14 सितंबर को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप को समर्पित एक विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी। इस राज्य-स्तरीय विश्वविद्यालय का जनवरी, सन 2023 तक तैयार होने का अनुमान है। विश्वविद्यालय के दायरे में अलीगढ़, हाथरस, कासगंज और एटा के कॉलेज आएंगे। लेकिन दुख की बात ये है, कि ज़्यादातर भारतीयों को पता ही नहीं, कि राजा महेंद्र प्रताप कौन थे? या भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान क्या था? वह उन चंद भारतीयों में से एक थे, जिन्हें शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था, हालंकि उन्हें ये पुरस्कार कभी नहीं मिला।
1 दिसंबर, सन 1886 को उत्तर प्रदेश के मुरसन (हाथरस) के एक शाही जाट परिवार में जन्मे प्रताप ने सन 1895 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेजिएट स्कूल (1920 में इसका नाम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय हो गया) में दाख़िला लिया, जहां वह इसके संस्थापक सर सैयद अहमद ख़ां (1817-1898) के सामाजिक कार्यों से बहुत प्रभावित हुये। पढ़ाई के दौरान उनका झुकाव धीरे-धीरे मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद की ओर हुआ, तथा वे शाही जीवन से दूर हो गए।
राष्ट्रवाद के साथ प्रताप का परिचय बंगाल विभाजन (1905) के एक साल बाद यानी सन 1906 में हुआ। बंगाल विभाजन ने राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रवाद की भावना को जगाया था। अपने पिता और अपने ससुराल वालों (जींद का शाही परिवार, अब हरियाणा में) की इच्छा के ख़िलाफ़ जाते हुए, उन्होंने सन 1906 में, कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। यहीं से उन्होंने ख़ुद को स्वदेशी घोषित कर अपने सभी विदेशी कपड़े जला डाले। इससे उनके परिवार और उनके शाही ससुराल वाले बहुत निराश हुये, क्योंकि वे अपना विदेशी सामान जलाना नहीं चाहते थे!
सर सैयद से प्रेरित होकर और शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने के इरादे से, प्रताप ने 24 मई सन 1909 को वृंदावन (उत्तर प्रदेश) में पांच गाँव, अपनी हवेली, एक 80 एकड़ का बगीचा, और कई जंगम दान करके प्रेम विश्वविद्यालय की स्थापना की। ये तमाम संपत्तियां उसी शहर में थीं, जहां उन्होंने अपना बचपन बिताया था। गुरुकुल और तकनीकी शिक्षा के तालमेल के एक उदाहरण के रूप में प्रेम विश्वविद्यालय का नाम प्रताप के पुत्र के नाम पर रखा गया था। इसका उद्देश्य वृंदावन में शिक्षा की प्रगति करना था।
प्रताप ने सन 1913 में अपने चिकित्सा मिशन के हिस्से के रूप में बाल्कन युद्ध (1912-13) में अपने अलीगढ़ के सहपाठियों के साथ अपना मर्ज़ी से शामिल होने का फ़ैसला किया, लेकिन दुर्भाग्य से जब वे अलीगढ़ पहुंचे, तो उनके दोस्त वहां से जा चुके थे। इसके बाद वे देहरादून (उत्तराखंड) चले गये, और वहां एक प्रिंटिंग प्रेस खोली। यहां से उन्होंने “निर्बल सेवक” नाम की एक पत्रिका निकाली। पहले विश्व युद्ध (1914-1919) के दौरान उनका करिअर बहुत छोटा रहा। उन्होंने अंग्रेज़ों से लड़ने और उन्हें देश से भगाने के लिए जर्मनों के प्रति अपने झुकाव के बारे में लिखा, जो स्थानीय मजिस्ट्रेट को पसंद नहीं आया और उसने उन्हें गिरफ़्तार करने के लिये कुछ पुलिसकर्मियों को भेजा। सौभाग्य से, वह बंबई भाग गये और दिसंबर सन 1914 में समुद्र मार्ग से जिनेवा चले गये।
