मुग़ल शासक शाहजहाँ (1592-1666 CE) के बेटे दारा शिकोह के इतिहास की एक झलक आप आज भी दिल्ली में पा सकते हैं। दिल्ली में, आज के कश्मीरी गेट के पास था निगमबोध मंज़िल – दारा शिकोह का महल | आज महल का सिर्फ एक हिस्सा ही हमारे बीच रह गया है जिसे दारा शिकोह पुस्तकालय के नाम से जाना जाता है ।
दारा शिकोह को हमेशा से इतिहास के एक कारुणिक किरदार के रूप में देखा गया है। शाहजहाँ और उनकी पत्नी मुमताज़ महल के सबसे बड़े बेटे और मुग़ल सल्तनत के प्रत्यक्ष वारिस, दारा का जन्म 1615 में हुआ था । वे अपने पिता के चहिते शहज़ादे तो थे ही, साथ में अपनी बड़ी बहन जहाँनारा बेगम के भी प्यारे थे । शाहजहां ने अपने दरबार में एक ख़ास आयोजन कर उन्हें ‘शहज़ादे बुलंद इक़बाल’ का खिताब दिया था और ये ऐलान किया था कि हिंदुस्तान की शाही गद्दी पर बैठ कर दारा ही उनके उत्तराधिकारी बनेंगे । शाहजहां की ढलती सेहत के कारण, दारा शिकोह को लगातार शासन में प्रमुख आज्ञाएँ मिलने लगीं। उन्हें फरवरी 1655 में ‘शाह-ए-बुलंद इकबाल’ उपाधि से सम्मानित किया गया।
मगर शाहजहां के दूसरे बेटे, मुही-उद-दीन मुहम्मद, जिन्हें हम औरंगज़ेब (1618 – 1707) के नाम से जानते हैं, को ये मंज़ूर नहीं था। शाहजहाँ की बीमारी के बाद 1658 में, आगरा क पास सामूगढ़ में दारा शिकोह और औरंगज़ेब में उत्तराधिकार की लड़ाई हुई। जंग में औरंगज़ेब से हारने क बाद दारा आगरा से निकल कर दिल्ली होते हुए पंजाब और फिर अफ़ग़ानिस्तान चले गए। पर कुछ समय बाद, 1659 में औरंगज़ेब ने उन्हें दिल्ली बुला कर दारा शिकोह को मार डाला।
दारा शिकोह को दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे की ही एक अनजान कब्र में दफना दिया गया था। हाल ही में, भारत सरकार ने दारा शिकोह की कब्र को ढूंढने के लिए एक समिति का निर्माण किया है।यदि औरंगज़ेब की जगह दारा मुग़ल राज्य के शासक बन जाते, तो भारत का मुग़ल इतिहास कैसा होता- ये एक प्रश्न कई इतिहासकारों और विद्वानों के लिए मुख्य रहा है।
दारा शिकोह बाकी मुग़लों से कुछ अलग थे । शांतिप्रिय और उदार स्वभाव वाले दारा का ज़्यादा रुझान दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र की तरफ था । उनका ख़्याल करते ही एक शासक से ज़्यादा एक दार्शनिक विद्वान् की छवि सामने आती है। अपनी पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने क़ुरान, फ़ारसी कविताएँ और हस्तलिपि जैसे विषय पढ़े थे।
दार्शनिक सच की खोज में और हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच के सम्बन्ध को समझने और बाकी लोगों तक भी ये पहुंचाने क लिए दारा शिकोह ने हिन्दू उपनिषदों का फ़ारसी भाषा में अनुवाद किया जिसे सिर्र-ए-अकबर कहा जाता है । सितम्बर 1657 में पूरे हुई इस साहित्यिक रचना को दारा शिकोह की सबसे बड़ी बौद्धिक परियोजना माना जाता है ।
इस महत्वाकांक्षी काम के लिए, जिसके लिए वह पूरी तरह से समर्पित थे, उन्होंने बनारस से सबसे अधिक सीखे हुए सन्यासियों और पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने इस रचना को अपने महल, निगंबोध मंज़िल में पूरा किया।
आज, दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय में स्थित दारा शिकोह पुस्तकालय, उनके महल का एक हिस्सा था। 1639 में मुग़ल बादशाह शाजहाँ ने दिल्ली में अपनी एक नयी राजधानी ‘शाहजहानाबाद’ बनाने के बारे में सोचा। अपना महल, क़िला-ए- मुबारक़, जिसे आज हम लाल किले के नाम से जानते हैं, बनवाने क साथ ही शाजहाँ ने अपने इस नए शहर में और कई महल और इमारतों का निर्माण करवाया।
