रुखमाबाई जिन्होंने लहराया बाल-विवाह के ख़िलाफ़ परचम

रुखमाबाई जिन्होंने लहराया बाल-विवाह के ख़िलाफ़ परचम

कल्पना कीजिये कि 19वीं शताब्दी में एक कम उम्र लड़की बॉम्बे बंदरगाह शहर की एक छोटी-सी जगह से निकलकर इंग्लैंड में तूफ़ान खड़ा कर देती है। ये लड़की ब्रिटेन की महारानी क्वीन एलिज़ाबेथ को ख़त लिखकर उसकी तरफ़ से एक मामले में दख़ल देने की अपील करती है। रुखमाबाई या रखमाबाई नाम की इस युवति ने ही ब्रिटेन की महारानी से अपील की थी। वह बाल-विवाह की कठोर व्यवस्था और 1890 के दशक में इस प्रथा से जुड़ी अन्य चीज़ों के ख़िलाफ़ अपने अधिकारों को लेकर लड़ रहीं थीं। रुखमाबाई वो ताक़त थीं जिन्होंने सन 1890 में भारत सरकार को “एज ऑफ़ एक्ट” बनाने पर मजबूर कर दिया था। इस क़ानून के तहत विवाह की एक उम्र तय कर दी गई थी। उन्होंने एक सफल डॉक्टर बनकर ये भी साबित कर दिया था कि महिलाएं भी ऊंचाईयों छू सकती हैं।

मराठी भाषा में रुखमाबाई के जीवन पर मराठी भाषा में एक फ़िल्म बन चुकी है जिसमें उनके साहस और जुझारुपन को दर्शाया गया है। इसका फ़िल्म का प्रचार किया जाना चाहिये ताकि सारे विश्व में लाखों लोग इससे प्रेरणा ले सकें।

रुखमाबाई के सौतेले पिता - सखाराम अर्जुन | विकिमीडिया कॉमन्स

सन 1864 में जन्मी रुखमाबाई के जीवन की शुरुआत कुछ इस तरह से हुई जिसने आगे चलकर उनके संघर्ष में उनकी मदद की। उनकी मां की भी 14 बरस की उम्र में शादी हो गई थी। जब वह 17 वर्ष की थीं, तभी उनके पति की मृत्यु हो गई। वह ख़ुशक़िस्मत रहीं कि उन्होंने जिससे दूसरी शादी की वह खुले दिमाग़ का व्यक्ति था। रुखमाबाई के सौतेले पिता सखाराम अर्जुन प्रसिद्ध डॉक्टर थे और वह शिक्षा के हिमायती थे। इसके अलावा वह अपने समय के मशहूर समाजिक कार्यकर्ता भी थे।

जैसी कि उस समय प्रथा थी, रुखमाबाई का 11 साल की उम्र में दादाजी भिखाजी से विवाह हो गया जिनकी उम्र 19 साल थी। हालंकि रुखमाबाई की कम उम्र में शादी हो गई थी लेकिन उनके पिता सखाराम ने शर्त रखी कि वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ही अपने पति के साथ रहेंगी। सब कुछ ठीक चल रहा था और रुखमाबाई अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रहीं थीं तथा अपने जीवन में और भी बहुत कुछ करने के सपने देख रहीं थीं लेकिन तभी जब वह 23 साल की हुईं, उनके पति ने कहा कि वह अब उनके साथ आकर रहें। इरादे की पक्की रुखमाबाई ने पति के साथ रहने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि तब वह बच्ची थीं और शादी उनकी रज़ामंदी से नहीं हुई थी और उनसे इस बारे में पूछा भी नहीं गया था।

