दारा शिकोह और उपनिषद

दारा शिकोह और उपनिषद

भारतीय इतिहास में मुग़ल शहज़ादे दारा शिकोह का जीवन बेहद त्रासदपूर्ण रहा है। दारा शिकोह की ज़िंदगी और मौत भारतीय इतिहास में “अगर ऐसा होता तो क्या होता” जैसी रही है। अगर सत्ता संघर्ष में औरंगज़ेब की जगह दारा शिकोह कामयाब हो जाता तो भारतीय इतिहास कैसा होता? दारा शिकोह अपने आप में बुद्धिजीवी था। दारा की वजह से विभिन्न आस्थाओं के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ और उसने हिंदू तथा इस्लाम धर्म के बीच तुलनात्मक धार्मिक संवाद पर लिखा भी और इस विषय पर किताबें भी लिखवाईं। लेखक अवीक चंद ने अपनी किताब “दारा शिकोह: द मैन हू वुड बी किंग” में इस त्रासद शहज़ादे की कहानी बयां की है।

मुग़ल साम्राज्य के शुरुआती दिनों में मुग़ल शासकों ने हिंदुस्तान के देशज लोगों के रीति-रिवाजों,आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान में गहरी दिलचस्पी ली थी। अकबर के शासनकाल के दौरान ही हज़ारों साल पुराने हिंदू धार्मिक ग्रंथों में दबे रहस्यों को सुलझाने की योजना को एक नया उद्देश्य मिला। अकबर के कहने पर अनुवादकों और विद्वानों का मकतब-ख़ाना स्थापित किया गया। इसका मक़सद सिद्धांत और आध्यात्मिक तर्क के जटिल प्रश्नों पर विचार करना और इनका संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद करना था। अकबर की लाइब्रेरी रामायण, महाभारत, भागवत गीता और योग वशिष्ठ से लेकर गणित, औषधि तथा खगोल विज्ञान जैसे विषयों के अनुवादों से भरी पड़ी थी। विद्वानों का चुनाव अकबर ख़ुद करते थे और उनसे उनका लगभग रोज़ संवाद भी होता था। हिंदू धर्म की किताबों का फ़ारसी अनुवाद शुरु से आख़िर तक पढ़ा जाता था जिसे अकबर बहुत ग़ौर से सुनते थे। बीच बीच में वह स्पष्टीकरण भी मांगते थे और सवाल भी करते थे।

इस योजना के पीछे बौद्धिक उत्सुकता के अलावा अकबर का एक और भी मक़सद था जिसका ज़िक्र उनके प्रधानमंत्री अबुल फ़ज़्ल ने अपनी किताब आईन-ए-अकबरी की प्रस्तावना में किया है। उनके अनुसार ‘हिंदू धार्मिक ग्रंथों और उन पर चर्चाएं आयोजन का मक़सद यह था कि हिंदुऔं के प्रति दुश्मनी का भाव कम हो और वक्ती तौर पर जारी ख़ूनख़राबा थमे। कलह तथा दुश्मनी की जगह सुलह-शांति की बगिया खिल सके।’ ये अबुल फ़ज़्ल का ख़ुद का नहीं बल्कि अकबर का सोचना था। स्थानीय सरदारों को सैन्य बल से हराने के बाद अकबर ने कूटनीति और विवाह की नीति अपनानी शुरु कर दी थी। एक तरह से अकबर ने बहुसंख्यक हिदुओं के साथ सुलह की नीति अपना ली थी।

महाभारत के अपने अनुवाद की प्रस्तावना में अबुल फ़ज़्ल ने अकबर के इस रवैये को और स्पष्ट किया-

हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत को देखने के बाद उन्हें समझ में आ गया कि इसकी वजह अज्ञानता है, प्रबुद्ध बादशाह (अकबर) ने नफ़रत ख़त्म करने के लिये मुसलमानों को हिंदु धर्म से संबंधित किताबें मुहैया कराने के बारे में सोचा। उन्होंने इस दिशा में सबसे पहले सबसे मुकम्मिल किताब महाभारत ग्रंथ को चुना और दोनों पक्षों के निष्पक्ष लोगों से इसका अनुवाद करवाने का आदेश दिया। वह (अकबर) हिंदुओं को बताना चाहते थे कि उनकी कुछ गंभीर भ्रांतियों और मिथ्या विश्वासों का उनके प्राचीन ग्रंथों में कोई उल्लेख नहीं है। दूसरी तरफ़ वह मुसलमानों को समझाना चाहते थे कि वे(हिंदू) ऐसी दुनिया के अतीत से चिपके रहने की मूर्खता कर रहे हैं जो “ महज़ ” सात हज़ार साल पुरानी है।

