दिल्ली के इतिहास में तैमूर की पहल

दिल्ली के इतिहास में तैमूर की पहल

भारत की राजधानी दिल्ली ने सदियों से कई सुल्तानों और बादशाहों को आते-जाते देखा है। दिल्ली पर कई बार आक्रमण हुए, लेकिन हर बार दिल्ली इन हमलों से उभरी। सन 1739 में फारस (ईरान) के शासक नादिर शाह की दिल्ली में मचाई गई तबाही के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन उससे 340 साल पहले मध्य एशिया के शासक तैमूर का भी दिल्ली पर हमला कोई कम भयावह नहीं था। तैमूर ने सन 1398 में दिल्ली पर ऐसा प्रलयकारी हमला किया था, कि अगले दो सौ सालों तक दिल्ली इससे उभर नहीं सकी और वीरान होती चली गई।

तैमूर का जन्म आठ अप्रैल सन 1336 को ट्रांसऑक्सयाना (मध्य एशिया का एक प्राचीन क्षेत्र जिसमें मौजूदा समय के उज़्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और दक्षिण-पश्चिम कज़ाकिस्तान शामिल थे) में हुआ था। तैमूर एक साधारण-सा लुटेरा हुआ करता था, लेकिन जल्द ही एक सैन्य विजेता के रुप में उसकी ख्याति हो गई और वह तुर्क कबायलियों का नेता बन गया। एक बरलस मंगोल के रुप में उसने ख़ुरासान, ताशकंत और पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान में जीत हासिल करने बाद, अपनी तुर्की-मंगोल धरोहर की वजह से मंगोल साम्राज्य और इस्लामी जगत पर शासन करने की बात ठानी। चूंकि वह चंगेज़ ख़ां के वंश से नहीं था, इसलिए ना तो उसे ख़ां का ख़िताब मिला और ना ही इस्लामी जगत का सर्वोच्च ख़िताब ख़लीफ़ा ही मिल सका, क्योंकि ये ख़िताब क़ुरैश कबीले तक ही सीमित था। इससे निराश होकर तैमूर ने ख़ुद की छवि एक ईश्वरीय अलौलिक सत्ता केंद्र के रुप में बना ली और चंगेज़ ख़ां तथा क़ुरैश-वंशावली अपना ली। उसने अपने संस्मरणों में ख़ुद को अली का धार्मिक वंशज बताया है।

तैमूर | विकिमीडिआ कॉमन्स

तैमूर ने सन 1370 से कैस्पियन सागर के आसपास के इलाक़ों में अपनी सैन्य मुहिम शुरु की। सन 1390 के दशक तक जॉर्जिया, अज़रबेजान, फारस (ईरान) और अफ़ग़ानिस्तान के कई शहरों को जीतने के बाद तैमूर ने अपने साम्राज्य का विस्तार पश्चिम की तरफ़ करने का फ़ैसला किया। लेकिन उस्मानिया-साम्राज्य को तुर्कमेनिस्तान और सीरिया का समर्थन प्राप्त था। दुर्भाग्य से उन सबने मिलकर उसे पश्चिम की तरफ़ नहीं जाने दिया और इस वजह से तैमूर ने पूर्व दिक्षा का रुख़ करने का फ़ैसला किया।

तैमूर का हमला जॉर्जिया में | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1397 में तैमूर ने अफ़ग़ानिस्तान के जीते हुए कुछ प्रांत अपने पोते पीर मोहम्मद को दिए। शुरु में तैमूर ने अपना साम्राज्य फैलाने के लिए पीर मोहम्मद को भारत को फ़तह करने के लिए उत्साहित किया। पीर मोहम्मद ने दरिया-ए-सिंध पार करने के बाद, साल ख़त्म होते होते उच्छ शहर पर कब्ज़ा भी कर लिया था लेकिन उसको वहाँ के गवर्नर सारंग ख़ां की सेना का सामना करना पड़ा। इस वजह से तैमूर को ख़ुद कमान अपने हाथों में थामनी पड़ी।

