भारतीय इतिहास में राजस्थान राज्य का गौरवशाली स्थान रहा है। यहाँ के रणबांकुरों ने देश, देश की स्वाधीनता और देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने में तनिक भी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण देशवासियों को गर्व रहा है। वीरों की इस भूमि पर मौजूद क्षेत्रों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हीं में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है। यहां के अनेक वीर-वीरांगनाएं देश, धर्म और स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान देकर इतिहास में अमर हुए हैं। मेवाड़, वीरों की कहानियां आज भी सुना रहा है। महानायक महाराणा प्रताप ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर केभी मुग़लों की हुकूमत स्वीकार नहीं की। महाराणा प्रताप द्वारा जलाई आज़ादी की इस मशाल को शाहपुरा और बिजोलिया के स्वतन्त्रता सेनानियों ने थामें रखी और कई आंदोलनों को सफल कर दिखाया।
‘‘हरियाली अमावस सुखद, शुभ मुहूर्त को जान लो,
स्वतन्त्रता के हित अब, धर्म युद्ध की ठान लो,
प्राण मित्रों भले ही गँवाना, पर यह झण्डा ना नीचे झुकाना”
(सन 1917 में हरियाली अमावस्या के दिन पंचायत की स्थापना के अवसर पर अपने कार्यालय से किसानों को महान क्रांतिकारी विजयसिंह पथिक ने कुछ इस प्रकार से आह्वान किया था।)
स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका निभाने वाले तमाम सेनानियों को आज़ादी के अमृत महोत्सव महापर्व पर सादर नमन करते हुए आज आपको मेवाड़ क्षेत्र में भीलवाड़ा ज़िले के शाहपुरा क़स्बे की उस ऐतिहासिक हवेली पर लिए चलते हैं, जहां से क्रांति की अलख निरन्तर जलती है, और ये आगे चलकर स्वतंत्रता सेनानियों की तीर्थस्थली बनी। ये वही हवेली है, जहां जन्म लेने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर केसरीसिंह बारहठ, उनके भाई जोरावरसिंह और उनके पुत्र कुंवरप्रताप सिंह व दामाद ईश्वरदानजी आशिया ने आज़ादी के लिए अपना बलिदान देकर शाहपुरा का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर दिया। उनके इस बलिदान की अमरगाथा बारहठ जी की हवेली आज भी सुना रही है।
ठा. केसरीसिंह बारहठ
भारतीय इतिहास के उस क्रांति युग में जब देश के नर-नारी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे थे, राजस्थान का जनमानस भी अंग्रेजों के आतंक, रियासती सामंतों के अत्याचार और जागीरदारों के शोषण और उत्पीड़न के दुष्चक्र में फंसा मुक्ति के लिए व्याकुल था। उस दौरान शाहपुरा की क्रांतिकारी गतिविधियों और बिजौलिया के किसान आंदोलन ने चेतना की ऐसी चिंगारी सुलगाई, जिसने अपने आस-पास ही नहीं, समूचे देश में एक हलचल पैदा कर दी। ओंकार सिंह लखावत ( पूर्व अध्यक्ष राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण एवं राज्यसभा सांसद) बताते है, कि यहां के ठाकुर केसरीसिंह बारहठ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों के अगुवाओं में थे। इनका जन्म देवपुरा (खेड़ा)में 21 नवम्बर,सन1872 को हुआ। उनके पिता कृष्णसिंह के अलावा महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती और कविराज श्यामलदास का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। केसरी सिंह की प्रतिभा और कार्य शक्ति उच्च कोटि की थी। उनकी डिंगल काव्य शैली और गुणों से राजस्थान के तत्कालीन सभी नरेश मुग्ध थे और उन्हें विशेषकर मेवाड़(उदयपुर)मारवाड़(जोधपुर) हाड़ोती (कोटा) और बीकानेर के राज दरबार में विशेष सम्मान दिया जाता था।
सन1903 में लार्ड कर्ज़न द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में समस्त राजा-महाराजाओं के साथ मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह को भी आमंत्रित किया। इस दरबार में महाराणा का जाना क्रांतिकारियों को अच्छा नहीं लग रहा था, इसीलिए इनमें शेखावाटी के भूरसिंह, जोबनेर के करणसिंह और खरवा के राव गोपालसिंह ने उन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी केसरीसिंह को सौंपी। केसरीसिंह ने ‘चेतावनी रा चूंगटिया’ नामक सौरठे रचे, जिनकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं:
