उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर कोुछ अनुमानों के अनुसार भुवनेश्वर में लगभग 500 ऐतिहासिक मंदिर हैं। शहर के लिंगाराजा, राजारानी और मुक्तेश्वर मंदिर जहां प्रसिद्ध हैं वहीं कई ऐसे भी प्राचीन मंदिर हैं जो भुला दिए गए हैं। ये मंदिर हैं परशुरामेश्वर या शत्रुघ्नेश्वर। ये मंदिर न सिर्फ उड़ीसा बल्कि संभवत: देश के प्राचीनतम मंदिरों में से हैं।
भुवनेश्वर में मंदिर निर्माण की परंपरा 7वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक लगातार चलती रही। यहां कलिंगा शैली के सबसे ज़्यादा मंदिर हैं। शिवभक्तों के लिए भुवनेश्वर एक महत्वपूर्ण केंद्र था। इसका अंदाज़ा शिव मंदिरों की संख्या और उनके नामों को देखकर लगाया जा सकता है।
क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी के इतिहासकार थॉमस डोनाल्डसन के अनुसार शुरुआती मध्यकाल (11वीं- 15वीं शताब्दी) के दौरान पूर्वी गंगा राजवंश और गजपति राजा कला और वास्तुकला के बड़े संरक्षक थे। उन्हीं के शासनकाल में ज़्यादातर मंदिरों का निर्माण हुआ था हालंकि इसकी शुरुआत बहुत पहले छठी और 8वी शताब्दी में सैलाभाव वंश के समय हो चुकी थी। उड़ीसा में खोंडोलाइट पत्थर मिलता है और ज़्यादातर मंदिर इसी पत्थर से बने हैं।
गर्भगृह वाले पूजा स्थान को देउल कहा जाता है। इसके सामने कलिंगा शैली में बना मंडप है जिसे जगनमोहन कहा जाता है।
हालांकि उड़ीसा के मंदिरों को उत्तर भारतीय अथवा नागरा वास्तुकला के तहत वर्गीकृत किया गया है लेकिन मंदिरों की भिन्नता और संख्या की वजह से इन्हें कभी कभी अलग वर्ग में भी रखा जाता है जिसे कलिंगा-स्कूल कहा जाता है। कलिंगा उपवर्ग में भी तीन वर्ग है-रेखा देउल, पिडा देउल और खाखरा देउल, यह गर्भगृह की शैलि के आधार पर वर्गीकृत किया गया है|
भुवनेश्वर में 5वीं और छठी शताब्दी में सैलाभाव वंश के समय बने थे। इस राजदवंश ने छठी से 8वीं शताब्दी के दौरान पूर्वी भारत के हिस्सों पर शासन किया था। इसी तरह माना जाता है कि शत्रुघ्नेश्वर, भारतेश्वर और लक्ष्मणेश्वर मंदिर शहर के आरंभिक मंदिरों में थे जो कलिंगा शैली में बनाए गए थे। लक्ष्मणेश्वर मंदिर में मिले शिलालेख के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। दुर्भाग्य से इन मंदिरों के कुछ ही अवशेष बचे रह गए हैं और जो मंदिर आज हम देखते हैं वो दरअसल राज्य के पुरातत्व विभाग ने दोबारा बनवाए हैं।
इन तीन मंदिरों के अलावा परशुरामेश्वर मंदिर भी बहुत पुराना है और माना जाता है कि इसका निर्माण 7वी शताब्दी में हुआ था। ये मंदिर काफी अच्छी हालत वाले मंदिरों में से एक है जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व विभाग करता है। ये मंदिर उसी परिसर में है जहां मुक्तेश्वर मंदिर है। ये मंदिर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे उड़ीसा में मंदिर निर्माण के इतिहास की जानकारी मिलती है। कला इतिहासकार पर्सी ब्राउन परशुरामेश्वर मंदिर को उड़िया वास्तुकला के आरंभिक मंदिरों में से एक मानते हैं।
ये चारों मंदिर कलिंगा वास्तुकला की तर्ज़ पर रेखा देउल शैली में बनाए गए हैं। इस शैली में मंदिर एक सीधी लकीर में बनाए जाते हैं और शिखर के ऊपर अम्लका होता है। इसी तरह का एक महत्वपूर्ण मंदिर वैतल देउल है जो खाखड़ा शैली में बना है।
