मारवाड़ में प्रतिहार काल (8वीं से 11वीं सदी) को स्थापत्य एवं मूर्तिकला का स्वर्णिम युग कहा जाता है। इस दौरान यहां जगह-जगह कई देवी-देवताओं के देवालयों का निर्माण विभिन्न शैलियों में हुआ। आज भी नागौर ज़िले में प्रतिहारकालीन स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अनेक अनुपम उदाहरण मौजूद हैं। दिलचस्प बात ये है कि यहाँ मौजूद मेड़ता नाम का शहर, ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। शहर से मात्र 15 कि.मी. दूरी पर स्थित है, मेड़ता रोड़ रेल्वे जंक्शन, जिसकी गिनती भारत के अत्यधिक सक्रीय रेलवे स्टेशनों में की जाती है। आईये जानते हैं, इस क़स्बे के स्थल और उससे जुड़ा इतिहास।
मेड़ता रोड़
नागौर ज़िले के दक्षिणी छोर पर बसा हुआ है। जिसे प्राचीन संस्कृत लेखों में फलवृर्द्धिका और आम भाषा में फलौदी या फलोधि के नाम से भी जाना जाता है। इसकी पहचान यहां स्थित देवी ब्रह्माणी माता और भगवान पार्श्वनाथ मंदिर के कारण देश-विदेश तक बनी हुई है। इसके अलावा यह लोकनाट्य कुचामणी ख्याल के दिग्गज पं. उगमराज और अन्य सहायक लोक कलाकारों के कारण भी पहचाना जाता है। 12वीं सदी की पश्चिमी भारतीय कला परंपरा में अनेक जैन धर्मावलम्बियों का योगदान भी रहा है, उनमें खतरगच्छ साधुओं द्वारा, यहां चित्रित कराई गई पटिट्काएं भी विशेष रही हैं।
ब्रह्माणी माता (फलवृर्द्धिका) मंदिर
मारवाड़ के विभिन्न गांवों में शक्ति के विविध रूपों में वात्सल्य, सौम्य और भावों से परिपूर्ण प्रतिमाओं के अनेक आराधना स्थल बने हुए हैं। सप्त मातृकाओं में ब्रह्माणी, रूद्राणी और कमला स्वरूपों के मंदिर मौजूद हैं। अपने कुल अनुसार शक्ति पूजा के नामकरण के साथ ही पूजा स्थलों की सुदीर्घ-परंपरा का सूत्रपात हुआ। ऐसा ही एक आस्था का स्थल मेड़ता रोड़ रेल्वे स्टेशन से दो किमी दूर तालाब के किनारे पर स्थित है। फलवृर्द्धिका या ब्रह्माणी माता मंदिर परिसर में देवी ज्वाला, कालका और शीतला माता के साथ भूतल में शिवालय भी बना हुआ है। यह मंदिर प्रतिहार काल के माने जाते हैं। स्थानीय तथ्यों के अनुसार सन 1012 से लेकर 1013 ईस्वी में इस मंदिर का जीर्णोद्वार राजा नाहड़राव ने करवाया था।
साहित्यकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता बताते हैं, कि इस मंदिर के सभा मण्डप का बाहरी भाग और शिखर नए हैं,लेकिन भीतर के स्तम्भ और दीवारें दसवीं या इससे पूर्व के हैं। मुख्य मंदिर के बाहर बने तीन ताक़ों में नरसिंह अवतार, वराह तथा देवी की मूर्तियाँ स्थापित है। देवी की मुख्य मूर्ति आठ भुजाओं वाली थी, जिसके छः हाथ काफ़ी पहले टूट चुके थे।
