे हुये उत्पाद का नाम लेटेरिट रखा।
एक समय था, जब ज़्यादातर इतिहासकार फूलपत्थर (लेटराइट) को टेराकोटा ही समझते थे। यह डेविड जे. मैककचियन थे, जिन्होंने पहली बार फूलपत्थर और टेराकोटा के बीच फ़र्क़ बताया था। मैककचियन एक प्रसिद्ध इंडोफ़ाइल यानी ऐसे विद्वान थे, जिनकी भारत के इतिहास, संस्कृति, यहां के धर्मों और खानपान में गहरी रुचि थी। बी. राय की संपादित “ ए नोट ऑन सम टैम्पल्स ऑफ़ बीरभूम डिस्ट्रिक ऑफ़ – सेंसस 1961 वेस्ट बंगाल डिस्ट्रिक सेंसस हैंड्स बुक बीरभूम (1966) में वह बताते हैं- “कुछ स्थानों में... फूलपत्थर या गिरीपत्थर का उपयोग अगले हिस्से और कोनों के लिए किया जाता है। इन पत्थरों पर नक़्क़ाशी टेराकोटा की तरह की जाती है। पहली नज़र में कुछ मंदिर जैसे सूरी का दामोदर मंदिर या गणपुर के मंदिर स्थापत्य शैली में टेराकोटा से सजाए गए ईंटों के मंदिरों की तरह दिखाई देते हैं, और इनकी सजावट की रूपरेखा भी बिल्कुल ईंट के मंदिरों के समान है। जहां तक मुझे पता है, इस पत्थर का उपयोग बीरभूम और आस-पास के क्षेत्रों (जैसे संथल परगना) तक ही सीमित है।”
गणपुर के पांच चार-चाला मंदिर
गणपुर गांव के मध्य में पांच मंदिरों की एक कतार है, जिनका मुंह दक्षिण की तरफ़ है। इन शिव मंदिरों का निर्माण अठारहवीं शताब्दी के अंत में गणपुर के एक संपन्न चौधरी परिवार के संरक्षण में हुआ था। प्रत्येक मंदिर के गर्भगृह के बीच में उस मंदिर की मूर्ति रखी थी। इन मंदिरों में से प्रत्येक के सिर पर एक त्रिशूल था।
बाईं ओर के पहले मंदिर के केंद्रीय पैनल पर रामायण में वर्णित एक युद्ध का चित्र बना हुआ है, जबकि सीधे खड़े हुये पैनलों पर देवी-देवताओं और फूलों के रूपांकन बने हुये हैं। दूसरे मंदिर के केंद्रीय पैनल में समुद्रमंथन की घटना और मोहिनी को अमृत वितरण करते हुये दर्शाया गया है। दुर्भाग्य से यह पैनल समय के साथ नष्ट हो गया। दूसरे मंदिर में एक विस्तृत नक़्क़ाशीदार साधे खड़े पैनल पर नव नारी कुंजर को दर्शाया गया है। नव का अर्थ है नौ, नारी का अर्थ है महिला और कुंजर का अर्थ है हाथी। यह अपने आप में एक बेहतरीन पैनल है, फूलपत्थर में जिसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है।
तीसरे मंदिर के बाचवाले पैनल पर महाभारत के दृश्य बने हुए हैं। इसमें चौपड़ खेलते हुए दुशासन को द्रौपदी की चीर हरण करते और भगवान कृष्ण को उन्हें बचाते हुए दिखाया गया है। ये चित्र बहुत विस्तृत ढ़ंग से महाभारत की धटनाओं को दर्शाते हैं। चौथे मंदिर की मेहराबों के ऊपर कृष्ण को जन्म को दिखाया गया है। इस पैनल पर नवजात कृष्ण को यशोदा तक ले जाने का विस्तृत चित्र बना हुआ है। सभी मंदिरों के निचले पैनल मुख्य रूप से अलग-अलग शैलियों के हैं, लेकिन खूबसूरत पुष्प रूपांकनों में इंसानी जीवन, पक्षियों और जानवरों की दुनिया का एक सामान्य चित्रण है।