इसी बीच तैमूर को उसके जासूसों से तुगलक वंश के आखिरी शासकों के कुशासन के कारण भारत की ख़राब स्थिति और वहां की दौलत के बारे में जानकारियां मिली। तैमूर ने अपने संस्मरणों में दावा किया है, कि वह ईश्वर के आदेश पर भारत को जीतने के लिए निकला था, ताकि उस ज़मीन (भारत को) अपने ‘कर्मों’ से पवित्र कर सके और ग़ाज़ी का ख़िताब हासिल कर सके।

मार्च सन 1398 में तैमूर ने अपनी राजधानी समरक़ंद से (अब उज़्बेकिस्तान में) अपने 92 हज़ार सैनिकों के साथ भारत की तरफ़ कूच किया और काबुल में पड़ाव डाला। अगले पांच माह उसने अफ़ग़ानिस्तान के जीते हुए प्रांतों की ज़िम्मेदारियां सरदारों को सौंपने में लगाए। इस बीच उसने हमले के लिए सर्वश्रेष्ठ लोगों का चयन भी किया और भारत तथा उससे लगी सीमाओं के बारे में जानकारियां भी हासिल कीं। काबुल से आगे की यात्रा उसने अगस्त सन 1398 में शुरु की।

समरक़ंद | विकिमीडिआ कॉमन्स

कहा जाता है कि तैमूर, 24 सितंबर सन 1398 को दरिया-ए-सिंध पार करने के बाद, अक्टूबर के मध्य में भारत आ गया था। उसने राजा राव दूलचंद को हराकर राजस्थान में भाटनेर क़िला जीता। 24 नवंबर को तैमूर ने पानीपत में डेरा डाला। वहां के बाशिंदे दूलचंद की हार के बाद भाग खड़े हुए थे। दिसंबर सन 1398 के पहले हफ़्ते में तैमूर दिल्ली पहुंच गया।

भाटनेर क़िला | विकिमीडिआ कॉमन्स

उस समय दिल्ली में तीन बड़े शहर यानी तुग़लक़ाबाद (आदिलाबाद किला के साथ), सिरी फ़ोर्ट और लाल कोट के क्षेत्र शामिल थे, और ये तीस दरवाज़ों वाले जहांपनाह की दीवारों से घिरे हुए थे। ये तीनों गढ़ राजपूत युग से लेकर अंतिम तुग़लक़ सुल्तान मोहम्मद शाह तुग़लक़ और उसके वज़ीर मल्लू इक़बाल ख़ां के समय में बने थे। मल्लू इक़बाल ख़ां, सारंग ख़ां का भाई था। बहरहाल, इन तीनों गढ़ों को बनाकर ही 14वीं सदी की दिल्ली बनी थी। दिल्ली सल्तनत सन 1206 से सत्ता का केंद्र रही थी और इस्लाम धर्म की शिक्षा का मुख्य केंद्र भी बनीं। ये इस्लामिक मदरसे तुग़लक़ सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने बनवाए थे।

मदरसा-ए-फ़िरोज़ शाही | लेखक

11 दिसंबर सन 1398 को वज़ीराबाद होते हुए, तैमूर ने यमुना नदी के किनारे पर डेरा डाला, जहां से उसने उत्तरी पहाड़ी पर जहानुमा नाम का एक महल देखा। ये महल तुग़लक़ सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने बनवाया था। तैमूर का आदेश मिलते ही सेना ने हमला बोल दिया और फिर उसने मोहम्मद शाह के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए मैदान तय किया । “पीर ग़ैब” नाम से प्रसिद्ध जहांनुमा का एक हिस्सा हिंदू राव अस्पताल के पास आज भी मौजूद है।

तैमूर के पहुंचने और उसके अगले हमले की ख़बर मिलने के बाद मल्लू इक़बाल ख़ां तैमूर पर अचानक हमला करने की तैयारी में जुटा गया था। तैमूर ने अपनी सेना को यमुना नदी पार करने का आदेश दिया और लोनी में ज़बरदस्त युद्ध हुआ, जो मौजूदा समय में ग़ाज़ियाबाद में आता है। युद्ध में लोनी के लोग या तो क़त्ल कर दिए गए या फिर उन्होंने आत्मदाह कर लिया। यहां क़रीब एक लाख लोग युद्धबंदी बनाए गए और फिर क़त्ल-ए-आम शुरू हुआ। यहीं पर मल्लू इक़बाल ख़ां ने अचानक तैमूर की फौजों पर हमला किया और जमकर लड़ाई भी लड़ी, लेकिन वह हार गया।