मुग़ल वारिस और अपने पिता के पसंदीदा होने के कारण, दारा को अपनी पसंद की ज़मीन चुन ने दी गई होगी। उन्होंने दिल्ली में यमुना की निगंबोध घाट के पास की जगह को अपने महल के लिए चुना, और इसलिए उस महल का नाम निगमबोध-मंज़िल पड़ा। 1639 – 1643 के बीच इस महल का निर्माण पूरा हुआ।
लेखक स्टीफन पी ब्लेक, अपनी पुस्तक ‘शाहजहानाबाद: द सॉवरेन सिटी इन मुगल इंडिया 1639-1739 ‘ में निगमबोध मंज़िल के बारे में लिखते हए कहते हैं कि, कोई केवल इस महल की शान की कल्पना कर सकता है, जो क़िला-ए- मुबारक़ के बाद दूसरे स्थान पर रही होगी। महल का वर्णन करैत हुए वो बताते हैं कि, महल में शहज़ादे दारा शिकोह के आराम के लिए सब व्यवस्था रही होंगी। महल में सार्वजनिक व निजी, दोनों जगह हुआ करती होंगी। निजी कमरे रेशम के सुन्दर परदों, आकर्षक कालीन और झूमर से सजे रहते होंगे और बाग़ में फव्वारे, पूल और नहरें रही होंगी।
एक मस्जिद और एक हमाम सभी महान घरों में एक आवश्यक मुगल विशेषता थी। सार्वजनिक स्थान पर एक दर्शक हॉल और एक पुस्तकालय रहा होगा। यहीं पर राज्य पत्रों और कविताओं की रचना की जाती होगी। दारा शिकोह के मामले में, उन्होंने संभवतः यहाँ धार्मिक प्रवचन आयोजित किए और इसी में अपने दार्शनिक ग्रंथ लिखे। शाहजहां खुद दारा से मिलने इस महल में दो बारे आये, 1654 और 1655 में।
मगर दारा शिकोह के खुद के दुखद अंत की तरह उनका ये महल भी बुरी हालत में ढल गया। आज इस महल के कुछ पुराने खण्डों क अलावा बस एक लाइब्रेरी ही रह गई है। दारा की मृत्यु के बाद, औरंगजेब के बेटे, मुअज्जम इस हवेली में रहते थे । ब्लेक अपनी किताब में कहते हैं की, जब 1739 में दिल्ली पर फ़ारसी शासक नादिर शाह हमला किया था, तब ये महल क्षतिग्रस्त हो गया था, इसलिए संभवतः इसे दो में विभाजित किया गया था। उसके बाद कुछ समय तक ये महल बहादुर शाह 1 के पोते मुहम्मद शाह के पास रहा।
इतिहास कार और लेखिका राणा सफ़वी अपने एक लेख में बताती हैं कि, 1743 में अवध क दूसरे नवाब, सफदरजंग ने मुहम्मद शाह से इसे एक प्रस्ताव के बदले मुहम्मद शाह से ले लिया था।1803 से 1842 के बीच ये महल अंग्रेज़ों के रहने के लिए इस्तेमाल किया गया। इंटैक के दिल्ली चैप्टर की कन्वीनर और इतिहासकार डॉ स्वप्ना लिडल अपनी पुस्तक ‘डेल्ही, 14 हिस्टोरिकल वॉक्स’ में बताती हैं कि 1803 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राज्य में, यह जगह दिल्ली के पहले अंग्रेज़ ‘रेज़िडेंट’, यानी अंग्रेज़ प्रशासन के मुखिया, डेविड औरक्तेर्लोनी ने खरीद ली थी। अंग्रेज़ों की ईमारत जैसी दिखावट देने के लिए इस मुग़ल बनावट में खम्बे जोड़े गए और मुग़ल आर्च को चिनाई से ढका गया।
1842 से 1858 तक यहाँ दिल्ली कॉलेज कि कक्षाएं हुआ करती थी और उनके प्रिंसिपल का निवास स्थान भी। 1858 के बाद यहाँ एक डिस्ट्रिक्ट स्कूल चला। सफ़वी बताती हैं कि 1904 में यहाँ लगी पत्थर की प्लेट इस जगह को 1637 में निर्मित दारा शिकोह का पुस्तकालय बताती है, जसिकी वजह से काफी लोग इसे सिर्फ यही समझ बैठे हैं।
1640 में कश्मीर में भी दारा ने अपना एक महल बनवाया था, जो पारी महल के नाम से जाना जाता है। आज मुग़ल काल के बौद्धिक वयक्तित्व वाले दारा शिकोह का निगमबोध मंज़िल उन्ही कि तरह एक खोई हुई याद बन गया है।
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