दिल्ली में लोधी गार्डन लोगों की एक पसंदीदा जगह है। लोग शहर की हलचल से भागकर थोड़ा तफ़रीह के लिये यहां आते हैं। लेकिन इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिये लोधी गार्डन में कई दिलचस्प चीज़ें हैं। यहां सैयद, लोधी और मुग़ल काल के कई स्मारक, मक़बरे और अन्य भवन मौजूद हैं।
सफ़दरजंग मक़बरे और ख़ान मार्केट के बीच लोधी रोड पर स्थित लोधी गार्डन 90 एकड़ भूमी पर फैला हुआ है। 13वीं शताब्दी में इसे बाग़-ए-जुड़ या जोड़ बाग़ कहा जाता था। इससे पता चलता है कि शायद तब भी ये एक बाग़ हुआ करता था। दिलचस्प बात ये है कि गार्डन का दक्षिणी इलाक़ा आज जोर बाग़ नाम से जाना जाता है। इतिहासकार और लेखिक डॉ. स्वपना लिडल अपनी किताब “दिल्ली 14: हिस्टॉरिक वॉक्स” (2011) में लिखती हैं कि ये इलाक़ा उस समय बाग़ के लिये मुनासिब था क्योंकि तब यहां यमुना की एक सहायक नदी बहती थी।
15वीं और 16वीं शताब्दी के बाद ये बाग़ एक तरह से शाही मकबरों का स्थान बन गया था। 15वीं सदी के आरंभ में दिल्ली सल्तनत पर सैयद वंश का कब्ज़ा था। तैमूर के हमले के बाद वे सत्ता में आए थे। तुर्क-मुग़ल हमलावर तैमूर के हमले के बाद तुग़लक़ वंश (1320-1414) का पतन हो गया था।
ख़िज़्र ख़ान सैयद राजवंश का संस्थापक था। उसके बाद उसका पुत्र मुबारक शाह उसका उत्तराधिकारी बना जिसने 1421 में पिता की मृत्यु के बाद एक दशक से ज़्यादा समय तक शासन किया। उसके बाद तीसरे शासक मोहम्मद शाह ने 1434 से लेकर 1444 तक शासन किया। सैयद राजवंश का साम्राज्य कमज़ोर और सीमित था। इसालिये वह भवन निर्माण भी कम ही कर पाए।
दिल्ली सल्तनत के अंतिम राजवंश लोदी राजवंश (1451-1526) ने सैयद राजवंश को समाप्त कर दिया था। लोदी राजवंश के पहले शासक बहलोल ने सैयद राजवंश को हराकर लोदी शासन की स्थापना की थी। बहलोल लोदी के पुत्र सिकंदर लोदी ने सन 1489 से लेकर सन 1517 तक शासन किया। उसका साम्राज्य पंजाब से लेकर बिहार तक फैला हुआ था और उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा के सिकंदरा को बना लिया था। उसके बाद उसके पुत्र इब्राहीम लोदी का शासन हो गया।
लोधी गार्डन के ज़्यादातर मक़बरे सैयद और लोधी शासन काल के हैं। माना जाता है कि चूंकि क़रीब ही सूफ़ी संत निज़ामउद्दीन औलिया का मज़ार था इसलिये शासकों को भी यहां दफ़नाया जेने लगा था।
डॉ. लिडल अपनी किताब में लिखती हैं कि हालंकि इन राजवंशों का शासनकाल बहुत लंबा नहीं था फिर भी 15वीं और 16वीं शताब्दी में दी गार्डन में लोग आया करते थे। इसका कारण गार्डन की भौगोलिक स्थिति हो सकती है जो मेहरोली ( एक उप नगर) से उस समय की राजधानी (पुराना क़िला ) तक जाने वाली सड़क पर स्थित था।
बाबर ने सन 1526 के पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लीदी को हराकर भारत में मुग़ल शासन की स्थापना की और इस तरह से लोदी सल्तनत का अंत हो गया। कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर (1556-1605) लोधी गार्डन को वेधशाला के रुप में इस्तेमाल करता था और उसने यहां दस्तावेज़ों को रखने के लिये एक लाइब्रेरी भी बनवाई थी।