मुख्य मंदिर में ब्रह्माणी माता के साथ एक देवी मूर्ति, भगवान गणेश और भैरव भगवान विराजमान हैं। इस मंदिर के दक्षिण में निकट ही एक अन्य प्राचीन मंदिर है, जो प्रतिहार काल का माना जाता है। इसके प्रधान ताक़ों में कुबेर त्रिविक्रम वामन और भगवान गणेश की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर में एक अद्धितीय वास्तुकला और प्रतिहार काल की मुख्य स्थापत्थ कला का एक बेजोड़ नमूना तोरण-द्वार के बारे में मुनीम कंवरलाल बताते हैं, कि यह प्राचीन संस्कृति की अद्भूत कृति है, जो कभी नौ खण्डों में बँटा हुआ था। इस पर विशाल द्वीप स्तम्भ के रूप में स्थापित था।
नवरात्रि के दौरान इस पर रखी देवी की ज्योति के दर्शन आस-पास गांवों के श्रद्धालुओं करते थे। मगर मुग़ल काल में इस क्षेत्र के अन्य सभी धार्मिक स्थलों के साथ इस भव्य मंदिर और तोरण-द्वार को भी तोड़ दिया गया था। मंदिर परिसर में आज भी ऐसी कई मूर्तियां, स्तम्भ, पत्थर मौजूद हैं, जो कभी यहां के अन्य मंदिरों के भाग रहे होगें।
मंदिर के पास एक पुरानी बावड़ी भी बनी हुई थी। मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट जोधपुर क़िले के उपनिदेशक डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर बताते हैं, कि इस क़स्बे सहित अन्य मंदिरों का सन 1956 में सर्वे करवाया गया था। उस समय मारवाड़ के इस फलौदी गांव के फलवृर्द्धिका माता मंदिर में देवी मूर्ति के अलावा भगवान विष्णु, गणेश, नवग्रह की मूर्तियों के साथ पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी बनी हुई थीं। पशु-पक्षियों में मोर, गाय और शेर, योगिनी, गंगा-यमुना, मकरवाहिनी, कछपह अवतार सहित एक राजा का चबुतरा भी बना हुआ था। जिसके आस-पास अनेक यक्ष, गंधर्व किनर सहित मंदिर की अन्य मूर्तिया भी रखी हुई थीं। वहीं दो खम्भों पर चौखट के बगल में पर एक सुंदर मुर्ति देवी ब्रह्माणी की है, जो कमल के फूलों पर बैठी हुई थी। अन्य सुंदर मूर्तियों के समुह में श्रीहरि विष्णु के हाथों में गदा लिए हुए बतलाया गया था। एक देवी मूर्ति मुण्डमाला धारण किए हुए थी। हाथों में ढ़ाल और अन्य अस्त्र, शस्त्र बने हुए थे। अन्य मूर्तियों में मातृ देवी, सरस्वती, स्वास्तिक और शिवलिंग स्थापित किये हुये थे।
शिलालेख
मंदिर के सभा मण्डप के दो प्राचीन खम्भों पर कई लेख उकेरे गये हैं, जिनकी भाषा संस्कृत मिश्रित देसी है। पहले लेख में फलवृर्द्धिका देवी का उल्लेख मिलता है। दूसरे लेख में 26 अगस्त, सन1408 अंकित है, जिसमें लिखा गया है, कि इस मंदिर को गहलोत शासक ने दोबारा बनवया गयाथा। तीसरा लेख सन 1478 का है, जिसमें मंदिर के जीर्णोद्वार की बात लिखी गई है। एक महत्वपूर्ण शिलालेख के बारे में डॉ. हुकमसिंह भाटी बताते है, कि यहाँ पर सन1498 की एक प्रशस्ति जो कभी इस मंदिर में उकेरी गई थी, अब लुप्त हो चुकी है। लेकिन इसकी नक़ल विनय सागर के संग्रह में है। इससे पता चलता है, कि इस मंदिर का जीर्णोद्वार राठौड़ दुर्जनशल्य के राज्य में सुराणा गोत्रीय हेमराज ने अपने परिवार के साथ देवी मंदिर में प्रतिष्ठा नंदिवर्द्धन सुरि ने करवाई थी। यह प्रशस्ति राजस्थान भारती में 4 मार्च सन 1967 को प्रकाशित हुई थी।
