ब्राह्मण हैं थाईलैंड के शाही पुजारी

ब्राह्मण हैं थाईलैंड के शाही पुजारी

बैंकाक में,13 मई2019 को एक शानदार राज्याभिषेक समारोह के बाद थाईलैंड के नए राजा ने राम-दसवें  के रूप में देश की कमान संभाली। राजा वजिरालंगकरण को थाईलैंड में बौद्ध धर्म का समर्थक माना जाता है, लेकिन उन्हें हिंदू देवता राम के रूप में मान्यता दी गई है। इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है, कि उनका राज्याभिषेक समारोह थाईलैंड के शाही ब्राह्मणों ने किया था, जिनकी जड़ें भारत में हैं।

बौद्ध धर्म की तरह हिंदू धर्म भी भारत से दक्षिण पूर्व एशिया में  फैला था, और इस क्षेत्र के कुछ देशों का धर्म भी बन गयाथा। इसका मुख्य कारण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच समुद्री व्यापार और बाद में इस क्षेत्र में ब्राह्मणों का आगमन था।

राजा वजिरालंगकरण का राज्याभिषेक

वर्तमान युग की शुरुआत के बाद से ही ब्राह्मण, दक्षिण-पूर्व एशिया जाकर बसते रहे हैं।दरअसल, खमेर की पौराणिक कथाओं के अनुसार फुनान के संस्थापक राजा कौंडिन्य भारतीय ब्राह्मण थे। इतिहास इस बात का गवाह है, कि खमेर राजघरानों के लोगों ने अपने दरबार के भारतीय ब्राह्मणों से विवाह किए थे। उदाहरण के  लिए, खमेर साम्राज्य के राजा राजेंद्रवर्मन की बेटी और राजा जयवर्मन की बहन राजकुमारी राजलक्ष्मी का विवाह दिवाकर भट्ट नाम के एक भारतीय ब्राह्मण से हुआ था। दक्षिण-पूर्व एशिया के मुख्य राष्ट्रों के राजा या तो हिंदू हुआ करते थे या फिर बौद्ध। राज्य का धर्म भले ही कुछ भी रहा हो, सत्ता को वैधता प्रदान करने के लिए राज्याभिषेक, ब्राह्मण ही किया करते थे।

शाही थाई दरबार में ब्राह्मणों का महत्व ज़्यादातर ‘देवराज’ या ‘राजा-देवता’ की अवधारणा के कारण है। इसे संस्थागत बनाने में ब्राह्मणों की भूमिका अहम थी। देवराज की अवधारणा तमिल चोल शासकों से इंडोनेशिया के हिंदू जावा साम्राज्यों तक पहुंची थी, और जिसे आधुनिक कंबोडिया के खमेर साम्राज्य के जयवर्मन-द्वितीय ने आत्मसात कर लिया था। समय के साथ खमेर राजाओं ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया लेकिन इस प्रथा को जारी रखा। यह प्रथा बौद्ध थाई राज्यों ने भी अपना ली, क्योंकि वे कभी खमेरों के अधीन हुआ करते थे।

थाई राजा ब्राह्मणों पर निर्भर थे, जो उनके दरबार में पुजारी, मंत्री, डॉक्टर, ज्योतिषी और कवि के रूप में मौजूद होते थे। 14वीं शताब्दी में, अयुथिया के पहले राजा रामथि बोदी-प्रथम  का राज्याभिषेक एक ब्राह्मण ने किया था, जिसे भारत के पवित्र शहर बनारस से थाईलैंड बुलवाया गया था।

राजा रामा दसवें के राज्याभिषेक के दौरान उनके शाही दस्ते की परिक्रमा

थाईलैंड में तीन तरह के ब्राह्मण हैं। पहले ब्रह्मलुआंग या शाही ब्राह्मण, जिनका राज्याभिषेक समारोहों और अन्य महत्वपूर्ण अनुष्ठानों पर एकाधिकार होता है।वे हिंदू ब्राह्मणों के वंशज होने का दावा करते हैं, जो भारत से थाईलैंड गए थे। दूसरे हैं ब्रह्मचाओबाण या लोक ब्राह्मण। ये ब्राह्मणों के वंश से संबंधित नहीं हैं, लेकिन इन्हें ब्राह्मणों के रूप में शामिल किया गया है, और इन्हें अनुष्ठानों और समारोहों का बहुत कम ज्ञान है। तीसरे वे हैं,जो आधुनिक समय में भारत से पलायन करके गए हैं।

ब्रह्मलुआंग थाई ब्राह्मण हैं, लेकिन वे उन ब्राह्मणों का वंशज होने का दावा करते हैं, जो अयुथिया काल के दौरान भारत से यहां आए थे। ‘क्रॉनिकल ऑफ़ ब्राह्मण ऑफ़ नखोनसीथमारत’ के अनुसार, उनके पूर्वज रामरत नामक स्थान से अयुथिया आए थे, जिनकी संस्कृति तमिलनाडु के रामेश्वरम से मिलती-जुलती है।

19वीं शताब्दी में, राजा मोंगकुटयाराम-चतुर्थ ने देश के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के तहत सरकार में ब्राह्मणों की भूमिका को कम कर दिया था । सन 1932 की क्रांति के कारण राजा प्रजाधिपोकयाराम-सप्तम के शासनकाल के दौरान ब्राह्मणों की हैसियत में और गिरावट आई।क्रांति ने थाईलैंड में राजतंत्र को समाप्त कर दिया, और ब्राह्मणों को बड़े पदों से हटा दिया गया।दरबारी ब्राह्मणों की संख्या घटाकर पाँच कर दी गई, और कई समारोह बंद कर दिए गए।लेकिन राजा भूमिबोल अदुल्यादेज याराम-नवें ने इनमें से कुछ समारोह बहाल कर दिए और दरबारी ब्राह्मणों की संख्या बढ़ा कर नौ कर दी गई।

