गोवा की सीमा से लगे कर्नाटक के तट के पार एक छोटा सा द्वीप है, जिसे अंजदिवा कहते हैं। हालाँकि ये कर्नाटक के तरंग रोध (ब्रेकवाटर) से जुड़ा हुआ है ,लेकिन आधिकारिक रुप से ये गोवा का हिस्सा है और भारतीय नौसेना के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसके विस्तार का दूसरा चरण पूरा होने पर ये द्वीप एशिया में सबसे बड़े नौसेनिक अड्डे का हिस्सा बन जाएगा।
ज़्यादातर लोगों को ये नहीं पता है कि ये छोटा-सा द्वीप पिछले दो हज़ार सालों से कितना महत्वपूर्ण रहा है। दूसरी सहस्राब्दी में यहां रोम के व्यापारी ठहरा करते थे और बाद में पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को डी गामा यहां आए। सन 1966 में बॉम्बे के द्वीपों को अंग्रेज़ों के हवाले करने में भी इसकी भूमिका रही थी। इसके अलावा ये द्वीप सन 1961 में गोवा की आज़ादी का भी गवाह रहा है। इस तरह अंजदिवा द्वीप ने भारतीय इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
अंजदिवा कारवाड़ तट के पास पांच द्वीप समूह में सबसे बड़ा द्वीप है। अन्य द्वीप हैं- कुरनागल, मुडलिंगुड़, देवगढ़ और देवरागढ़। अंजदिवा नाम कैसे पड़ा, इसे लेकर दो बाते कहीं जाती हैं। पहली ये कि अंजदिवा मलयालम में अंजी (पांच) और दीव (द्वीप) शब्दें से लिया गया है। दूसरी ये कि इसका नाम अंजदुर्गा मंदिर के नाम पर पड़ा था. यह मंदिर कभी यहां हुआ करता था।
मुख्य भू-भाग से सिर्फ़ 1.6 कि.मी. दूर स्थित अंजदिवा द्वीप में पानी के मीठे होने का दावा है और यही वजह है कि मालाबार और गुजरात के बीच भारत के पश्चिमी तट पर आने वाले जहाज़ यहां रुका करते थे। इसका आरंभिक उल्लेख भूगोल शास्त्री टॉलमी (सन 150) द्वारा लिखित रोमन व्यापार नियमावली पेरीप्लस में देखा जा सकता है। इसमें भारत के पश्चिम तट पर ऐगीडी द्वीप का ज़िक्र है। इसमें ये भी लिखा है कि कैसे रोम के व्यापारी लाल सागर और मालाबार तट के बीच मॉनसून की हवाओं की मदद से यात्रा करते हुए यहां आकर रुकते थे।
पांचवी और छठी सदी के बीच इस द्वीप पर गोवा के कदम्ब राजाओं का शासन हुआ करता था। यहां खुदाई में एक मंदिर के स्तंभ मिले हैं। ये मंदिर शायद देवी अंजदुर्गा अथवा आर्यदुर्गा को समर्पित था। माना जाता है कि 9वीं सदी में कभी राजनीतिक उठापटक की वजह से देवी की प्रतिमा को कर्नाटक के गांव अंकोला ले जाया गया था। इस दौरान अरब के व्यापारी अपने जहाज़ों की मरम्मत के लिए बंदरगाह के रुप में द्वीप का इस्तेमाल करते थे।
15वीं सदी के आने तक यूरोप में खोज का युग शुरु हो चुका था। भूगोल शास्त्री जहां विश्व का नक्शा बना रहे थे, वहीं खोज यात्री नई ज़मीनों की तलाश में अज्ञात समंदरों में यात्राएं कर रहे थे। सन 1459 में इटली के मानचित्रकार फ़्रांसिस मौरो ने विश्व का मानचित्र बनाया जो उस समय का सबसे विस्तृत मानचित्र था। पुर्तगाली खोज यात्री वास्को डी गामा ने सन 1498 में भारत आने के लिए इसी मानचित्र का प्रयोग किया था।
कालिकट से वापस लिस्बन वापस जाते समय वास्को डी गामा अपने 170 सदस्यीय दल के साथ अपने जहाज़ की मरम्मत के लिए अंजदिवा रुका था। ये ख़बर क्षेत्र के अधिराज, बीजापुर के तत्कालीन सुल्तान आदिल शाह के पास पहुंची, जिन्होंने हालात की तहकीकात के लिए एक छोटी-सी फ़ौज भेजी. मगर ये तहकीकात एक जंग में तब्दील हो गई, जिसमें आदिल शाह के कमांडर को बंदी बना लिया गया। आश्चर्य की बात ये है कि ये कमांडर पोलैंड का यहूदी था (नाम अज्ञात) जो अपनी क़िस्मत आज़माने यूरोप से भारत आया था और बीजापुर दरबार में नौकरी कर ली थी। पुर्तगाली इस कमांडर को ईसाई बनाकर पुर्तगाल ले गए जहां वह गास्पर डी गामा नाम से प्रसिद्ध हो गया।