युद्ध के दो दिन बाद 14 दिसम्बर, 1398 को तैमूर फिरुज़ाबाद क़िले (जिसे आज फ़िरोज़ शाह कोटला के नाम से जाना जाता है) की तरफ़ बढ़ा, जहां वह पत्थरों की कारीगरी और वास्तुकला से बहुत प्रभावित हुआ। कहा जाता है, कि तैमूर ने क़िले के अंदर मौजूद एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ी थी। इसके पहले उसने दिल्ली के शहरों से अलग इस तरह की मस्जिद नहीं देखी थी। 16 दिसंबर, सन 1398 को उसने फिरुज़ाबाद के बाहर डेरा जमाया। ये शिविर पहले के शिविरों से अलग था, जहां शिविरों के आसपास खाई खोदी गई थीं, पेड़ काटे गए थे । गट्ठों तथा पीपों से खम्बे बनाए गए। इसका मक़सद दुश्मनों को धोखे से मंगोलों के क़रीब आने का लालच देना था, ताकि उन पर ज़बरदस्त हमला किया जा सके। युद्ध शुरु होने के पहले तैमूर ने कह दिया था, कि वह लंबा युद्ध नहीं चाहता।

फ़िरोज़ शाह कोटला | लेखक

दूसरी तरफ़ सुल्तान मोहम्मद के पास दस हज़ार घुड़सवार और चालीस हज़ार पैदल सैनिक थे। इनमें गुर्जर, जाट, मेव और आदिवासी सैनिक भी शामिल थे। इसके अलावा उसके पास 125 हाथी भी थे। सुल्तान मोहम्मद की सेना के पास मुख्यत: बांस के तीर कमान, ज़ंग लगी तलवारें और मामूली तीरंदाज़ थे। कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ में दावा किया गया है कि सुल्तान मोहम्मद की सेना के हथियार और तैयारी, तैमूर की सेना के हथियारों और तैयारी की तुलना में कहीं कमतर थे।

17 दिसंबर सन 1398 को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें बहुत कम समय में तैमूर को जीत मिल गई। तैमूर ने हाथियों का फौज से निपटने के लिए अनोखी रणनीति अपनाई थी। उसने ऊंटों की पीठ पर लकड़ियां रखकर उनमें आग लगा दी थी, जिसकी वजह से हाथी भाग खडे हिए थे। तैमूर ने शिविर ही नहीं, बल्कि युद्ध की भी पहले से तैयारी कर रखी थी, जिसकी वजह से मंगोलों को बहुत कम समय में जीत हासिल हो गई थी। युद्ध के बाद सुल्तान हौज़ रानी गेट से, जबकि मल्लू बाराका गेट से निकलकर भाग गया था।

युद्ध के फौरन बाद तैमूर ने ताराबाबाद और मदरसा-ए-फ़िरोज़ शाही में पड़ाव डाला, जिसके अवशेषों को आज हम हौज़ ख़ास गांव के नाम से जानते हैं। यहीं एक मस्जिद में तैमूर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया था और उसका झंडा लहराया दिया था।

फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के बनाए गए मदरसे का उल्लेख तैमूर के संस्मरण, मलफ़ुज़ात-ए-तैमूरी और आत्मकथा ज़फ़रनाम में मिलता है। इसमें बताया गया है कि कैसे तैमूर यहां की वास्तुकला और आसपास के इलाक़ों की सुंदरता से प्रभावित हो गया था। उसने ग़लती से जलाशय हौज़-ए-अलाई बनवाने का श्रेय फ़िरोज़ शाह को दिया, जबकि इसे अलाउद्दीन ख़िलजी ने 14वीं सदी के आरंभ में बनवाया था।