थोड़ा उत्तर-पूर्व दिशा की तरफ़ चौदह शिव मंदिरों का एक परिसर है, और एक कच्चे सादे काली मंदिर के सामने एक डोल मंच है, जो आंगन की तरह है। इन मंदिरों का निर्माण भी स्थानीय चौधरी परिवार ने सन 1767 और सन 1779 के बीच करवाया गया था। परिसर के चारों तरफ़ एक दीवार है। मंदिर परिसर के मध्य में एक टिन शेड है, जहां देवी काली की वेदी रखी हुई है। ये सभी मंदिर ईंट से बने हैं, और अगले हिस्से पर फूलपत्थर की सजावट है, लेकिन दुर्भाग्य से समय के साथ सिर्फ़ कुछ ही पैनल बच पाए हैं। बचे हुए पैनलों में अनंतशयन मुद्रा में भगवान विष्णु, बांसुरी बजाते हुए कृष्ण, देवी दुर्गा, गणेश और कार्तिकेय आदि के चित्र बने हुए हैं। यहां भी लम्बे खड़े हुये पैनलों पर फूलों के रूपांकनों, योद्धाओं, नर्तकियों, विभिन्न देवी-देवताओं, विष्णु अवतार को दर्शाया गया है, जबकि नीचे की चित्रावली में मुख्य रूप से शिकार और जुलूसों के दृश्य बने हुए हैं।
गणपुर गांव की एक और कलात्मक सुंदरता है, सुसज्जित डोल मंच। डोल मंच एक विशिष्ट प्रकार का हिंदू मंदिर है। मंदिर का उपयोग केवल डोल पूर्णिमा के दौरान राधा-कृष्ण की गुप्त मिलन स्थल की यात्रा को दोबारा दिखाने के लिए किया जाता है। यह कालीताला मंदिर परिसर के उत्तरी भाग में मौजूद है। रसमंडल और कृष्ण के नृत्य, फूलों के रुपांकन, लतायें, रथ और चक्रों सहित अन्य अद्भुत कलात्मक काम डोल मंच की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं।
गणपुर के सबसे दिलचस्प आकर्षणों में से एक है विष्णु मंदिर। गणपुर के अन्य मंदिरों से बड़ा यह मंदिर मंडल परिवार का है। इस मंदिर में उकेरी गई फूलपत्थर की कारीगरी न सिर्फ़ ख़ूबसूरत है, बल्कि कमाल की भी है! अगले हिस्से में राम और रावण युद्ध, महिषासुर मर्दिनी दुर्गा और कार्तिकेय, बांसुरी बजाते कृष्ण के दृश्य बने हुए हैं। समय के साथ चबूतरा और स्तंभ के नीचे की चौकी उखड़ गई है। इस मंदिर के ऊपर पौधे उगते हैं। मंदिर के अलंकृत अगले हिस्से के सामने लकड़ी के ईंधन से चावल भट्ठी जलाई गई थी, जिसके धुएं की वजह से फूलपत्थर का रंग काला होने लगा था।
गणपुर के अलावा सूरी के दामोदर मंदिर, मल्लरपुर के मल्लेश्वरी मंदिर, और झारखंड के डुमका ज़िले में मालूती के मंदिरों में फूलपत्थर की सजावट देखी जा सकती है।
इस कला की सुंदरता और भव्यता ने इसे कला-प्रेमियों का तीर्थस्थल बना दिया है। लेकिन सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि भारतीय कला और वास्तुकला का यह ख़ूबसूरत नमूना हमेशा के लिये नष्ट हो जाये, उससे पहले इसे संरक्षित किया जाना चाहिए!
यहाँ कैसे पहुंचे
गणपुर शांतिनिकेतन बोलपुर से लगभग 50 किमी दूर है। एसबीएसटीसी की बसें बंगाल के विभिन्न हिस्सों से शांतिनिकेतन बोलपुर के लिए मिल जाती हैं।
आभार
बहुमूल्य जानकारी उपलब्ध कराने के लिए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व उप महानिदेशक, भूविज्ञानी सत्यब्रत गुहा का आभार।
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