वह खुली खिड़की के सामने बैठा था, उसके चेहरे पर सूरज की तेजस्वी लेकिन हल्की रौशनी पड़ रही थी। यहीं बैठकर दारा ने इन तमाम बातों के बारे में सोचा। उसके लिये अन्य आस्थाओं, ख़ासकर हिंदुओं के पुराने धर्म के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का राजनीति से कोई लेना देना नहीं था। अगर बौद्धिक खोज के रुप में ज्ञान प्राप्ति के प्रति प्रेम पैदा हुआ था तो वह भी वो सालों पहले पीछे छोड़ आया था। प्रेरणा के लिये जो कुछ उसके (दारा) के भीतर बचा रह गया था वह था अन्तर्ज्ञान और अंतर्दृष्टि। उसे सिर्फ सत्य की तलाश थी। उसने क़लम उठाया और सधे हुए और साफ़ हाथों के साथ तेज़ी से लिखना शुरु किया।

शिलालेख के साथ तीन संतों के साथ दारा शिकोह | विकिमीडिया कॉमन्स

सत्यों का सत्य और सूफ़ियों के सच्चे धर्म के रहस्य तथा गूढ़ता का पता लगाने और ज्ञान के इस उपहार से मालामाल होने के बाद, पीड़ाओं और दुखों से उनमुक्त फ़कीर दारा शिकोह ने भारतीय एकेश्वरवाद के धर्म के तत्वों को जानने की पिपासा शांत की। भारत के इस धर्म के विद्वानों और जानकारों से निरंतर चर्चा करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि शाब्दों के सिवाय सत्य को प्राप्त करने और इसे बूझने में कोई अंतर नहीं है।

दारा कुछ देर के लिये ठहरा,क़लम को आराम दिया। वह धर्मों के विद्वानों के साथ विचार विमर्श कर चुका था, वह हिंदू ग्रंथों को पढ़ चुका था और फिर उसे विश्वास हो गया कि धर्मों की अलग अलग व्याख्या के सिवाय इस्लाम और हिंदू धर्म में कोई अंतर नहीं है। वह इस बात से चकित रह गया कि दोनों धर्मों के आचार्य अपने ही बनाये धर्म की दलदल में फंसे हुए थे और उन्होंने ये तार्कित दर्शन, जो शायद सबसे महत्वपूर्ण बात थी, को मेहसूस ही नहीं किया कि दोनों धर्मों का सार एक ही है। इसलिये ये ज़रुरी था कि उन्हें इस बात के बारे में बताया जाए। दोनों पक्षों के विचार, जो सत्य की खोज करने वालों के लिये बहुत ज़रुरी हैं, जानने के बाद दारा ने मजमा-उल-बहरीन (दो सागरों का समागम) लिखी। ये सत्य जानने वाले दोनों धर्मों के लोगों के विचारों का संकलन था। महान रहस्यवादियों ने कहा है कि- तसव्वुफ़(सूफ़ीपन) निष्पक्षता है और भी आगे चलकर तसव्वुफ़ धार्मिक दायित्व का त्याग है। तो वो जो सूक्ष्मदर्शी और ईमानदार व्यक्ति है वो फ़ौरन इस बात को समझ जाएगा कि मुझे कितनी गहराई से सोचना पड़ा….सूक्ष्मदर्शी और अक़्लमंद लोगों को यह रिसाला पड़कर आनंद मिलेगा वहीं कुंद बुध्दी के लोगों को कुछ भी हासिल नहीं होगा।

शाहजहाँ अपने पुत्र दारा शिकोह के साथ  | विकिमीडिया कॉमन्स

सन 1650 के बीच के दशकों में मुग़ल साम्राज्य में कई राजनीतिक ग़ुट बन गए जिनके बीच में सांठगांठ थी। एक तरफ़ जहां अपने पिता के चहेते दारा की शाही दरबार में अच्छी ख़ासी पकड़ थी वहीं उसके तीनों भाईय़ों का महत्वपूर्ण क्षेत्रों और राजस्व पर नियंत्रण था तथा उनकी ख़ुद की मज़बूत सेनें थीं।

मज़हब के प्रति चारों भाईयों के नज़रिये एकदम अलग थे।

सबसे बड़ा शहज़ादा जहां सूफ़ी तबियत का था और वह अपने मज़हब के अलावा दूसरे मज़हबों को भी सम्मान देता था, वहीं शुजा का झुकाव शिया संप्रदाय की तरफ़ था। औरंगज़ेब कट्टर सुन्नी था और मुराद को मज़हब से कोई लाना देना नहीं था। वह इंद्रियों का सुख भोगने में व्यस्त रहता था। उसके जीवन में कभी कभार युद्ध और ख़ूनख़राबे जैसे हालात पैदा हो जाते थे। लेकिन सत्ता के दो केंद्रों दारा और औरंगज़ेब में ज़बरदस्त दुश्मनी थी।

