भारत में एलोरा का पत्थर तराशकर बनाया गया कैलाश मंदिर इस तरह का सबसे प्रसिद्ध मंदिर है। लेकिन क्या आपको पता है कि कर्नाटक के ज़िले बागलकोट में ऐहोल में भी चट्टान को काटकर बनाए गए मंदिर हैं जो उतने ही विशिष्ट हैं जितना कि कैलाश मंदिर? ये मंदिर हमें दक्षिण भारत में बादामी के सबसे शक्तिशाली राजवंश चालुक्य के इतिहास बारे में जानकारी देते हैं।
6ठी तथा 8वीं शताब्दी के दौरान शुरुआत में चालुक्य राजवंश बादामी (वतापी) से दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्सों पर शासन करता था। इस दौरान उसने चट्टान काटकर और पत्थरों से भी कई स्मारक बनवाने की शुरुआत की थी। कर्नाटक की मलप्रभा नदी घाटी में ऐहोल, बादामी और पत्तदकल में फैले सैंकड़ों स्मारक और मंदिर इस बात के गवाह हैं।
ऐहोल उत्तर कर्नाटक में पूर्वी बेलगाम शहर से क़रीब 177 कि.मी. दूर बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी के तटों पर स्थित है। ऐहोल चालुक्य राजवंश के आरंभिक शासनकाल और फिर बाद के वर्षों में निर्मित कई मंदिरों का गढ़ है। यहां एक सौ से ज़्यादा मंदिर है जो ज़्यादातर हिंदू मंदिर हैं। यहां कुछ जैन मंदिर भी हैं तथा एक बौद्ध स्मारक भी है। ये स्मारक छठी शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के हैं लेकिन ज़्यादातर हिंदू मंदिर और तीर्थ स्थल छठी और 8वीं शताब्दी हैं। ये वो समय था जब शहर समृद्धि और शक्ति के मामले में अपने चरमोत्कर्ष पर था।
अलग अलग ऐतिहासिक पुस्तकों और सूत्रों में ऐहोल का अय्यावोल, आर्यपुर, ऐवल्ली और अहिवोला नाम से उल्लेख मिलता है। लोककथाओं और स्थानीय किवदंतियों के अनुसार ऐहोल का संबंध विष्णु के छठे अवतार परशुराम से है। कहा जाता है कि मलप्रभा नदी तट पर कुल्हाड़ी की तरह की एक चट्टान है जहां परशुराम ने क्षत्रियों का वध करने के बाद अपनी कुल्हाड़ी धोयी थी। कहा जाता है कि चट्टान पर परशुराम के पैरों के निशान भी हैं। लोक-कथाओं के अनुसार जब परशुराम ने अपनी कुल्हाड़ी धोयी तो नदी का रंग लाल हो गया था जिसे देखकर लोग “ऐ! ऐ ! होली! (आह नदी), कहने लगे और इस तरह इस स्थान का नाम ऐहोल पड़ गया।
ऐहोल का इतिहास काफ़ी पुराना है। पुरातत्वविदों के अनुसार मलप्रभा घाटी में ऐहोल में और इसके आसपास प्रागैतिहासिक स्थल मिले हैं जो पाषाण काल औऱ महापाषाण काल के समय के हैं। ऐहोल में मेगुती पर्वत पर आज भी महापाषाण काल के कई डॉलमेन देखे जा सकते हैं। दो या इससे अधिक खंबों पर टिकी विशाल सपाट चट्टान के ढ़ांचे को डॉलमेन कहते हैं। ऐहोल की खुदाई में चालुक्य राजवंश के पहले के समय के अंबीबरगुडी मंदिरों में ईंटो के ढ़ांचे मिले हैं जो सातवाहन काल (दूसरी ई.पू. शताब्दी से दूसरी शताब्दी) के माने जाते हैं। लेकिन ऐहोल सुर्ख़ियों में चालुक्य शासनकाल में ही आया था।