जनवरी,सन 1915 में जिनेवा पहुंचने के बाद प्रताप वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के संपर्क में आए, जिन्होंने ग़दर आंदोलन (1913-1948) के हिस्से के रूप में बर्लिन समिति की स्थापना की थी। ये आंदोलन लाला हरदयाल और सोहन सिंह बखना जैसे अमेरिका और यूरोप में रहने वाले कई भारतीय क्रांतिकारियों ने शरु किया था। संघर्ष के कारण सैनिकों के लाचार होने के अवसर का फ़ायदा उठाते हुये जर्मनी के साथ हाथ मिलाने और भारतीय छावनियों से सैनिकों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उकसाने और अंग्रेज़ों पर हमला करने की योजना बनाई गई।
घटनाक्रम का जायज़ा लेने के बाद, हिंदू-जर्मन साज़िश के हिस्से के रूप में, प्रताप और चट्टोपाध्याय सन 1915 में बर्लिन रवाना हुए। जहां वे कैसर विल्हेम-II (शासनकाल 1888-1918) से मिले। विल्हेम ने प्रताप को रेड-ईगल (दूसरी श्रेणी) सम्मान से सम्मानित किया। दोनों ने मिस्र के विस्थापित सुल्तान अब्बास हिल्मी (शासनकाल 1892-1914) से भी मुलाक़ात की, जिन्होंने उनके संघर्ष का समर्थन किया। कैसर ने उन्हें अफ़ग़ानिस्तान से समर्थन हासिल करने के लिए अनुभवी क्रांतिकारी मौलाना मोहम्मद बरकतुल्लाह के साथ जर्मन राजनयिक वर्नर ओटो वॉन हेंटिंग की सेवा मुहैया कराईं। अफ़ग़ानिस्तान की ओर रवाना होते वक़्त, वे इस्तानबुल में रुके, जहां तुर्की के रक्षा मंत्री एनवर पाशा ने तुर्की राजनयिक रऊफ बे के नेतृत्व में 2000 आफ़रीदी सैनिकों को उनके साथ भेजा। इसके बाद वे 2 अक्टूबर, सन 1915 को काबुल पहुंचे ,जहां अफ़ग़ानिस्तान के अमीर हबीबुल्लाह (शासनकाल 1901-1919) ने उनका स्वागत किया। जर्मनी, मिस्र, तुर्की और अब अफ़ग़ानिस्तान से समर्थन मिलने के बाद 1 दिसंबर, सन 1915 को प्रताप के नेतृत्व में भारत की पहली प्रांतीय सरकार बनी। दिलचस्प बात यह है, कि सरकार की स्थापना के दिन प्रताप का 49वां जन्मदिन भी था!
लेकिन इस बीच एक साज़िश का दावा किया गया। दरअसल अमेरिका मित्र देशों को हथियार सप्लाई कर रहा था। दावा यह था, कि जर्मनी,अमेरिका की हथियार सप्लाई की कोशिशों को और ब्रिटेन के राजनयिक दबाव को नाकाम करने में लगा था । इन कारणों से अमेरिकी सरकार ने एक जर्मन एजेंट अर्नस्ट सेक्कुना और एक भारतीय क्रांतिकारी सी.के. चक्रवर्ती को गिरफ्तार कर लिया, जिन्होंने सभी योजनाओं का पर्दाफ़ाश कर दिया। नतीजे में अमेरिका और भारत में बड़े पैमाने पर मुक़दमेंबाज़ी हुई, गिरफ्तारियां हुईं, निर्वासन हुआ और ग़दर आंदोलन में शामिल लोगों को मौत की सज़ा सुनाई गई। ऐसा ही अफ़ग़ानिस्तान में भी हुआ और ब्रिटिश दबाव में आकर शाही दरबार ने अपना समर्थन वापस ले लिया।
प्रताप ने पत्रों के माध्यम से बोल्शेविक क्रांति में शामिल लोगों से संपर्क किया। सन 1919 में यूरोप की अपनी एक यात्रा के दौरान उन्हें यह जानकर बहुत धक्का लगा, कि हबीबुल्लाह की उनके बेटे अमानुल्लाह (शासनकाल 1919-1926) की हत्या कर दी। उन्होंने ये भी सुना, कि हबीबुल्लाह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध (एंग्लो-अफगान युद्ध 1919) की घोषणा कर दी है। युद्ध के ऐलान की वजह से अफ़ग़ानिस्तान को अपने विदेशी मामलों पर पूरी आज़ादी मिल गई, और इसी के साथ ब्रिटिश प्रभाव से भी आज़ादी मिल गई। प्रताप को काबुल बुलाया गया, और उन्हें अपने दूत के रूप में अफ़ग़ानिस्तान के लिये समर्थन जुटाने की ज़िम्मेदारी दी गई। प्रताप को दुनिया भर की हुकूमतों तक पत्र पहुंचाने का काम सौंपा गया। इस तरह उन्हें अफ़ग़ानिस्तान की नागरिकता भी दे दी गई। लेकिन सन 1921 में जब अफ़ग़ान और अंग्रेज़ों के बीच शांति संधि हुई, तो अफ़ग़ानिस्तान ने प्रताप का साथ छोड़ दिया, इसी वजह से प्रताप को रूस जाना पड़ा। रुस में एक बैठक में उन्होंने एम.