पग–पग भम्यां पहाड़, धरा छांड राख्यों धरम, (ईंसू) महाराणा मेवाड़, हिरदे बसिया हिन्द रै।
(भयंकर मुसीबतों में दुःख सहते हुए मेवाड़ के महाराणा नंगे पैर पहाड़ों में घूमें, घास की रोटियाँ खाईं फिर भी उन्होंने हमेशा धर्म की रक्षा की। मातृभूमि के गौरव के लिए वे कभी बड़ी से बड़ी मुसीबत से विचलित नहीं हुए उन्होंने हमेशा मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया वे कभी किसी के आगे नहीं झुके। इस लिए आज भी मेवाड़ के महाराणा प्रताप जन-जन के हृदय में बसे हुए हैं।)
‘घणा घलिया घमसांण (तोई) राणा सदा रहिया निडर। (अब) पेखत्ता, फ़रमाण हलचल किम फ़तमल। हुवै।, अनगिनत युद्ध लड़ने के बावजूद भी प्रताप कभी विचलित नहीं हुए और न ही डरे।‘
(लेकिन हे महाराणा आप ऐसे शूरवीर कुल में जन्म लेने के बाद भी कर्ज़न के एक फ़रमान से आपके मन में ऐसी हलचल पैदा हो गई, यह हमारी समझ से परे है।)
इसको पढ़कर महाराणा इतने प्रभावित हुए, कि वे दिल्ली पहुंचने के बावजूद दरबार में शामिल नहीं हुए और उदयपुर वापस आ गए । इस प्रकार केसरीसिंह की लेखनी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को वह राह दिखाई, जिससे पूरे देश में हलचल-सी मच गई। इसके अलावा राजपूताना में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए केसरीसिंह और अर्जुन लाल सेठी ने क्रांतिकारी युवाओं को तैयार करने के लिए छात्रावासों की स्थापना कर नौजवानों को स्वराज,स्वतंत्रता, राष्ट्र धर्म, बलिदान एवं सशस्त्र क्रांति की ट्रेनिंग और संस्कार दिया। केसरीसिंह ने वर्धा (महाराष्ट्र) में राजस्थान केसरी साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादन भी किया था। साहित्यकार तेजपाल उपाध्याय बताते हैं, कि सन 1912 में राजपूताना ब्रिटिश सीआईडी, जिन व्यक्तियों पर निगरानी रख रही थी, उनमें केसरीसिंह का नाम सबसे ऊपर था। अंग्रेज़ सरकार ने सन 1912 दिल्ली और सन 1913 लाहौर बम कांड में केसरीसिंह पर राजद्रोह ,षड्यंत्र और क़त्ल आदि के आरोप लगाकर,21 मार्च,सन1914 को उन्हें गिरफ़्तर कर कोर्ट में पेश किया तो उनके वकील ने उनके सम्मान में मजिस्ट्रेट के सामने कहा:
“वो मुल्ज़िम, जिसकी उम्र देश की ख़िदमत में गुज़री है, वो मुल्ज़िम पानी होकर हड्डियां जिसकी बहती हैं। वो मुल्ज़िम केसरी जो जान ओ दिल से देश का हामी, वो जिसकी ख़ूबियां अख़लाक़ का दम भरती हैं।’’
केसरीसिंह ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम क़लम को बनाया था। वे राजनीति में इटली के राष्ट्रपिता मैजिनी को अपना गुरु मानते थे। उनका विश्वास था कि आजादी सशस्त्र क्रांति से ही संभव है। मैजिनी की जीवनी, वीर सावरकर ने, मराठी में लिखकर गुप्त रूप से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को भेजी थी। केसरीसिंह ने इसे मराठी पुस्तक का हिंदी अनुवाद किया था । पहले विश्व युद्ध (1914-1919) की विजय के उपलक्ष्य में, जेल से छुटने के बाद,वे महात्मा गांधी और जमनालाल बजाज के साथ सम्पर्क में आये।14 अगस्त,सन1941 को शौर्य, साहित्य और स्वतंत्रता के इस महान पुजारी का निधन हो गया।
जोरावर सिंह और प्रतापसिंह का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
केसरीसिंह के भाई ज़ोरावर सिंह और पुत्र प्रतापसिंह क्रांतिकारियों में से थे, जिन्होंने सन1912 में लार्ड हार्डिंग पर बम फैंकने की कार्रवाई में भाग लिया था। दिल्ली में ब्रिटिश सरकार के वायसराय लार्ड हॉर्डिंग, बैण्ड की मनमोहक धुन के साथ हाथी पर सवार होकर एक जुलूस के रूप में चल रहे थे। यह जुलूस जब चांदनी चौक पहुंचा, तो विस्फोट हुआ। वायसराय का छत्रधारी मारा गया और वायसराय घायल होकर बेहोश हो गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। बम फैंकने वालों ने ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। बम फैंकने वाले ये बहादुर नौजवान प्रतापसिंह बारहठ और उनके चाचा ज़ोरावर सिंह थे। उनपर, क्रांतिकारियों को हथियार उपलब्ध करवाने के लिए बिहार के आरा ज़िले के महंत के यहां डाका डालने और जोधपुर के धनिक प्यारेलाल साधू से धन लेने के प्रयास में हत्या करने के आरोप लगाए गए।