दारा शिकोह की शादी का जुलूस, उसके साथ शाह शुजा और औरंगजेब | रॉयल कलेक्शन ट्रस्ट, लंदन

टीम एलएचआई : दारा शिकोह का सबसे बड़ा प्रोजाक्ट बेशक उपनिषदों का फ़ारसी अनुवाद ही था। जिस का नाम उसने सिर्रे-ए-अकबर अर्थात महान रहस्य रखा था।उसका यह काम सितम्बर,सन 1657 में पूरा हा था।

इस बीच दारा को मेहसूस हुआ कि विभिन्न आस्थाओं के मामले में अलग अलग राय रखने वाले रहस्यवादियों के साथ उनके पूर्व के विमर्श, उनकी निजी साधना और विचार मंथन एक वृहद योजना की तैयारी थी जिसे वह अब साकार करने जा रहे थे। अब वह न सिर्फ़ दरबार में अपने पिता के दाहिने तरफ़ सोने के सिंहासन पर रोज़ाना बैठे दिखा करते थे बल्कि वह अपने पिता के साथ दौरे पर भी जाया करते थे। लेकिन फ़रवरी सन 1657 में बीमार और बूढ़े पिता शाहजहां जब दिल्ली से मुख़लिसपुर रवाना हुए तो दारा को अपना काम इतना ज़रुरी और संजीदा लगा कि उसने पिता से दौरे से ख़ुद को अलग करने की इल्तिजा की। वह राजधानी दिल्ली में रहकर अपनी योजना पर ध्यान देना चाहता था।

दारा अपने बीमार पिता के साथ इसलिये नहीं गया क्योंकि उसे उपनिषदों का संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद करना था। भाषा का चयन बहुत महत्वपूर्ण था। फ़ारसी मुग़ल दरबार की भाषा थी और हिंदू बुद्धिजीवी भी ये भाषा अच्छी तरह जानते थे। अपने इस काम के लिये दारा ने पवित्र नगरी बनारस से प्रबुद्ध सन्यासियों और पंडितों को जमा किया और छह महीने के अथक परिश्रम के बाद 28 जून सन 1657 में उसने दिल्ली में अपने महल मंज़िल-ए-निगमबोध में काम पूरा किया।

दारा ने अपनी किताब में जो प्रस्तावना लिखी वो अपने आप में एक आयातित निबंध था जिसमें उन्होंने आध्यात्मिक जीवन, गहरे दार्शनिक सत्य खोजने की, ख़ुद की निजी चाह, क़ुरान में कुछ सूरों की व्याख्या पर अपने विचारों और उस रहस्योद्धघाटन के बारे में लिखा जिसकी वजह से ये काम उन्होंने अपने हाथों में लिया था। इस प्रस्तावना में उन्होंने यह भी लिखा कि सन 1640 में जब वो,अपनी सुंदरता की वजह से स्वर्ग की तरह दिखने वाली कश्मीर की धरती पर गये थे तो वहां उनकी मुलाक़ात सूफ़ी संत मुल्लाह शाह से हुई थी जो उनके गुरु और मार्ग दर्शक बन गए थे।

दारा शिकोह | विकिमीडिया कॉमन्स

दारा की रहस्यवाद और एकेश्वरवाद में गहरी दिलचस्पी थी। उसे तौहीद (एकेश्वरवाद) की तृष्णा थी। उसने मेहसूस किया कि क़ुरान में एकेश्वरवाद की अवधारणा कुल मिलाकर रुपकात्मक है और वह इसमें निहित गहरे अर्थ को जानना चाहता था। उसने बुक ऑफ़ मूसा के अलावा साम्स, गॉस्पेल जैसे कई धर्मों की किताबें पढ़ी लेकिन पाया कि इन ग्रंथों में भी रहस्यवाद उतना ही गूढ़ था। इसके अलावा कई मामलों में अपने आप में अनुवाद भी ख़राब था। इसके बाद दारा का ध्यान हिंदुस्तान के प्राचीन धर्म की तरफ़ गया। उन्हें हैरत हुई कि धर्म शास्त्रियों और रहस्यवादियों ने ईश्वर की एकरूपता की अवधारणा को नकारा क्यों नहीं।

उन्होंने प्रास्तावना का समापन इस बात के साथ किया कि हिंदुओं की सच्ची आस्था एकेश्वरवाद से जुड़ी हुई है।