एन. रॉय के साथ अपने विचार साझा किये। रॉय बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने।
आज़ादी पाने के लिए प्रताप ने काबुल, वियना तथा बर्लिन जैसे यूरोपीय शहरों की यात्रा की जहां वे कई भारतीय क्रांतिकारियों से मिले। सन 1925 में उन्होंने कैलिफ़ोर्निया का दौरा किया और नेपाल में ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन शुरू करने के लिए उन्हें पचास हज़ार रुपये, और दस ग़दर क्रांतिकारी मुहैया कराये गये। फिर वह जापान पहुंचे और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी बोस से दोस्ती की। बोस उन दिनों अंग्रेजों से बचकर टोक्यो में रह रहे थे। प्रताप वहां से दलाई लामा का समर्थन हासिल करने के लिए तिब्बत गये, लेकिन दलाई लामा का समर्थन बस पत्रों तक ही सीमित रहा, और कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया।
निराश होकर प्रताप सन 1926 के अंत में ओसाका वापस आ गए, और सन 1927 में रास बिहारी के साथ शंघाई में दूसरे पैन-एशियाटिक सम्मेलन में शामिल हुये। “जापान एडवर्टायेज़र” के, 21 अक्टूबर सन 1927 के संस्करण में उन्होंने एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें उन्होंने एशियाई देशों के भीतर भारत की आज़ादी और एकता की वकालत की थी। उनके उस साक्षात्कार को दूरदराज़ के पूर्व के देशों में भारी समर्थन मिला। इसका लाभ उठाते हुए प्रताप ने चीन और जापान के भीतर कई यात्राएं कीं, जहां उन्होंने एशियाटिक कल्चर लीग जैसे कई संगठन बनाये । इस संगठन का मक़सद एक पैन-एशियाई प्रांत बनाना था, जिसमें सुदूर पूर्व एशियाई राष्ट्र शामिल थे।
लीडेन विश्वविद्यालय की डॉ. कैरोलियन स्टोल्टे अपनी किताब “इनफ़ ऑफ़ द ग्रेट नेपोलियन!” राजा महेंद्र प्रताप्स’ पैन-एशियन प्रोजेक्ट्स (1929-1939)”, (2012), में लिखती है कि पैन-एशियाई नेताओं के साथ प्रताप की बातचीत ने उन्हें सन 1929 में विश्व संघ आंदोलन की स्थापना के लिए प्रेरित किया। सन 1929 में उन्होंने मासिक पत्रिका “वर्ल्ड फेडरेशन” निकाली, जिसमें उन्होंने भारत की स्वतंत्रता और एक पैन-एशियाई प्रांत की अवधारणा की वकालत की। ऐसा दावा किया जाता है, उसी वर्ष प्रताप ने अपनी मातृ संस्थान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को ज़मीन का एक हिस्सा पट्टे पर दिया था। इस जगह पर आज तिकोनिया पार्क स्थित है। लेकिन इस दावे की प्रमाणिकता के लिये बमुश्किल कोई सबूत है।
भारत की आज़ादी के लिए प्रताप के प्रयासों ने उन्हें भारत में प्रसिद्ध भी बनाया, और कुख्यात भी । सन 1920 और सन 1930 के अंतिम दशकों में अंग्रेज़ों ने प्रेम विश्वविद्यालय को बंद करने के कई प्रयास किये, लेकिन सौभाग्य से डॉ. तेज बहादुर सप्रू जैसे नेताओं के साथ-साथ मथुरा और वृंदावन के लोगों की दख़लन्दाज़ी की वजह से ये कोशिश कामयाब नहीं हो सकी। प्रेम विश्वविद्यालय कई कांग्रेसियों और क्रांतिकारियों के मिलने की जगह बन गई थी। ये लोग अंग्रेज़ों के जासूसों को चकमा देने के लिये प्रोफ़ेसरों के भेस में आते थे।