माना जाता है कि ऐहोल आरंभिक चालुक्यों की राजधानी या फिर प्रमुख केंद्र था। कदंब राजवंश (345-525 ईस्वी) के पतन के बाद उनके चालुक्य जागीरदारों ने 6ठी ईस्वी में ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। चालुक्य राजवंश के आरंभिक शासकों के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती लेकिन हम ये जानते हैं कि चालुक्य राजवंश के तीसरे शासक पुलाकेशिन प्रथम (540-566 ई.) ने 543 ई. में बदामी को अपनी राजधानी बनाया था। पुलाकेशिन प्रथम के पहले ऐहोल चालुक्यों की या तो राजधानी थी या फिर एक महत्वपूर्ण केंद्र था। महाकुट (मौजूदा समय में बागलकोट ज़िला) में खंबों पर अंकित अभिलेखों में आरंभिक शासक जयसिम्हा (500-520 ई.) का प्रथम शासक के रुप में उल्लेख मिलता है। इसके बाद उसके पुत्र और उत्तराधिकारी राणारंगा (520-540 ई.) का ज़िक्र मिलता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि ये दोनों शासक कदंब के सैन्य अधिकारियों के रुप में ऐहोल से शासन करते होंगे।
चालुक्यों ने अगले दो सौ साल तक राज किया और पुलाकेशिन द्वतीय के शासनकाल में इनका साम्राज्य ख़ूब फलाफूला। साम्राज्य की राजनीतिक सीमा नर्मदा से लेकर कावेरी तक फैल गईं थी।
पुलाकेशिन प्रथम के पोते पुलाकेशिन-द्वतीय ने कांची के पास पल्लव राजा महेंद्र वर्मन को हराकर अपना साम्राज्य दक्षिण की तरफ़ बढ़ा लिया। चालुक्य राजवंश के आरंभिक शासकों के शासनकाल में मलप्रभा, ऐहोल, बादामी और पटाकद्दल क्षेत्र बहुत समृद्ध हुए।
चालुक्य के बाद थोड़े समय के लिये इन क्षेत्रों पर राष्ट्रकुट साम्राज्य का शासन हो गया जिन्होंने 9वीं और 10वीं शताब्दी में अपनी राजधानी मान्यखेटा (मलखेडा) से शासन किया था। 11वीं औऱ 12वीं शताब्दी में बाद के चालुक्य शासकों या पश्चिमी चालुक्यों ने इन क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया। वे दक्क्न में अपनी राजधानी कल्याणी से शासन करते थे।
दक्कन के शाथ साथ इस क्षेत्र की भी राजनीतिक स्थिति बदल गई। 13वीं शताब्दी में दिल्ली सलत्नत की सेना ने मलप्रभा घाटी और दक्कन के अन्य इलाक़ों पर हमला बोलकर उन्हें तहसनहस कर दिया। इसके बाद 14वीं शताब्दी में यहां विजयनगर साम्राज्य का शासन हो गया। सन 1556 में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद ऐहोल आदिल शाही शासन का हिस्सा बन गया जो बीजापुर से शासन करते थे। इस समय के दौरान कुछ मुस्लिम कमांडर मंदिरों को अपने घरों और मंदिर परिसरों को शस्त्रागार तथा रसद गौदामों के रुप में इस्तेमाल करने लगे थे। दक्कन की तरह मलप्रभा घाटी भी मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (17वीं शताब्दी) के अधीन आ गई। औरंगज़ेब के बाद यहां मराठों, मैसूर के सुल्तानों और अंत में अंगरेज़ों (18वीं शताब्दी) का शासन हो गया।
चालुक्य राजवंश के आरंभिक शासकों के समय समृद्ध ऐहोल, पत्तदकल और बदामी प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र बन गए थे जहां वास्तुकला के नये नये प्रयोग होते थे। ऐहोल के मंदिरों में उत्तरी और दक्षिणी मंदरों की वास्तुकला शैली के आरंभिक चरण दिखाई पड़ते हैं। मंदिरों की इस शैली को औऱ निखारा गया तथा बदामी के मंदिरों को इसी परिष्कृत शैली से बनवाया गया जिसे पत्तदकल के स्मारकों में देखा जा सकता है। इस तरह मंदिर वास्तुकला का क्रमागत विकास हुआ।