राज्याभिषेक समारोह को थाईलैंड में ‘रचाफिसेक’ कहा जाता है, जो संस्कृत के ‘राज्याभिषेक’ से लिया गया है। इसमें स्नान करके शुद्धिकरण किया जाता है। थाईलैंड की तरह कंबोडियाई सम्राटों के राज्याभिषेक भी स्थानीय खमेर ब्राह्मणों करते हैं। इसी तरह की परंपरा ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य में शामिल होने और कोनबांग राजशाही के ख़त्म होने से पहले बर्मा में भी रही है। बौद्ध राष्ट्र होने के कारण थाईलैंड, कंबोडिया और बर्मा में राज्याभिषेक के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता होती है।

वर्तमान राजवंश के संस्थापक राजा, राम-प्रथम ने जब बैंकॉक का निर्माण किया, तो उन्होंने शाही ब्राह्मणों के लिए बौद्ध मंदिर वात सुथात के पास देवस्थान नामक एक हिंदू मंदिर परिसर का निर्माण किया। आज यह शाही थाई ब्राह्मणों का कार्यालय और निवास है। परिसर के अंदर विष्णु, शिव, ब्रह्मा और गणेश के मंदिर हैं।

थाई ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों में से एक है त्रियमपवई-तिरूप्पवै अनुष्ठान। यह त्रियमपवई और तिरूप्पवै दो अनुष्ठानों का एक संयोजन है। त्रियमपवई शब्द शिव भक्त तमिल कवि मणिक्कवाचकर के ग्रंथ ‘तिरुप्पवै’ से लिया गया है जबकि तिरूप्पवै शब्द एक अन्य तमिल कवि अंडाल के शैव ग्रंथ से लिया गया है। नाथन मैकगवर्न ने अपनी पुस्तक ‘त्रयमपवई तिरुप्पवै ऑफ़ थाईलैंड एंड तमिल ट्रडिशंज़ ऑफ़ मरकली’ में लिखा है, कि इन दोनों अनुष्ठानों का विलय बैंकाक काल की शुरुआत में कर दिया गया था, ताकि ब्राह्मणों के धार्मिक संस्कारों के कैलेंडर को आसान बनाया जा सके।

देवस्थान के भीतर मौजूद शिवलिंग

त्रियमपवई-तिरूप्पवै अनुष्ठान स्विंग फ़ेस्टिवल (झूले का त्यौहार) के लिए सबसे अधिक जाना जाता है। कभी ये एक शानदार उत्सव हुआ करता था, जो देवस्थान के बाहर एक बड़े झूले पर आयोजित किया जाता था। इस त्योहार के दौरान, विष्णु, शिव और ब्रह्मा को तमिल भजनों का जाप करते हुए हंस पर वापस स्वर्ग भेज दिया जाता था। सन 1932 की क्रांति के बाद, सन 1934 में इस भव्य उत्सव को सुरक्षा और फ़िज़ूल ख़र्च की वजह से बंद कर दिया गया था।

शाही ब्राह्मणों द्वारा आयोजित एक अन्य महत्वपूर्ण समारोह ‘पहला जुताई समारोह’ है जिसे स्थानीय रूप से ‘रायक ना ख्वां’ कहा जाता है। यह समारोह छठे चंद्र मास के दौरान होता है, जो मार्च से अप्रैल के आसपास होता है। इस समारोह में राजा या उसका नुमाइंदा अच्छी फ़सल सुनिश्चित करने के लिए खेतों की जुताई का अनुष्ठान करता है। यह प्रथा कंबोडिया में भी आम है और पहले बर्मा में भी प्रचलित थी। शाही जुताई समारोह की इस परंपरा का उल्लेख रामायण के साथ-साथ बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है।

बाएँ में विशाल झूला और उसके पीछे वाट सुथात

 

न सिर्फ़ शाही परिवार बल्कि थाईलैंड के आम लोग भी ब्राह्मणों को अनुष्ठान के लिए बुलाते हैं। प्रियावत कुआनपूनपोल ‘कोर्ट ब्राह्मण ऑफ़ थाईलैंड एंड द सेलीब्रेशन ऑफ़ द ब्राह्मनिक न्यू ईयर’ में लिखते हैं, कि आम लोगों के ज़्यादातर अनुष्ठान बौद्ध भिक्षु कराते हैं, लेकिन गंभीर मामलों में जब बौद्ध उपचार विफल हो जाते हैं, जैसे लगातार दुर्भाग्य का बना रहना या फिर अभिशप्त घर को पवित्र करना आदि, तो ब्राह्मणों को बुलाया जाता है।

 

 

सन 1950 में राजा भूमिबोल अदुल्यदेज शाही ब्राह्मण से शाही वस्तुएं लेते हुए

आधुनिक थाई ब्राह्मण खुद को बौद्ध मानते हैं और बुद्ध की पूजा करते हैं लेकिन उनके अनुष्ठानों, आस्थाओं और परंपराओं से साफ़ होता है, कि वे हिंदू धर्म के अनुयाई हैं। हिंदू देवताओं की पूजा करना बौद्ध धर्म के विपरीत नहीं माना जाता है। हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच प्रमुख दार्शनिक अंतर आत्मा और अनात्मन की अवधारणा में है और यहां तक कि ये अनस्थिर (अनिच्च) के बौद्ध विचार से मिलता जुलता है। थाई समाज में, हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के बीच कोई ख़ास विभाजन नहीं है। जब तक थाईलैंड में बौद्ध राजशाही की संस्था मौजूद है, ब्राह्मण और उनके अनुष्ठान प्रासंगिक रहेंगे।

 

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