पर्सी ब्राउन के अनुसार परशुरामेश्वर मंदिर लंबाई-चौड़ाई के मामले में बहुत छोटा है। इसकी चौड़ाई 48 फुट और शिखर की लंबाई 44 फुट है। पर्सी कहते हैं कि इसे इसके आकार की वजह से ‘म्यूज़ियम पीस’ कहा जा सकता है।
मंदिरों की उम्र का अंदाज़ा निर्माण की तकनीक से लगाया जा सकता है। यहां मंदिर निर्माण में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इन पत्थरों को उनके वज़न के अनुसार रखा जाता है। न पत्थरों को इंटरलॉकिंग सिस्टम के ज़रिये एक दूसरे से जोड़ा जाता है तथा इस तकनीक में गारे-चूने की ज़रुरत नहीं पड़ती।
ये सभी मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं। उड़ीसा के इतिहास और धरोहर पर काम करने वाले इतिहासकार और पुरातत्वविद जीतू मिश्रा बताते हैं कि प्राचीनकाल में उड़ीसा में शिव पशुपत संप्रदाय होता था। पशुपत संप्रदाय शिव की पूजा करता है और वह शिव को परम देवता मानते हैं। इस संप्रदाय में शिव की पूजा लकुलिशा रुप यानी योगी के रुप में की जाती है।
मिश्रा ने बताया कि इस बात पर एक राय नही है कि इन मंदिरों को किसने बनाया लेकिन ज़्यादातर विवेचनाओं के अनुसार मंदिर निर्माण में व्यापार मंडलों या फिर स्थानीय लोगों ने मदद की थी जो यहां पूजा करते थे। उन्होंने कहा कि ये मंदिर बनावट में अर्धविकसित लगते हैं और चित्रकारी में लोक जीवन का प्रभाव देखा जा सकता है। दूसरी तरफ बाद के मंदिर जैसे मुक्तेश्वर और राजारानी में भव्यता और नफ़ासत दिखती है।
जीतु मिश्रा ने एक और दिलचस्प बात बताई। उन्होंने बताया कि उड़ीसा के आरंभिक मंदिरों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव नज़र आता है। इन मंदिरों के भीतरी हिस्सों में उत्तर भारत के मंदिरों की तुलना में काफी अंधेरा रहता है। ये मंदिर बौद्ध चैत्य और विहारों से काफी मेल खाते है| यहाँ प्रतिमाएं मंदिर के बाहरी तरफ ही हैं। मुक्तेश्वर मंदिर के सिवाय सभी कलिंगा मंदिरों की छतें सादी है यानी उन पर कोई नक्काशी नही है।
पुरातत्वविद के.सी. पाणिग्राही के अनुसार भुवनेश्वर में कई आरंभिक मंदिरों के नाम पशुपत संप्रदाय के शिक्षकों के नाम पर रखे गए थे। परशुरामेश्वर मंदिर का भी नाम पहले पारासारा शिक्षक के नाम पर रखा गया था। इसका पहले नाम पारासवारा मंदिर था। मिश्रा ने कहा कि बाकी तीन मंदिरों के यह नाम भी शायद बाद में रखे गए।
भुवनेश्वर में लिंगराज या मुक्तेश्वर जैसे कई मध्ययुगीन भव्य और सुंदर मंदिर हैं जिसकी चकाचौंध में आप खो सकते हैं लेकिन शत्रुध्नेश्वर, भारतेश्वर, लक्ष्मणेश्वर और परशुरामेश्वर मंदिरों को अपनी ख़ूबियां हैं। हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि मंदिर निर्माण की बुनियाद इन्हीं मंदिरों ने डाली थी।
लिव हिस्ट्री इंडिया ट्रैवल गाइड
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में मंदिर स्थित हैं।
– सबसे करीब भुवनेश्वर रेल्वे जंक्शन है जो सिर्फ़ 5 कि.मी. दूर है।
– भुवनेश्वर में ही बीजू पटनायक अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है और ये भी 5 कि.मी. दूरी पर है।
– परशुरामेश्वर मंदिर उसी परिसर में है जिसमें मुक्तेश्वर मंदिर है। शत्रुध्नेश्वर, भारतेश्वर और लक्ष्मणेश्वर मंदिर मौसिमा फ़्लाइओवर के पास हैं।
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