रुख्माबाई | विकिमीडिया कॉमन्स

इस बात से नाराज़ होकर रुखमाबाई के पति दादाजी भिखाजी ने निचली अदालत में उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर कर दिया। अदालत ने फ़ैसला रुखमाबाई के हक़ में सुनाया। अदलात ने कहा कि शादी इस आधार पर ग़ैरक़ानूनी है कि रुखमाबाई से रज़ामंदी नहीं ली गई थी लेकिन उच्च अदालत ने ये फ़ैसला पलट दिया। ये मामला और उलझ गया क्योंकि रुखमाबाई के पति ने हिंदू क़ानून के तहत मुक़दमा दायर किया था जिसकी उच्च अदालत ने अलग तरह से व्याख्या की और आदेश दिया कि रुखमाबाई या तो अपने पति के साथ रहें या फिर छह महीने की जेल की सज़ा काटें। कुछ उपलब्ध रिकॉर्ड्स के अनुसार उन्हें दो हज़ार रुपये जुर्माना भरकर शादी से आज़ाद होने का भी विकल्प दिया गया था। अदालत के इस फ़ैसले से डरे बिना रुखमाबाई ने लिखा कि जुर्माना अदा करने के बजाय वह अधिकतम सज़ा भुगतना चाहेंगी।

मैक्स मुलर | विकिमीडिया कॉमन्स

बहरहाल, रुखमाबाई को ऐसी जगह से समर्थन मिला जिसकी उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी। जर्मनी में पैदा हुए भाषाविद और प्राच्यविद् मैक्स मूलर ने लिखा कि शिक्षा की वजह से रुखमाबाई अपनी पसंद-नापसंद को बेहतर समझती हैं और अदालत को इस मामले में दख़ल नहीं देना चाहिये।

इन तमाम घटनाक्रमों से बाल-विवाह और महिलाओं के अधिकार जैसे विषयों पर व्यापक जन-संवाद शुरु हो गया। इस बीच रुखमाबाई ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में “ए हिंदू लेडी” उपनाम से पत्र लिखने लगीं। 26 जून, सन 1885 में अपने एक लेख में उन्होंने एक ऐसे दकियानूसी समाज में महिला की दुर्गती के बारे में लिखा जो पुरष और महिलाओं के बीच भेदभाव करता है। उन्होंने बाल-विवाह प्रथा समाप्त करने और पुरुष तथा महिला दोनों के विवाह की उम्र बढ़ाने की पुरज़ोर वकालत की। उस लेख के इस हिस्से से उनके दृष्टिकोण का पता चलता है: “आप, महानुभव, लंबे समय से भारत के उत्थान का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। अगर कला और विज्ञान तरक़्क़ी करती है, अगर हम लोगों के बीच व्यापार और उद्योग फलता फूलता है, तो क्या आपको लगता है कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा, भारत में ख़ुशहाली आ जाएगी। लेकिन क्या आपको वाक़ई लगता है कि ( मैं हाथ 3जोड़कर निवेदन करती रहूं कि आप ठंडे दिमाग़ से सोचें) जब आप लड़के और लड़कियों को उनकी नाबालिग उम्र में ही बाप और मां बनने की छूट दे देते हैं तो क्या ऐसे में ख़ुशहाली संभव है? क्या आप ऐसे लड़के-पति और लड़की-पत्नी से किसी अच्छी या महान चीज़ की अपेक्षा कर सकते हैं जिन पर परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ लाद दिया गया हो और जिन्हें ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयों से दो-चार होना पड़ रहा हो? क्या आपको लगता है कि ऐसे माता-पिता, जिन्हें ख़ुद शारीरिक और मानसिक शक्ति की ज़रुरत है, उनके बेटे और बेटियां अपना अच्छा भविष्य बना सकते है जिसकी, मुझे ये कहने के लिये माफ़ करें, आप उनसे ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं?”