8वीं शताब्दी के दौरान जब मुग़ल साम्राज्य का पतन होने लगा था, दिल्ली पर कई आक्रमण हो रहे थे। इसकी वजह से शहर के लोग और ग्रामवासी वीरान मस्जिदों तथा मक़बरों में पनाह ले लेते थे। लोगों ने लोधी गार्डन को भी अपना रहने का ठिकाना बना लिया था और इस तरह यहाँ ख़ैरपुर गांव बस गया।
20वीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेज़ों का ध्यान लोधी गार्डन की तरफ़ गया। सन 1911 में अंग्रेज़ सरकार ने कलकत्ता के बजाये दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा की। लोधी गार्डन नयी राजधानी दिल्ली के मुहाने पर था। सन 1913-1914 में यहां कई भवनों में मरम्मत का काम हुआ। सन 1936 तक आते आते ख़ैरपुर गांव में रहनेवाले लोगों को कोटला मुबारकपुर और पंजाब में बसा दिया गया। तब लोधी गार्डन हरीभरी एक सुंदर जगह में तब्दील हो चुका था। इसका नाम ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड विलिंग्डन की पत्नी के नाम पर लेडी विलिंग्डन पार्क रखा गया था। लोधी गार्डन के उत्तरी द्वार पर पुराने नाम के साथ एक पट्टिका आज भी देखी जा सकती है।
सन 1960 के दशक में आज़ादी के बाद इसका नाम लोधी गार्डन पड़ा। उसी समय प्रसिद्ध वास्तुकार जे.ए. स्टैन ने इसका डिज़ाइन दोबारा बनाया था। स्टैन ने लोधी गार्डन परिसार के आस पास के अन्य भवनों को दोबारा डिज़ाइन किया था। लोधी गार्डन में कई स्मारक हैं जिनका अपना इतिहास है। चलिये एक नज़र डालते हैं इन स्मारकों पर।
बुर्ज
लोधी गार्डन में मक़बरों और मस्जिदों के बीच ये टावर जैसा बुर्ज सबसे पुराना माना जाता है जो गार्डन के द्वार तीन के पास स्थित है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये एक अहाता के किनारे का हिस्सा रहा होगा जो अब नहीं हैं। अंग्रेज़ लेखक सिमोन डिगबी सहित कुछ विद्वानों के अनुसार इस अहाते में बड़ा गुंबद और शीश गुंबद होते थे। इस अहाते में एक झरोखा है जिसके उपर दो मेहराब हैं और नीचे एक छोटा कमरा है।
मोहम्मद शाह सैयद का मक़बरा
लोधी गार्डन परिसर में सबसे महत्वपूर्ण मक़बरों मे एक मक़बरा है मोहम्मद शाह सैयद का जिसने 1434-1443 के दौरान शासन किया था। सन 1443 में मोहम्मद शाह के देहांत के बाद उसके पुत्र अलाउद्दीन शाह ने अपने पिता का मक़बरा बनवाया। ये मक़बरा अष्टकोण है। मक़बरे के प्रमुख प्रकोष्ठ में मेहराबदार बरामदा है और यहां उसके परिजनों तथा करीबी रिश्तेदारों की क़ब्रें हैं। मक़बरे के अंदर अस्तरकारी का काम है और इसके पैटर्न लाल तथा नीले रंग के हैं। मक़बरे की छत पर बहुत सजावट है। मक़बरे के ऊपर एक बड़ा गुंबद है जिस पर आठ छतरियां हैं। दिलचस्प बात ये है कि मक़बरे के दूसरी तरफ़ ताड़ के पेड़ों की क़तार है। कहा जाता है कि ये पेड़ क्यूबा से लाए गए थे।
बड़ा गुंबद
लोधी गार्डन के एक हिस्से के मध्य में एक विशाल भवन है। कहा जाता है कि ये लोदी राजवंश के समय का है। माना जाता है कि ये बड़ा गुंबद दरअसल एक भव्य प्रवेश द्वार हुआ करता था। इसके अंदर कोई क़ब्र नहीं है। ये भवन दिल्ली में लोदी काल के सबसे सुंदर और सबसे बड़े भवनों का एक नमूना माना जाता है।