ज़ोरावरसिंह आजीवन पकड़े नहीं जा सके, वहीं प्रतापसिंह को बनारस षड़यंत्र केस में धोखे से पकड़ कर बरेली जेल भेज दिया। जहाँ अमानवीय यातनाओं के नतीजे में,25 वर्ष की अल्प आयु में वे शहीद हो गए। आज़ादी के दीवाने बारहठ परिवार की देशभक्ति, कर्मठता और त्याग ने इस क्षेत्र में ग़ुलामी और शोषण के विरूद्ध संघर्षरत रहने के जो बीज बोए थे, उन्हीं बीजों ने देश के लिए मर मिटने वाले अनेक स्वतंत्रता सेनानियों को जन्म दिया। वही लोग ग़ुलामी के विरूद्ध जन चेतना जगाने के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति तक निरंतर संघर्षरत रहे। शाहपुरा के त्रिमूर्ति स्मारक पर हर साल23 दिसंबर को शहीद मेले का, पिछले 50 वर्षों से आयोजन किया जा रहा है। इस अवसर पर क्रांतिकारियों को श्रृद्धांजलि अर्पित कर याद किया जाता है।
शाहपुरा में स्थित बारहठ जी की हवेली
शाहपुरा के बीच, श्री चारभुजा मंदिर के पास वाली गली में मौजूद भव्य हवेली को केसरीसिंह जी की हवेली के नाम से भी जाना जाता है। प्रमुख इतिहासकार एवं शिक्षिका पुष्पा शर्मा ने बताया कि इस हवेली का मुख्य द्वार सुंदर मेहराबों से सजा है। इसके प्रवेश-द्वार के आगे चौक और बरामदे तथा अंदर कमरे बने हुए हैं दूसरा चौक छोटा है। ऊपरी मंज़िल पर कमरे और बरामदे, गुप्त मार्ग, एकांत वास भी बना हुआ है। उसी जगह पर स्वतंत्रता सेनानियों में मंत्रणा हुआ करती थी। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के 25 साल बाद, केसरीसिंह के जन्म के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में, सन 1972 के प्रांरभ में शाहपुरा के जागरूक युवाओं ने मिलकर ‘‘श्री केसरीसिंह बारहठ स्मारक समिति’’ का गठन किया। समिति ने राज्य सरकार की मदद इस हवेली को आत्मानंद सुनार के परिवार को 3 लाख 20 बीस हज़ार लाख की रक़म देकर कर हासिल कर ली। बाद में हवेली को 13 नवम्बर,सन1974 को पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग ने, प्राचीन वस्तु अधिनियम के अंतर्गत संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया।
इस हवेली में स्थापित संग्रहालय स्वतंत्रता सेनानियों का तीर्थस्थल और पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र भी है। साथ ही स्थापत्य कला शैली की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण धरोहर है। यहां बारहठ परिवार से संबंधित अमूल्य स्मृतियों को संजोया हुआ है। इस संग्रहालय में बारहठ-बंधुओं यानी 125 वर्ष पुराने क्रांतिकारियों की पहचान रही पगड़ी, घड़ी, टॉर्च, खड़ांऊ, बंदूक़ें, कारतूस, विशेष बॉक्स, दूरबीन, फ़ोटो एलबम, कटार, गुप्ती, तलवार, साहित्य आदि संभाल कर रखे गएहैं। इस हवेली के निर्माण के समय बारहठ कृष्णसिंह उनके पुत्र केसरीसिंह जोधपुर (मारवाड़) महाराजा के पास रहते थे। यह हवेली सन1913 में बनकर तैयार हुई और बारहठ परिवार इसमें रहने लगा था।
स्वतंत्रता के यज्ञ में, शाहपुरा के बारहठ परिवार द्वारा दिया गया बलिदान हमें स्वतंत्रता का महत्व बताता है। हंसते-हंसते सारे दुख सहन करते हुए, उन्होंने अपनी तेज़ धार लेखनी में कहीं भी कोई समझौता नहीं किया ।अपनी लेखनी से स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को प्रेरित ,प्रोत्साहित और संचालित करने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाने वाले ऐसे महान क्रांतिकारी श्री केसरीसिंह बारहठ व उनके परिजनों को आजादी के अमृत महोत्सव पर हम सादर नमन वंदन करते हैं।
मुख्य चित्र : शाहपुरा की ऐतिहासिक हवेली (सौजन्य से: रामप्रसाद पारीक)
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