ऐहोल व्यापार संघ का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था और इसके अलावा शिक्षा का भी केंद्र था। दक्षिण भारत के व्यापार संघों में 9वीं तथा बाद की शताब्दियों का अय्योवोले व्यापार संघ सबसे प्रसिद्ध था। भारतीय व्यापारियों का शक्तिशाली संघ ऐहोल में स्थित था। बाद में वे देश के अन्य हिस्सों में फैल गए। ऐहोल के 800 ई. के शिला-लेख में इस संघ का सबसे पुराना उल्लेख मिलता है। इसके बाद तमिलनाडु में पुड्डुकोट्ठी में सन 927 के शिला-लेख में भी इसका ज़िक्र है। यहां शिक्षा का भी केंद्र था जहां पढ़े-लिखे क़रीब पांच सौ ब्राह्मण थे।
हिंदू मंदिर
ऐहोल क़रीब पांच वर्ग कि.मी में फैला हुआ है। यहां क़रीब 150 मंदिर हैं जिनमें से कुछ झुंडों में हैं जो मेगुती पर्वत के साथ साथ पूरी दृश्यावली में छाए हु हैं। ज़्यादातर हिंदू मंदिर शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य और अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। जैन मंदिर महावीर, पार्शवनाथ, नेमीनाथ और अन्य जैन तीर्थांकरों को समर्पित हैं। यहां के मंदिर मंदिर निर्माण की अलग अलग शैलियों तथा तत्वों का समागम और मिश्रण है। यहां आप चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों की प्राचीन शैली, उत्तर भारत की शिखर तथा मंडप वाली मंदिर शैली देख सकते हैं। यहां पर द्रविड वास्तुकला का आरंभिक रुप भी दिखाई पड़ता है।
कुछ महत्वपूर्ण मंदिर इस तरह हैं–
रावण फाड़ी गुफा मंदिर
ऐहोल में रावण फाड़ी मंदिर चट्टानों को काटकर बनाए गए सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। ये मंदिर 6ठी शताब्दी का है। मंदिर परिसर में एक नंदी चबूतरा और एक स्तंभ है। गुफा के अंदर तीन मंडप हैं और सबसे अंदर वाले मंडप में शिवलिंग है। माना जाता है कि रावण फाड़ी की योजना बादामी गुफाओं की योजनाओं का ही एक विकसित रुप है। गुफा के अंदर तराशी हुई चट्टानों पर शिव (नटराज) के साथ पार्वती, सप्तमात्रिका (शक्तिवाद परंपरा की सात माताएं), गणेश, कार्तिकेय, विष्णु और लक्ष्मी की छविया अथवा मूर्तियां बनी हुई हैं।
लाड ख़ान मंदिर
माना जाता है कि शिव को समर्पित ये मंदिर ऐहोल का सबसे पुराना मंदिर है। कुछ विद्वान इसे 5वीं शताब्दी का बताते हैं जबकि कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि ये 7वीं शताब्दी का है। अगर ये वाक़ई 5वीं शताब्दी का है तो फिर ये सबसे पुराना मंदिर कहा जाएगा।
मंदिर की सामने की दीवार पर एक अभिलेख है जिसमें राजधानी आर्यपुर में एक व्यक्ति द्वारा प्रबुद्ध लोगों के एक संगठन को अनुदान देने का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख का यूं तो मंदिर से कोई संबंध नहीं है लेकिन शायद ये स्थान अनुदान के बारे में जानकारी देने के उपयुक्त होगी। मंदिर दो हिस्सों में बंटा है। एक हिस्से में खंबों पर टिका एक चौकोर सभागार है जिसमें खंबों वाला एक आयताकार अहाता भी है। सभागार के पीछे वाली दीवार के सामने एक गर्भगृह है। मंदिर के स्तंभ इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत हैं। मंदिर के अंदर की खिड़कियां जालीदार हैं और इसकी छत पत्थरों के पटियों की बनी है जो लकड़ी के भवनों की छत की तरह लगती है। ये मंदिर एक ऊंचे अधिष्ठान यानी प्लिंथ पर आधारित है। कहा जाता है कि मंदिर का नाम आदिल शाही सुल्तान के एक मुस्लिम कमांडर के नाम पर रखा गया है जो यहां कुछ समय के लिये रुका था और जो यहां से सैन्य संचालन करता था।