ख़ुद को विद्वान समझने वाले कुछ स्वार्थी और अज्ञानी लोग थे जिन्होंने एकेश्वरवाद का विरोध किया। और इन परिस्थितियों के सत्यापन के बाद दारा ने लिखा, ‘ऐसा लगा कि इन सबसे पुराने लोगों में, उनके तमाम धार्मिक ग्रंथ, जो चार वेद हैं….कई फ़रमानों के साथ, उस समय के पैग़ंबरों पर अवतीर्ण (नाज़िल) हुए, जिनमें सबसे प्राचीन पैग़ंबर ब्रह्मा या आदम थे….क़ुरान के अनुसार कोई भी ज़मीन पैग़ंबर और नाज़िल हुए धार्मिक ग्रंथ के बिना नहीं है, इस तरह हिंदुस्तान के बारे में भी यही कहा जा सकता है।’

पथ के रहस्य और विशुद्ध एकेश्वरवाद के चिंतनशील प्रयोग वाले चार पवित्र ग्रंथ दरअसल उपनिषद थे। यही एकेश्वरवाद का सच्चा ख़ज़ाना था, जो कहा से आया ये कई लोगों को नहीं पता था, हिंदुओं को भी नहीं। दारा को लगा कि हिंदुओं ने ख़ुद भी ये बात मुसलमानों से छुपाने की कोशिश की थी। वह जिन गहरे और उदात्त रहस्यों की तलाश कर रहे थे, जो उन्हें कभी नहीं मिले, वो इन प्राचीन ग्रंथों से प्राप्त किये जा सकते हैं। और क्या ये प्राचीन ग्रंथ स्वर्गीय पुस्तकों में से पहले ग्रंथ नहीं थे जिनकी रचना की गई थी?

और इस अंतर्दृष्टि के साथ उसे एक बड़ी बात का पता चला। क़ुरान में एक प्राचीन गुप्त उत्कृष्ट पुस्तक की मौजूदगी का संकेत दिया गया है- पक्के तौर पर ये पवित्र क़ुरान है जो सुरक्षित है। कोई भी इसे छुए न, पवित्र ग्रंथों को संभाल कर रखो। ये विश्व के ईश्वर की आकाशवाणी है। दारा ने कुछ इस तरह समापन किया कि ये गोपनीय पुस्तक कोई और पुस्तक नहीं बल्कि उपनिषद हैं। आगे चलकर उसे ये भी यक़ीन हो गया कि शब्द-इतिहास के मुताबिक़ उपनिषद शब्द शिक्षक के रहस्य की धारणा और गूढ़ ज्ञान से उपजा था। दारा को इस बात को और सही साबित करने की ज़रुरत मेहसूस हुई।

ये स्पष्ट है कि वाक्य (सूरा) साम्स या मूसा की किताब या गॉस्पल पर लागू नहीं होता और इलहाम शब्द से ये स्पष्ट है कि ये लौह-ए-महफ़ूज़( सुरक्षित तख़्ती) पर लागू नहीं है, उपनेखत (उपनिषद) जो एक रहस्य है जिसे छुपना है और जो पुस्तक का सार है, इसमें पवित्र क़ुरान की आयते हैं। इसलिये कहा जा सकता है कि ये गोपनीय किताब सबसे प्राचीन किताब है जिसमें इस फ़कीर को जो अज्ञात है वो ज्ञात हो जाता है और जो चीज़ समझ के परे है, समझ में आ जाती है।

दारा का मानना था कि उन्हें इस काम से कोई भौतिक लाभ नहीं होगा सिवाय इसके कि उनके बच्चों, मित्रों और सत्य की तलाश करने वालों को इस योजना (अनुवाद) से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होगा। हालंकि उदात्त रहस्य का व्यापक प्रसार दारा का मुख्य उद्देश्य हो सकता था। लेकिन ये बयान हो सकता है उसने उलेमाओं की नाराज़गी से बचने के लिए लिखा हो।। वह पहले ही अपने लेखन और सार्वजनिक बयानों में इन्हें (उलेमाओं) को बुरा भला कह चुके थे।

शहज़ादे ने प्रस्तावना के निष्कर्ष में लिखा ‘प्रसन्न वो व्यक्ति होगा, जो घृणित स्वार्थों से ग्रसित होते हुए भी सच्चे मन और ईश्वर की कृपा से सभी तरह के पक्षपात को त्यागकर “सिर्रे-ए-अकबर नामक किताब का ये समझ कर अध्ययन करेगा कि ये देववाणी का अनुवाद है तो, वो अविनाशी, निडर, हमेशा के लिये मुक्त हो जाएगा और बदगुमानी से दूर हो जाएगा।’

“ दारा शिकोह: दे मैन हू वुड बी किंग “ अवीक चंदा की लिखी किताब है जो हार्पर कोलिंस पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित की गई है।इस लेख में किताब के अंश प्रकाशक की अनुमति से इस्तेमाल किए गए हैं।

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