वास्को डी गामा की पुर्तगाल वापसी के बाद सन 1500 में पुर्तगाल के राजा ने पेड्रो अल्वारेस कैब्रल को लिस्बन से कालिकट भेजा। लेकिन कालिकट पहुंचने के पहले कैब्रल ने संयोग से ब्राज़ील की खोज कर ली। सन 1502 में भारत पहुँचने के बाद, वह एक महीने के लिए अंजदिवा में रुका। इस दौरान द्वीप के 23 स्थानीय निवासियों का धर्मांतरण कर उन्हें इसाई बनाया गया।
मार्च सन 1505 में पुर्तगाल का वाइसराय दोम फ़्रांसिस्को अल्मीडा भारत आया। उसने अंजदिवा पर कब्ज़ा कर वहां एक क़िला बनवाया।अंजदिवा भारत में पहला ऐसा क्षेत्र था जिसे पुर्तगालियों ने जीता था। पांच साल बाद यानी सन1510 में उन्होंने गोवा को जीत लिया।
क़िले के अलावा वाइसराय ने नोसा सनहोरा दास ब्रोतस चर्च (अवर लेडी ऑफ़ स्प्रिंग) भी बनवाया था, जो आज भी द्वीप में मौजूद है। समय के साथ पुर्तगालियों ने दक्षिण में कोचीन (कोच्चि) से लेकर उत्तर में बसेन (वसई) तक और क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया। इस दौरान अंजदिवा की एहमियत कम हो गई, तो इसे एक पिछड़ा इलाक़ा माने जाने लगा जहां मछुआरे और स्थानीय चर्च के पादरी रहते थे।
अंजदिवा फिर से सुर्ख़ियों में तब आया जब सन 1665 में इंग्लैंड के किंग चर्ल्स- द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ब्रेगेंज़ा से हुआ। दहेज़ में बॉम्बे के सात द्वीप अंग्रेज़ों को दिए गए थे। लेकिन पुर्तगाली गवर्नर ने बॉम्बे के सामरिक महत्व को देखते हुए इसे अंग्रेज़ों को सौंपने से इंकार कर दिया।
द्वीपों को क़ब्ज़े में लेने के लिएमार्लबोरो के अर्ल (कुलीन जन की उपाधि) की कमान में पांच जहाज़ों का एक बेड़ा भारत रवाना हुआ और अंजदिवा में रुका। दूसरी तरफ़ द्वीपों के लेनदेन की औपचारिकताएं पूरी होनी थीं। इन औपचारिकताओं में दो साल बीत गए और मौसम तथा रहने की ख़राब व्यवस्था की वजह से 500 सदस्यीय दल के सिर्फ़ 191 सदस्य ही ज़िंदा वापस जा सके। इसी तरह सन 1856 में महामारी की वजह से लोग अंजदिवा छोड़कर पणजी में जाकर बस गए जो आज गोवा की राजधानी है। अंजदिवा में बस मुट्ठी भर पुर्तगाली र्सैनिक ही बचे रह गए थे।
सन 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद पुर्तगालियों पर गोवा छोड़ने का बहुत दबाव था लेकिन उन्होंने प्रतिरोध किया। सन1950 के दशक में गोवा में उथल-पथल के बावजूद अंजदिवा शांत और अनछुआ स्वर्ग रहा। लेकिन 24 नवंबर सन 1961 को अचानक सब कुछ बदल गया। स्थानीय पुर्तगाली सेना ने भारतीय स्टीमर एस.एस. साबरमती पर गोली चलाई, जो द्वीप के काफ़ी पास से गुज़र रहा था। इस घटना में चालक दल का एक सदस्य घायल हो गया और एक यात्री की मौत हो गई। ये उन तमाम घटनाओं में से एक थी जिसकी वजह से 16 दिसंबर सन 1961 को गोवा आज़ाद हुआ। अंजदिवा को भारतीय सेना ने 22 दिसंबर सन 1961 को अपने कब्ज़े में ले लिया। कब्ज़े की लड़ाई में सात भारतीय सैनिक शहीद हो गए जिनकी याद में वहां एक स्मारक बनाया गया था।