दुर्ग मंदिर
ऐहोल में दुर्ग मंदिर आरंभिक चालुक्य वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। कहा जाता है कि ये अलंकृत मंदिर कुमार सिंह ने बनवाया था जो 17वीं शताब्दी के अंत में या फिर 18वीं शताब्दी के आरंभ में प्रसिद्ध अय्यावोले व्यापार संघ का एक प्रमुख सदस्य था। ये मंदिर दर्शाता है कि कैसे चालुक्यों ने उत्तर और दक्षिण वास्तुकला के तत्वों को अपनी वास्तुकला में समाहित किया। ये मंदिर अपनी गजपृष्ठाकार योजना की वजह ससे अनूठा है। ये विन्यास महाराष्ट्र में अजंता की गुफाओं में मिले बौद्ध चैतन्य सभागारों से काफ़ी मिलता जुलता है।
मंदिर की बनावट कुछ ऐसी है कि इसका आंशिक गोलाकार गर्भगृह एक गलियारे से घिरा हुआ है और पूर्व की दिशा में खंबों वाला एक सभागार है। यहां एक छोटे से अहाते से प्रवेश किया जाता है। गर्भगृह के प्रवेश मार्ग में कई आले हैं जिनमें शैव और वैष्य देवी-देवताओं की मूर्तियां उंकेरी हुई हैं। इनमें प्रमुख मूर्ति आठ हाथों वाली दुर्गा की है जो अपनी सवारी शेर के साथ हैं साथ में बैल के रुप में असुर महिषा है। मंदिर का शिखर उत्तरी मंदिर शैली की तरह है। मंदिर के सामने दो सीढ़ियां हैं जहां से प्रवेश किया जाता है।
मंदिर एक ऊंचे प्लिंथ पर है और प्रकोष्ठों के बाहरी हिस्सों में मूर्तियां बनी हुई हैं जो अहाते तक फैली हुई हैं। दिलचस्प बात ये है कि मंदिर एक क़िलेबंद दीवार के मलबे पर खड़ा है इसीलिये इसे दुर्ग (क़िला) मंदिर कहा जाता है।
दुर्ग मंदिर परिसर में ऐहोल संग्रहालय और कला दीर्घा भी है जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण करता है।
इसके अलावा ऐहोल में हिंदू मंदिरों के कई झुंड में इधर उधर बिखरे पड़े हैं। इनमें हुच्चपाया मठ (7वीं शताब्दी) और हुच्चपाया गुडी मंदिर (6ठी-7वीं शताब्दी), अंबीबरगुडी मंदिर, ज्योतिरलिंगा मंदिर(7वीं-8वीं शताब्दी), मलिकार्जुन मंदर (8वीं शताब्दी) आदि शामिल हैं। ज्योतिरालिंगम मंदिरों के समूह में 16 हिंदू मंदिर और स्मारक शामिल हैं। इनमें एक सीढ़ी वाला बड़ा कुआं भी है। पुरातत्व की दृष्टि से अंबीबरगुडी मंदिर बहुत महत्वपूर्ण हैं। यहां खुदाई में लाल रंग के कटोरे मिले हैं जो प्रथम और द्वतीय शताब्दी के हैं। इसके अलावा खुदाई में एक प्रकोष्ठ वाला ईंट का एक मंदिर भी मिला है।
एक अन्य महत्वपूर्ण मंदिर है गौदारगुडी मंदिर जिसमें सीढ़ी वाला एक बड़ा कुआं है जिसमें पानी जमा किया जाता था। विद्वानों के अनुसार ये कुआं 10वीं या 11वीं शताब्दी में बनवया गया था।
जैन मंदिर
ऐहोल में 6ठी से लेकर 12वीं शताब्दी तक के क़रीब दस जैन स्मारकों के चार समूह सुरक्षित हैं। इनका संबंध मीना बस्ती से है जिसे मीना वसाडी भी कहा जाता है। ये स्मारक बौद्ध और हिंदू स्मारकों के साथ ही हैं। ये गांव के दक्षिण में एक हिंदू मंदिर के पास मेगुती पर्वत, चरनाथ मठ, योगी नारायण परिसर और पुराने जैन गुफ़ा मंदिर के पास हैं।।
मेगुती मंदिर