बाहर से ये दो मंज़िला भवन लगता है लेकिन इसका सिर्फ़ एक प्रकोष्ठ है। इसकी छत बहुत सुंदर और ऊंची है। भवन चौकोर है और इसके ऊपर एक गुंबद है। इसमें बहुत कम साजसज्जा है। इसमें गुलाबी तथा भूरे-काले बालुपत्थर का काम है और प्रवेश द्वार कड़ियों वाले हैं।
बड़ा गुंबद मस्जिद
बड़े गुंबद का दरवाज़ा बरामदे की तरफ़ खुलता है। यहां बायें तरफ़ एक सुंदर मस्जिद है जिसके अंदर और बाहर अस्तरकारी का काम है। मस्जिद सुलेख और पैटर्न से सजीधजी है। यहां की ज़्यादातर दीवरों पर ज़्यादातर क़ुरान की आयतें लिखी हैं। डॉ. लिडल ने अपनी किताब में लिखा है कि मस्जिद के दक्षिण वाले खण्ड की पश्चिमी दीवार पर अंकित अभिलेख की विवेचना अलग अलग इतिहासकारों ने अलग अलग तरह से की है। इसे पढ़कर लगता है कि ये भवन सन 1494 में बना था। यहां जब खैरपुर गांव हुआ करता था तब लोग मस्जिद का इस्तेमाल गोशाला के रुप में करते थे।
मजलिस ख़ाना
मस्जिद के दूसरी तरफ़ पवैलियन की तरह का एक भवन है जिसे मजलिस ख़ाना कहते हैं। ये बहुत साधारण है। इसका उपयोग शायद मस्जिद से जुड़े लोग सभा के लिये करते होंगे। इसमें छोटे-छोटे कमरे हैं जिससे लगता है कि यहां लोग या तो रहते होंगे या फिर इन कमरों का इस्तेमाल काम करने के लिये होता होगा।
भवनों का ये समूह एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। इस आंगन के मध्य में एक ऊभरा हुआ स्थान है जहाँ या तो कोई क़ब्र रही होगी या फिर ये छतरी को सहारा देने वाला स्थान होगा।
शीश गुंबद
ये विशाल गुंबद, बड़ा गुंबद और इसके भवनों के पास है। इसका नाम अग्रभाग पर कोबाल्ट नील और फ़ीरोज़ी रंग के चमकदार टाइल्स पर पड़ा है। माना जाता है कि इस भवन के ऊपरी हिस्से में कभी इस तरह की टाइल्स लगी होंगी।
भीतर के प्रकोष्ठ में उसी तरह का पलस्तर का पैटर्न है जो हम मोहम्मद शाह के मक़बरे में देखते हैं। भवन की पश्चिमी दीवार पर एक मेहराब है। सिमोन डिगबे सहित कुछ विद्वानों का कहना है कि ये मक़बरा लोधी राजवंश के संस्थापक बहलोल लोधी का है। डिगबे का कई सूत्रों के हवाले से ये भी कहना है कि बड़ा गुंबद भवनों का समूह सन 1494 के आस पास बना था। इनका निर्माण मक़बरे के विशाल प्रवेश द्वार के रुप में किया गया था। मक़बरे के मध्य में एक प्रकोष्ठ है जिसमें कई क़ब्रें हैं। कहा जाता है कि ये क़ब्रें सिकंदर लोदी के समय के महत्वपूर्ण लोगों की हैं। चिराग़ दिल्ली में भी एक मक़बरे को बहलोल लोदी का बताया जाता है।
सिकंदर लोदी का मक़बरा
दीवारों से घिरे अहाते और गार्डन में है सिकंदर लोदी का मक़बरा जिसने सन 1489 से लेकर सन 1517 तक शासन किया था। हालंकि सिकंदर ने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाये आगरा के क़रीब सिकंदरा को बना लिया था लेकिन उसे दफ़्न दिल्ली में किया गया। ये शायद इसलिये किया होगा क्योंकि उसके पूर्वज दिल्ली में ही दफ़्न थे। मक़बरे के अहाते के प्रवेश द्वार पर दो छतरियां हैं।