लंबे समय तक एस.एस. साबरमती पर गोलीबारी को एक छिट-पुट घटना माना जाता रहा, लेकिन बाद में पता चला कि ये गोवा में आज़ादी की लड़ाई को भड़काने में, भारतीय गुप्तचर सेवा के गुप्त ऑपरेशन भी एक हिस्सा था। ये सनसनीख़ेज़ ख़ुलासा भारतीय राजदूत वी. सिद्धार्थचारी ने किया था जिन्होंने भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन की सलाह पर इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था। इसमें गोवा की पुर्तगाली सरकार में शामिल एक भारतीय जासूस भी शामिल था।
अपनी आत्मकथा ब्राह्मैनिक विन्येट: डिप्लोमैट्स नॉस्टेल्जिया (2013) में सिद्धार्थचारी लिखते हैं:
“मैं जनरल चौधरी (दक्षिण कमांड के) से तब मिला था जब वह शंघाई आए थे और उन्हें मैंने कुछ चीनी कलाकृतियां भेंट की थीं जो उन्हें मेरी याद दिलाती रहीं। वह मुझसे मिलकर बहुत ख़ुश हुए और मैंने उन्हें मेरी योजना के बारे में बताया। यात्री जहाज़ एस.एस. साबरमती काठियावाड़ में कांडला से बॉम्बे होता हुआ कोझिकोड जाता था। ये जहाज़ दक्षिणी गोवा तट में अंजदिवा से गुज़रता था। मेरा सुझाव था कि जितना संभव हो सके साबरमती स्टीमर को द्वीप के पास ले जाना चाहिए ।”
“द्वीप की चट्टान पर पुर्तगालियों की एक चोकी थी। भारतीय मछुआरे गोवा के समुद्री क्षेत्र से दूर तट पर मछली पकड़ते रहते थे। अगर हम चट्टान के ऊपर से साबरमती जहाज़ पर, पुर्तगालियों से गोलीबारी करवाएंगे तो इसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन माना जाएगाऔर हमें बदला लेने का मौक़ा मिल जाएगा। इस तरह युद्ध की वजह मिल जाएगी इसके पहले गोवा में एक आंदोलन होगा ठीक वैसा ही जिसकी वजह से सन 1955 में पुर्तगाल से संबंध टूट गए थे।”
“इसके बाद मैंने पुर्तगाली सरकार में हमारे जासूस(x) के बारे में अपना आंकलन बताया। उसे बताया जाना चाहिए (ए) गोवा में आंदोलन के बारे में, (बी) द्वीप के क़रीब जाहाज़ के जाने के बारे में, (सी) ये दिखावा करना कि दादर और नागर हवेली की तरह द्वीप की जनता द्वीप पर कब्ज़ा कर सकती है, (डी) अगर ये पता लगता है कि द्वीप में कोई कारगर पुर्तगाली रक्षा चौकी नहीं हो तो द्वीप पर कब्ज़ा हो जाएगा।”
“इसके विपरीत, भारतीय जासूस गोवा के वाइसराय से कहेगा कि अगर चौकी से एस.एस. साबरमती पर गोलीबारी की जाती है तो अंजदिवा द्वीप पर कब्ज़ा करने का प्रयास विफल हो जाएगा। इस बात पर सभी सहमत हो गए और इस योजना पर अमल करने का फ़ैसला किया।”
सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के बाद भारी व्यावसायिक यातायात, मछुआरों और पर्यटन की वजह से भारतीय नौसेना को पश्चिमी कमांड बेड़े को लेकर बहुत परेशानी हो रही थी। इसलिए एक नयी सुरक्षित जगह चुनने का फ़ैसला किया गया। नौसेना ने अंजदिवा द्वीप को चुना जो सामरिक दृष्टि से मुनासिब था। मुख्य कर्नाटक में कारवाड़ में इसका मुख्यालय बनाने का फ़ैसला किया गया।
इस परियोजना की परिकल्पना सन 1980 के दशक में की गई थी. सन 1999 में मंज़ूरी मिलने के बाद, सन 2004 में इसको अड्डा बनाने का काम शुरु हुआ और आई.एन.एस. कदंब का नाम दिया गया। अभी ये परियोजना अपने दूसरे चरण में है। इसके पूरा होने पर ये स्वेज़ नहर के पूर्व में सबसे बड़ा नौसेनिक अड्डा बन जाएगा। सन 2004 से अंजदिवा द्वीप भारतीय नौसेना के अधिकार क्षेत्र में है। यहां बहुत कम लोग रहते हैं और सिर्फ़ दो चर्च ही बाक़ी रह गए हैं। इस ऐतिहासिक क्षेत्र में आम प्रवेश प्रतिबंधित है । लेकिन अपने ताज़ा अवतार में आज भी अंजदिवा, भारतीय नौसेना के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है जैसा कि वो पिछले दो हज़ार सालों से निभाता आ रहा था।
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