अपनी शिनाख़्त की तलाश में है बल्लारपुर की गोंड विरासत

अपनी शिनाख़्त की तलाश में है बल्लारपुर की गोंड विरासत

महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िले में बल्लारपुर शहर कागज़, कोयला, बांस एवं लकड़ी उद्योगों के लिए जाना जाता है । देश में काग़ज़ का सबसे ज़्यादा उत्पादन यहीं होता है । लेकिन सदियों पहले ये चंद्रपुर के गोंड राजाओं का गढ़ हुआ करता था जिसकी झलक आज भी वहां के स्मारकों में देखी जा सकती है ।

बल्लारपुर क़िला  | अमित भगत 

१४ वीं शताब्दी के बाद से, मध्य भारत के एक बड़े हिस्से पर शक्तिशाली गोंड राजाओं का शासन हुआ करता था । तब आज का मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तेलंगाना मध्य भारत का हिस्सा हुआ करते थे । गोंड भारत की सबसे बड़ी आदिवासी बिरादरी है जिनकी भाषा गोंडी है । जबलपुर का गढ़ा-मण्डला, छिंदवाड़ा का देवगढ़ और चंद्रपुर का चांदा प्रमुख गोंड साम्राज्य थे । इनके शासकों में सबसे प्रसिद्ध रानी दुर्गावती थीं जो देवगढ़ पर शासन करती थीं और जिन्होंने मुग़ल शहंशाह अकबर की फ़ौज से लोहा लिया था ।

बल्लारपुर क़िला  | देवानंद साखरकर 

चांदा का गोंड राजवंश मूलत: तेलंगाना के आदिलाबाद ज़िले के सिरपूर से था । इस साम्राज के शुरुआती इतिहास के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है । किंतु ऐसा माना जाता है कि बल्लारपुर की स्थापना गोंड राजा खांडक्या बल्लाल शाह (१४७२ ई – १४९७ ई.) ने की थी । खांडक्या बल्लाल शाह ने ही पड़ौस में चंद्रपुर शहर बनवाया था । लेकिन सच्चाई यह है कि इसकी स्थापना राजा आदिया बल्लाल सिंह (१३२२ ई – १३४७ ई.) ने की हैं, जो गोंड राजवंश के चौथे शासक थे । वह तेलंगाना में सिरपूर से अपनी राजधानी वर्धा नदी के पूर्व तट की तरफ़ ले गए थे, जिसका नाम उन्हीं के नाम पर बल्लालपुर (वर्तमान का बल्लारपुर) रखा गया था । राजा के बाद इसके आसपास के क़िले और रिहायशी इलाक़ों को बल्लालपुर या बल्लाल शहर के नाम से जाना जाने लगा ।

| अमित भगत 

बल्लारपुर क़िला

छह एकड़ ज़मीन पर फ़ैला बल्लारपुर क़िला वर्धा नदी के पूर्वी तट पर स्थित है । इसका प्रवेशद्वार पूर्व दिशा की ओर है । क़िले के बाहर केशवनाथ मंदिर है जहां शाही परिवार के सदस्यदर्शन किया करते थे । वैसे तो गोंड शासकों की राजधानी चंद्रपुर थी लेकिन बल्लारपुर क़िलासदियों तक शाही परिवार का दूसरा घर रहा ।सन १७५१ में नागपुर के रघुजी भोंसले के नेतृत्व में मराठों ने चांदा साम्राज पर कब्ज़ा करलिया । कब्ज़े के बाद बल्लारपुर क़िले के अंदर महल में चांदा राजवंश के अंतिम शासक नीलकंठ शाह (१७३५ ईं. – १७५१ ईं.) को क़ैद कर दिया था और यहीं कारागृह में उनकीमृत्यु भी हो गई थी । क़िले में मौजूद मलबे के ढ़ेर शायद वही जगह है जहां कभी भव्य महल रहा होगा । खंडहरोंको देखकर लगता है कि क़िले में रिहायशी मकान, दफ़्तर, तहख़ाने और अस्तबल भी थे ।