नवरात्रि पर्व की विशेषता
यह एक ऐसा देवी मंदिर है, जहां नवरात्रि पर्व के दौरान एक अद्भूत ‘‘दुवा’’ प्रथा है। यहां नवरात्रि घट स्थापना अमावस्या के दिन से शुरू होकर सप्तमी तक पर्व मनाया जाता है। इस बीच छः दिनों तक किसी भी प्रकार का भोग या प्रसाद देवी को नहीं चढाया जाता है। दूसरी ओर गर्भगृह में उपासना करने वाले भक्तों को मात्र चरणामृत के सहारे ही रहना होता है। इस मंदिर में विराजमान दिव्य मां फलोदी ब्रह्माणी (फलवृर्द्धिका) कई वंश, गौत्र की कुल देवी है। यहां देशभर से श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं। मंदिर में कई वर्षों से अखण्ड ज्योति भी जल रही है। यहां पूजा अर्चना का कार्य लंकेश्वर जी पुजारी के वंशज आज तक करते आ रहे है।
इनके लिए राजा नाहड़ ने 52 हज़ार बीघा जमीन भी दान की थी। वर्तमान में मंदिर की व्यवस्था एक ट्रस्ट द्वारा की जा रही है।
जैन मंदिर
इस क़स्बे के बस स्टेशन पर बने विशाल परकोटे के भीतर 12वीं सदी का भगवान पार्श्वनाथ का भव्य जैन मंदिर बना हुआ है। ट्रस्ट अध्यक्ष पन्नालाल सिंघवी बताते हैं, कि श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ स्थल पर वर्ष में दो मेले आयोजित किए जाते हैं। पहले में बड़ी पूजा तथा रथ-यात्रा, दूसरी में पार्श्वनाथ के जन्मोत्सव का आयोजन होता है।
इस प्राचीन तीर्थ स्थल पर बालू मिट्टी से निर्मित पार्श्वनाथ, सुमतिनाथ, शांतीनाथ भगवान के सुंदर रूप विराजमान हैं।
प्राचीन शिलालेख (सन 1164) में पोरवाड़ रूपमुनि एवं भंडारी दसाठा आदि द्वारा यहां प्रदान की गई भेंट की सूचना है। दूसरे लेख में तारीख़ नहीं है, हालांकि इसमें सेठ मुनिचंद्र द्वारा उत्तान पट्ट् बनाये जाने का उल्लेख है। सभा मण्डप के ताक़ों में मूर्तियां रखी है, और समवसरण (समोसरण) और नंदीश्वर द्वीप की नवीन शैली की रचनाएं भी हैं।
जैन धर्म में फलौदी के इस मंदिर को बहुत बड़ा तीर्थ भी माना जाता है। 12वीं सदी से पहले यहां भगवान महावीर का प्राचीन जैन मंदिर भी रहा था। सन1147 में धर्मघोष सुरि द्वारा पाश्र्वनाथ मूर्ति की स्थापना करवाई गई थी। विविध तीर्थकल्पों के अनुसार इसके उद्घाटन समारोह में अजमेर और नागौर सहित अनेक जगहों से श्रद्धालुओं ने भाग लिया, और धांधला नामक भामाशाह ने मंदिर निर्माण व समारोह का ख़र्च उठाया था। इस स्थान का उल्लेख तीर्थकल्प, तीर्थमाला तथा अन्य जैन ग्रंथों में भी है।
स्थानक का जैनियों की खतरगच्छ शाखा से सम्बद्ध रहा है। इस क़स्बे में दक्षिणमुखी हनुमानजी, रामदेवजी, सत्यनारायण भगवान मंदिर सहित, रामद्ववारा में भी कई धार्मिक आयोजन होते हैं। इस प्रकार इस फलौदी तीर्थ की महिमा अनुपम और अनूठी रही है।
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