रुखमाबाई को घर से ज़बरदस्त समर्थन मिला। उनके सौतेले पिता और अन्य लोगों ने उनका साथ दिया। कवि, पत्रकार, लेखक और समाज सुधारक बहरामजी मलाबारी तथा सामाजिक सुधारक और महिलाओं की आज़ादी के लिए लड़ने वाली पंडिता रमाबाई जैसे लोगों ने रुखमाबाई के लिये एक सुरक्षा समिति बनाई जो अपने केस की तरफ़ जनता का ध्यान आकृष्ट करना चाहती थीं।

क्वीन विक्टोरिया | विकिमीडिया कॉमन्स

इतने समर्थन के बावजूद रुखमाबाई के लिये भारत में दक़ियानूसी सामाजिक व्यवस्था और अदालतों के ख़िलाफ़ जीतना मुश्किल हो गया था। लेकिन रुखमाबाई ने हार नहीं मानी और अंग्रेज़ शासित भारत की सर्वोच्च व्यक्ति के सामने अपील कर दी। ये सर्वोच्च व्यक्ति कोई और नहीं महारानी विक्टोरिया थीं। महारानी विक्टोरिया के शासन की स्वर्ण जयंती (1887) के मौक़े पर रुखमाबाई ने उन्हें पत्र लिखकर हिंदू क़ानून में बदलाव का आग्रह किया। क्वीन विक्टोरिया पहले से ही भारत में महिला अधिकारों और उनसे जुड़े मामलों को लेकर चिंतित थीं। उन्होंने एक विशेष आदेश जारी कर रुखमाबाई की शादी रद्द करवा दी और उन्हें जेल जाने से बचा लिया। क्वीन विक्टोरिया के इस आदेश के बाद “ एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट ” पर बात होने लगी और ये क़ानून सन 1891 में बन गया जिसमें विवाह की उम्र तय कर दी गई।

जब रुखमाबाई ने डॉक्टरी की पढ़ाई करने की इच्छा व्यक्त की तो उनके लिये फ़ौरन धन जमा किया गया ताकि वह लंदन स्कूल ऑफ़ मेडीसिन में पढ़ाई कर सकें। सन 1889 में वह इंग्लैंड चली गईं और सन 1895 में भारत वापस आ गईं । इस तरह वह भारत में पहली महिला डाक्टरों में से एक हो गईं। उन्होंने सूरत में एक महिला अस्पताल में काम किया । सन 1929 में सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने एक पत्रिका निकाली जिसमें उन्होंने “ परदा-प्रथा ख़त्म करने की ज़रुरत” पर बल दिया।

लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन | विकिमीडिया कॉमन्स

हालंकि “ एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट-1891” अंग्रेज़ शासित भारत में 19 मार्च सन 1891 को लागू कर दिया गया था लेकिन इसका दायरा सीमित था। इसमें सभी लड़कियों, विवाहित या अविवाहित, के लिये शारीरिक संबंध बनाने की उम्र दस वर्ष से बढ़ाकर बारह वर्ष कर दी गई थी। लेकिन उसके बाद, पिछली एक सदी में इस क़ानून में कई संशोधन हो चुके हैं। हाल ही में इसमें फ़ौजदारी क़ानून (संशोधन) एक्ट-2013 के तहत संशोधन किया गया जिसमें शारीरिक-सम्बंध बनाने की उम्र बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है।

पूरे विश्व में महिलाओं के अधिकारों के लिये कड़ा संघर्ष किया गया है और अभी इस दिशा में और भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। लेकिन अपने संघर्ष के साथ साथ ये भी महत्वपूर्ण है कि हम रुखमाबाई जैसी महिलाओं को याद करें जिन्होंने बहुत पहले महिलाओं की आज़ादी और अधिकारों के लिए रहनुमाई की और मशाल जलाई थी।

आज मुम्बई में, ग्रांट रोड के पास गामदेवी में आज भी रुखमाबाई के घर में एक स्कूल चलता है। यही उनकी इच्छा थी। एक ऐसी महिला की धरोहर को संजोकर रखने का इससे बेहतर तरीक़ा और क्या हो सकता है जिसके लिये शिक्षा ने ही विश्व के दरवाज़े खोल दिए थे।

आवरण चित्र- साभार-रॉयल मराठा एंटरटेंनमेंट

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