मेगुती मंदिर मेगुती पर्वत के किनारे स्थित है जिसके पूर्व की तरफ गांव है। ये महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है क्योंकि यहां पश्चिमी चालुक्य राजा पुलाकेशिन द्वतीय (610-642) का प्रशस्ति अभिलेख है। संस्कृत भाषा और कन्नड लिपि मे लिखित अभिलेख में पुलाकेशिन द्वतीय के हाथों कन्नौज के राजा हर्षवर्धन की हार का उल्लेख है। ये अभिलेख 634 ई. का है। ये अभिलेख राजा के दरबारी कवि रवि कीर्ति ने लिखा था जिसमें राजा का महिमा मंडन किया गया है। कवि ने पुलाकेशिन द्वतीय के पहले के उसके राजवंश का इतिहास भी इस अभिलेख में उल्लेख किया है।
जैन तीर्थांकर नेमीनाथ को समर्पित इस मंदिर में एक प्रदक्षिणा पथ है जिसके आसापस छह दीवारें हैं। इसके तले में गणों और पशुओं के पैनल हैं और बाहरी हिस्सा साधारण है।
मेगुती पर्वत की दक्षिम पूर्व दिशा में एक जैन गुफा है। गुफा के बरामदे में बदामी की जैन गुफाओं की तरह तीर्थांकरों की मूर्तियां हैं। मंदिर में महावीर की मूर्ति है।
जैन मंदिरों का एक अन्य समूह है योगीनारायण ग्रुप जिसमें चार मंदिर है जो महावीर और पार्शवनाथ को समर्पित हैं। चर्णार्थी माता ग्रुपमंदिर 12वीं शताब्दी के हैं और इसमें तीन जैन मंदिर हैं जो चालुक्य वास्तुकला शैली के हैं।
बौद्ध स्मारक
ऐहोल के ज़्यादातर मंदिर हिंदू हैं क्योंकि चालुक्य राजा वैष्णव और शैव संप्रदाय के थे। लेकिन यहां जैन और बौद्ध मंदिरों का मिलना दर्शाता है कि उस समय दूसरे धर्मों के आस्था के लोग भी साथ साथ रहते थे।
मेगुती मंदिर के नीचे चट्टान को काटकर बनाया गया एक बौद्ध स्मारक है जो छठी शताब्दी का है। ये स्मारक दो स्तरों वाला है और सामने इसके एक बरामदा है। निचले स्तर का मध्य गर्भगृह के साथ दो प्रकोष्ठ है जो संकरे गलियारे में खुलते हैं। ऊपरी स्तर के गर्भगृह मे अहाते से प्रवेश होता है। प्रवेश द्वारों पर छवियां उंकेरी हुई हैं। यहां बुद्ध की दो प्रतिमाएं हैं। मदिर के सामने एक प्रतिमा क्षतिग्रस्त है। दूसरी मूर्ति ऊपरी स्तर के गर्भागृह में हैं।
ऐहोल का क़िला
ऐहोल में एक क़िले और क़िलेबंद दीवारों के अवशेष भी हैं। 543-33 ई. के क़रीब पुलाकेशिन प्रथम ने बादामी में एक मज़बूत क़िला बनवाया था। बादामी जहां एक तरफ़ से छोटी पहाड़ियों के वजह से सुरक्षित था वहीं ऐहोल की सुरक्षा कमज़ोर थी। कहा जाता है कि इसी समय ऐहोल में भी एक क़िला बनाया गया था। ये क़िला लगभग गोलाकार अंडे के आकार का है।
क़िले के उत्तर, पर्व और पश्चिम दिशा में तीन प्रवेश द्वार होते थे। क़िले की सुरक्षा के लिये नियमित रुप से सुरक्षा के इंतज़ाम किये जाते थे। ये क़िला 4-5 एकड़ ज़मीन पर बनाया गया था और पहाड़ी के ऊपर मेगुती मंदिर था। मेगुती मंदिर के आसापस एक क़िलेबंद दीवार बनाई गई थी। क़िलेबंद क्षेत्र में मंदिरों , मूर्तियों, दीवारों और पुराने भवनों के अवशेष देखे जा सकते हैं। ये अवशेष आरंभिक चालुक्य राजवंश के साक्षी हैं।
ऐहोल सही मायने में हिंदू वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है जहां मंदिर निर्माण के विकास की झलक मिलती है। आप जब भी कर्नाटक जाए, ऐहोल, बादामी और पट्टाकडल को देखना न भूलें।
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