दिल्ली में क़ुतुब मीनार से पश्चिमी दिशा में क़रीब 8 कि.मी. दूर वसंत कुंज के पास मेहरौली-पालम रोड पर, मलकपुर गांव में एक मक़बरा है जहां हर हफ़्ते सैंकड़ों लोग ज़्यारत करने आते हैं। स्थानीय लोग इसे सुल्तान गढ़ी कहते हैं जहां पीर बाबा की दरगाह है। लेकिन ज़्यादातर श्रद्धालुओं को ये नहीं मालूम कि कुछ सदियों पहले ही सुल्तान गढ़ी ने दरगाह का रुप लिया था। पहले ये रज़िया सुल्तान के भाई और इल्तुतमिश के बेटे नसीरुद्दीन महमूद का मक़बरा हुआ करता था। सन 1231 में निर्मित ये भारत में सबसे पुराना इस्लामी मक़बरा है।
सदियों से भारत की राजधानी कई ऐतिहासिक घटनाओं की गवाह रही है। इसने सभ्यताओं को फूलते फलते और उजड़ते भी देखा है, यहां कई राजवंश आए और गए, महान शासक पैदा हुए और मरखप गए और कई स्मारक बने और ढ़ह गए। इस दौरान एक ममलूक वंश आया जिसे ग़ुलाम वंश भी कहा जाता है। ये राजवंश उन पांच राजवंशों में से पहला राजवंश था जिसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की थी।
सन 1191 में ग़ुरीद साम्राज्य (मौजूदा समय में अफ़ग़ानिस्तान) के मुईज़उद्दीन मोहम्मद ग़ौरी अपने साम्राज्य को फ़ैलाने के मक़सद से सेना को लेकर भारतीय उप-महाद्वीप की तरफ़ बढ़ा। उसने पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य के उत्तरी पश्चिमी प्रांत में भटिंडा क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। लेकिन जल्द ही तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना ने ग़ुरीदों को हरा दिया। हार के बाद मोहम्मद ग़ौरी ने बड़ी सेना के साथ पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य पर एक बार फिर हमला बोला। दुर्भाग्य से तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हार का मुंह देखना पड़ा और उन्होंने अपना साम्राज्य ग़ुरीदों को सौंप दिया। आने वाले वर्षों में मोहम्मद ग़ौरी ने बंगाल तक भारत के कई पूर्वी इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लिया।
सन 1206 में मोहम्मद ग़ौरी की हत्या हो गई। चूंकि उसकी कोई औलाद नहीं थी, उसका साम्राज्य छोटी-छोटी सल्तनतों में बंट गया जिस पर उसके पूर्व ममलूक जनरल शासन करने लगे। ममलूक ग़ुलाम सिपाही होता था जिसने इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लिया था। ताजउद्दीन यिल्दोज़ ग़ज़नी का, मोहम्मद बिन बख़्तियार ख़िलजी बंगाल और नसीरउद्दीन क़बाचा मुल्तान का शासक बन गया। क़तुबउद्दीन ऐबक दिल्ली का सुल्तान बन गया और इस तरह ग़ुलाम वंश या ममलूक वंश की शुरुआत हुई।
ऐबक ने दिल्ली में मुस्लिम स्मारक क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद और क़ुतुब मीनार बनवाईं। लेकिन ऐबक ज़्यादा समय तक दिल्ली का सुल्तान नहीं रह सका और सन 1210 में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मौत के बाद उसका पुत्र आराम शाह तख़्त पर बैठा लेकिन सन 1211 में उसके ग़ुलाम कमांडर शम्सउद्दीन इल्तुतमिश ने उसकी हत्या कर दी।