क़िले का प्रवेश द्वार बहुत आकर्षक है और क़िले के अंदर प्राचीन महल की रुपरेखा आसानी से समझी जा सकती है । क़िले की दीवारों से वर्धा नदी का मनोरम दृश्य नज़र आता है, ख़ासकर तब तो और भी ख़ूबसूरत हो जाता है जब वर्धा नदी में बाढ़ आई हो । यहां वर्धा का आकार अर्धचंद्राकार है इसलिए इसे चंद्रभागा भी कहा जाता है । ये नाम पंढरपुर के चंद्रभागा के नाम पर रखा गया है ।

प्राचीन शहर के निशान आज भी आसपास के जंगलों में काफ़ी दूर तक देखे जा सकते हैं । शहर की उत्तर दिशा में एक बड़ा तालाब है । इसके अंदर के चैनल ढ़ह जाने की वजह से इसमें पानी नहीं भर पाता । वर्धा नदी के भीतर एक छोटे से टापू पर पत्थर में तराशा हुआ का राम तीर्थ मंदिर है जो बारीश के महीनों में पानी में डूबा रहता है ।

खांडक्या बल्लाल शाह की समाधि

शहर के पूर्व में सिरोंचा-अल्लापल्ली रोड के किनारे है खांडक्या बल्लाल शाह की समाधि जो काफ़ी उपेक्षित अवस्था में है । स्थानीय लोग इसे खर्जी मंदिर कहते हैं । दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने दबे धन के लालच में, समाधि के पत्थर को तोड़कर फर्श को उधेड़ डाला है, जिसकी वजह से ये समाधि अब अंदर से खोखली दिखाई देती है । परंतु बाहर से यह समाधी काफ़ी बड़ी औऱ बहुत विशालस्वरूप नजर आती हैं ।

समाधि के सामने पांवों की तरफ़ खांडक्या बल्लाल शाह की पत्नी रानी हिरातानी की समाधि है । जो चंद्रपुर राजवंश की रानियों में सबसे होशियार,वफ़ादार और समझदार रानी मानी जाती थीं । उनकी साधारण और बिना आडम्बर वाली समाधि के पास ही ४२ जोड़ों में कुल ८४ पैरों के प्रतिरूप उकेरे गए हैं । कहा जाता है कि ये खांडक्या की बाक़ी ४२ पत्नियों को दर्शाते हैं जो उनके साथ सती हो गई थीं ।

राजा खांडक्या बल्लाल शाह की समाधि के साथ एक समतल चबूतरा है जिस पर किसी प्रकार की कोई नक़्क़ाशी नहीं है । कहा जाता है कि ये अंतिम बदनसीब गोंड राजा नीलकंठ शाह की समाधि है जिन्हें मराठों ने क़ैद कर लिया था । ये बड़ी विडंबना है कि चंद्रपुर के संस्थापक और साम्राज गंवाने वाले उनके वंशधर मौत के बाद साथ साथ दफ़्न हैं ।

१८४३ में नागपुर पर कब्ज़े के बाद बल्लालपुर ब्रिटिश मध्य प्रांतों का ज़िला चांदा का हिस्सा बन गया। १९४५ में, सरकंडों के घने जंगलों की वजह । से उद्योगपति करमचंद थापर ने यहां बल्लालपुर इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड स्थापित की जो बहुत जल्द काग़ज़ बनाने का, देश का सबसे बड़ा कारख़ाना बन गया जिसमें हज़ारों लोगों को रोज़गार मिला । ये कारख़ाना बेहतरीन काग़ज़ बनाने के लिए जाना जाता है । दिलचस्प बात ये है कि तेलंगाना में गोंड राजाओं की पुरानी राजधानी सिरपूर भी सिरपूर पेपर मिल्स के लिए मशहूर है ।

आज सैकड़ों लोग रोज चंद्रपुर से गुज़रते हुए जंगल में बाघ देखने के लिए ताडोबा नैशनल पार्क जाते हैं, लेकिन बहुत ही कम लोग बल्लालपुर की और मूडते हैं आते हैं । ये ऐतिहासिक शहर आज भी अपनी शिनाख़्त की तलाश में है ।

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