मक़बरा चतुर्भुजाकार है और ये मोहम्मद शाह के मक़बरे की तरह लगता है लेकिन गुम्बद के आस पास कोई छतरी नहीं है। अहाते की दीवार के एक तरफ़ एक मस्जिद है जहां बीच में एक ऊंची मेहराब है और सामने पक्का स्थान है। मक़बरे के भीतर बहुत सुंदर डिज़ाइन वाले चमकीले टाइल्स हैं जो आज भी सुरक्षित हैं। इसके अलावा अस्तरकारी का भी यहां सुंदर काम है। यहां एक ही क़ब्र है।
मुग़ल स्मारक
लोधी गार्डन में लोदियों और सैयदों के तो मक़बरे हैं लेकिन मुग़लों का कोई मक़बरा नहीं है। यहां हमें मुग़लों के समय की मस्जिदें और उनका पुल नज़र आता है।
अठपुला
लोधी गार्डन की अद्भुत संरचनाओं में एक संरचना है आठ खंबो वाला अठपुला जो देखने में बहुत सुंदर लगता है। ये सिकंदर लोदी के मक़बरे के पूर्व की दिशा की ओर है। ये पुल मुग़ल शासक अकबर के काल में बना था। कहा जाता है कि शायद ये पुल अकबर की आरंभिक राजधानी जिसे अब पुराना क़िला कहा जाता है, के रास्ते पर दक्षिण की तरफ़ बनवाया गया होगा, जहां कभी पुराने शहर और सिरी तथा मेहरोली जैसे उप नगर हुआ करते थे। कुछ अनुमानों के अनुसार ये पुल नदी प्रणाली का हिस्सा रहा होगा जिसके तहत दक्षिणी दिल्ली के इलाक़ों के पानी को यमुना नदी में छोड़ा जाता होगा। अब इस पुल के नीचे एक जलाशय है। इसे कभी ख़ैरपुर का पुल कहा जाता था क्योंकि तब यहां ख़ैरपुर गांव होता था।
मस्जिदें और प्रवेश द्वार
लोधी गार्डन में मुग़ल काल की दो मस्जिदें हैं। इनमें से एक मस्जिद हर्बल गार्डन में स्थित है। ये मस्जिद कभी अहाते में रही होगी जो समय के साथ ग़ायब हो गयी। इस एक प्रकोष्ठ वाली मस्जिद के पूर्वी अग्रभाग में तीन मेहराबदार और उत्तर तथा दक्षिण अग्रभाग पर एक एक मेहराबदार प्रवेश द्वार हैं। दूसरी मस्जिद पुराने गार्डन में है। यहां एक छोटे परिसर में एक मस्जिद और एक प्रवेश द्वार है जो मुग़ल काल के अंतिम वर्षों में बनवाया गया था। हालंकि द्वार क्षतिग्रस्त हो गया है लेकिन इस पर आज भी फूलों की चित्रकारी दिखाई पड़ती है। एक प्रकोष्ठ वाली ये मस्जिद आयताकार है जिसके ऊपर ईंटों के तीन गुंबद हैं। इनमें बीच का एक गुंबद बड़ा है जबकि दो तरफ़ बाक़ी दो गुंबद छोटे हैं। यहां का अहाता पास के पुल से गुज़रने वाले लोगों के आराम करने या फिर मनोरंजन करने के लिये इस्तेमाल होता होगा।
दिलचस्प बात ये है कि यहां अहाते के आस पास कहीं कभी कोई बावड़ी होती होगी। लेकिन कहा जाता है कि 20वीं शताब्दी में जब गार्डन को नये सिरे से बनवाया गया तब बावड़ी कहीं दब गई।
लोधी गार्डन का वास्तुशिल्प और इतिहास के लिहाज़ से तो महत्व है ही इसके अलावा यहां पेड़-पौधों और फूलों की कई क़िस्में भी हैं। यहां बटरफ़्लाय पार्क (तितिली पार्क ), हर्बल गार्डन (जड़ी बूटी का बाग़) और ग्लास हाउस (पौधा -घर) जैसे ख़ास क्षेत्र भी हैं। लोधी गार्डन में दाख़िल होते ही यहां की ख़ूबसूरती और ये स्मारक आपको अतीत के युग में ले जायेंगे।
शीर्षक चित्र: यश मिश्रा
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