हौज़ ख़ास | लेखक

माना जाता है कि हौज़ ख़ास में, शुरुआत में तैमूर ने वहां रहने वालों को बक्श दिया था। ऐसा उसने इसलिए किया था, क्योंकि जब वह यहां डेरा जमाने आया था, तब यहां को लोगों ने उसका बहुत आदर सत्कार किया था। लेकिन तैमूर की सेना के अत्याचारों का स्थानीय लोगों ने जमकर प्रतिरोध किया था। शायद उसी प्रतिरोध की वजह से वहां क़त्ल-ए-आम हुआ था और इस क्षेत्र की शान चली गई थी। अगले पांच दिनों तक दिल्ली के तीनों शहरों में तबाही मचाई गई। 15 साल से ज़्यादा उम्र के पुरुषों को मौत के घाट उतारा गया, लेकिन महिलाओं औऱ बच्चों को छोड़ दिया गया।

लूटपाट के दौरान राजस्व अधिकारी मुंह मांगी वसूली करते रहे, जिसमें तुर्क सैनिक भी शामिल हो गए थे। इस बीच ख़िज़्र ख़ां को जब इन घटानाओं के बारे में पता चला तो उसने वक़्त बरबाद किए बग़ैर तैमूर से मुलाक़ात की और वह इस तरह तैमूर की सेना में शामिल हो गया। दरअसल सारंग ख़ां 1395 में ख़िज़्र ख़ां को मुल्तान के गवर्नर के पद से हटाकर ख़ुद वहां का गवर्नर बन गया था।

ख़ुद को बेगुनाह बताते हुए तैमूर ने कहा-

“अल्लाह की मर्ज़ी जिसमें मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं है, दिल्ली के तीनों शहर सिरी, जहांपनाह और लाल कोट पर हमला किया गया। ये अल्लाह का फ़रमान था, कि इन शहरों को तहस नहस किया जाए… ”

सिरी का क़िला | लेखक

जनवरी सन 1399 में तैमूर हरिद्वार, कांगड़ा और जम्मू जैसे शहर चला गया और उसने अपने भारतीय अभियान के दौरान ख़ूब धन दौलत जमा की। हालांकि उसने कई मंदिर और भवन नष्ट किए, लेकिन वास्तुकला से वह तब भी प्रभावित था और वह यहां से अपने साथ दक्ष कारीगर ले गया, जिन्होंने मध्य एशिया में कई भवन बनाए। तब समरक़ंद मध्य एशिया में शामिल था। कई दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि तैमूर की भारत मुहिम में 17 मिलियन ( एक करोड़, सत्तर लाख) लोग मारे गए थे जो उस समय विश्व आबादी का पांच प्रतिशत थे।

तैमूर के हमले का कई मायने में भारत पर प्रभाव पड़ा, फिर वो चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो या फिर धार्मिक हो। उस समय इस वजह से हिंदू-मुसलमानों के बीच कटुता पैदा हो गई थी औऱ बाल-विवाह जैसी कुरीति को भी बढ़ावा मिलने लगा था। बाल-विवाह इसलिए होने लगे थे, ताकि बच्चों को हमलावरों से बचाया जा सके। सिरी, जहांपनाह और लालकोट जैसे इलाके दोबारा बसाए गए लेकिन भावी हमलों के डर से कम ही लोग यहां रहते थे। सन 1507 में, हौज़ ख़ास गांव में स्थित फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के मक़बरे जैसे भवनों की मरम्मत सिकंदर लोदी (सन 1489-1517) ने करवाई थी।

स्वदेश वापसी के पहले तैमूर ने ख़िज़्र ख़ां को दिल्ली का सूबेदार बना दिया । खिज़्र खां ने सन 1414 आते-आते नए सयैद राजवंश की नींव डाली दी। लेकिन दिल्ली का पतन जारी रहा और लोदी शासकों ने अपनी राजधानी आगरा बना ली। मुग़ल बादशाह हुमांयू ने दिल्ली के पुराने क़िले के पास नया शहर दीनपनाह बसाया था, लेकिन शाहजानाबाद शहर की स्थापना तक दिल्ली अपनी पुरानी शान को तरसता रहा। इस नए शहर पर भी नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (सन 1857) ने हमले किए थे।

आज दिल्ली में तैमूर के हमले के, बहुत कम निशान बचे हैं यहां तक कि सिरी, जहांपनाह और लालकोट भी ग़ायब हो चुके हैं।

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