ऐबक और उसका पुत्र लाहौर से हुकूमत चलाते थे लेकिन इल्तुतमिश ने दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया। सन 1210 के दशक ने उसकी सेना ने बिहार और सन 1225 में बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया। उसका सबसे बड़ा पुत्र नसीरउद्दीन मोहम्मद अवध और बंगाल का सूबेदार था। नसीरउद्दीन एक कुशल प्रशासक था और इल्लतुतमिश उसे अपने उत्तराधिकारी के रुप में तैयार कर रहा था।
लेकिन दुर्भाग्य से सन 1229 में नसीरउद्दीन की बंगाल में अचानक मौत हो गई। उसकी मौत के कारणों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ का कहना है कि उसकी हत्या हुई थी और कुछ का मानना है कि वह बीमारी से मरा था। बहरहाल, उसका शव दिल्ली लाकर दफ़्न कर दिया गया। उसकी क़ब्र की जगह सन 1231 में इल्तुतमिश ने अपने प्रिय पुत्र के सम्मान में एक विशाल मक़बरा बनवाया।
सुल्तान गढ़ी एक पुराने अहाते के समान है जिसके किनारों पर बुर्ज और गुंबद हैं जिसकी वजह से ये एक छोटे क़िले की तरह लगता है। इसका प्रवेश द्वार सफ़ेद संगमरमर का है। प्रवेश द्वार के शिला-लेख से हमें भीतर दफ़्न व्यक्ति, इसे बनाने वाले और इसके निर्माण की तारीख़ का पता चलता है।
पुराने अहाते के मध्य में मक़बरा है जो भूमिगत गढ़ी (गुफा) में स्थित है। यहां घुमावदार सीढ़ियों से पहुंचा जा सकता है जो पत्थरों की बनी हैं। यहां तीन क़ब्रें हैं लेकिन दो क़ब्रों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। गुफा की छत अष्टकोणीय है जो पत्थर की बनी है। ये छत खंबों पर टिकी है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का मानना है कि मक़बरे के कई हिस्सों में हिंदू अथवा बौद्ध मंदिरों से लूटे गए सामान का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिये मक़बरे की दीवारों पर यक्षी, मगरमच्छ और कमल की पत्तियों आदि के चित्र देखे जा सकते हैं।
मक़बरे के आसपास कई अवशेष बिखरे पड़े हैं। इनमें इल्तुतमिश के अन्य पुत्र रुकुनउद्दीन फ़ीरोज़ शाह और मोईज़उद्दीन बहराम शाह की टूटी-फूटी क़ब्रें शामिल हैं। यहां जीर्णशीर्ण हालत मे एक मस्जिद भी है जो शायद सुल्तान फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ (1309-1388) ने बनवाई थी।
समय के साथ शहर में सल्तनत द्वारा निर्मित स्मारक वास्तुकला अथवा राजनैतिक कारणों से अपनी प्रासंगिकता खो बैठे लेकिन सुल्तान गढ़ी अपने धार्मिक महत्व की वजह से आज भी ज़िंदा है। स्थानीय लोगों को भले ही इसका इतिहास मालूम न हो लेकिन उनका मानना है कि यहां उनके पीर बाबा के अवशेष दफ़्न हैं। यहां पास के गांव सुल्तानपुर, रंगपुर, मसूदपुर और महिपालपुर से हिंदू और मुस्लिम दोनों ज़्यारत करने आते हैं।
ये विडंबना ही है कि एक तरफ़ जहां उस समय के दूसरे स्मारक अपने ऐतिहासिक महत्व की वजह से संरक्षित हैं, वहीं ये स्थान इन लोगों की वजह से 800 सालों से अच्छी स्थिति में है। धार्मिक आस्था की वजह से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बजाय श्रद्धालू इसकी बेहतर तरीक़े से देखभाल करते हैं। दक्षिणी रिज यानी चट्टान की श्रृंकलाओं के बीच, आज सुल्तान गढ़ी गहमागहमी वाले दिल्ली शहर का एक वो राज़ है जिसे बड़ी हिफ़ाज़त से स्थानीय लोगों ने संभाल कर रखा है।
शीर्षक चित्र: यश मिश्रा
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