सन 1930 का दशक प्रताप के लिये काफ़ी सफ़ल रहा। टोक्यों में उन्हें काफ़ी सफलता मिली। उन्होंने कोआगाकुजी-कू यानी एशिया की भावी पीढ़ी के लिये एक स्कूल की स्थापना की, जहां वे अपने छात्रों को जापान के कर्तव्यों के बारे में व्याख्यान देते थे। उनके प्रयासों ने पैन-पैसिफ़िक गुड रिलेशंस क्लब और ओरिएंटल विमेंस एसोसिएशन जैसे कई संगठनों की नींव रखी। ये संगठन एशियाई देशों के बीच संबंधों की वकालत करते थे। इसके अलावा कई इंडो-जापानी संगठन भी स्थापित किए गये, जिसकी वजह से वह प्रमुख कांग्रेस नेता आनंद मोहन सहाय के नज़दीक आ गये। सहाय बाद में आज़ाद हिंद फ़ौज का हिस्सा बने। रास बिहारी के साथ दोनों ने कई सोसाइटी बनाईं, व्याख्यान दिये और कई बैठकें आयोजित की। इसकी वजह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ एशियाई राष्ट्रों का गहरा संबंध स्थापित हो गया। तीनों व्याख्यान देने चीन भी गये थे, जिसे सुनने कई छात्र आते थे।
उपनिवेशवाद और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय बनाने के, प्रताप के व्यापक प्रयासों ने कमिशन ऑफ़ द परमानेंट इंटरनैशनल पीस ब्यूरो के सदस्य डॉ. एन.ए. निल्सन का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने सन 1932 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए प्रताप का नाम आगे बढ़ाया।
बहरहाल ये पुरस्कार प्रताप को नहीं मिला।
लेकिन प्रताप की सफलता थोड़े दिनों के लिये थी। इस बीच दूसरा विश्व युद्ध (1939-1945) शुरु हो गया। जापान ने ग्रेट फ़ार ईस्ट एशिया की अवधारणा बनाई, जो प्रताप की अवधारणा के विरुद्ध थी। इससे प्रताप बहुत निराश हुये और उन्हें ये बात पसंद भी नहीं आई। वह आजाद हिंद फ़ौज से अलग होकर “वर्ल्ड फ़ेडरेशन” के काम पर ध्यान देने लगे, क्योंकि उसकी सदस्यता अब घटने लगी थी।
सन 1945 में जापान के आत्मसमर्पण के बाद, जब अमेरिकी सैनिकों ने जापान पर क़ब्ज़ा कर लिया, तो प्रताप को जापानी सहयोगी के रूप में टोक्यो की सुगामो जेल में डाल दिया गया। लेकिन सन 1946 की शुरुआत में, ब्रिटिश सरकार ने प्रताप को अपने देश जाने की इजाज़त दे दी । क्यूंकि तब ब्रिटिश सरकार भारत से जाने की तैयारी कर रही थी, और वह युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना की सहयोगी भी थी। इस तरह, 9 अगस्त, सन 1946 को, प्रताप” सिटी ऑफ़ पेरिस ” जहाज़ से मद्रास पहुंचे, जहां से वह विमान से कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता में सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी मणिबेन ने उनका स्वागत किया।
सन 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद, प्रताप भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के संघ के अध्यक्ष के रूप में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों को सार्वजनिक करने का काम में लगे रहे। प्रताप ने मथुरा निर्वाचन क्षेत्र से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, और दूसरे लोकसभा चुनाव (1957) में जीत हासिल की। इस चुनाव में उन्होंने जनसंघ के 33 साल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को हराया था, जो सन 1998 और सन 1999 में भारत के प्रधान मंत्री बने।
प्रताप ने पंचायत राज के अपने नज़रिये की वकालत की, ताकि नौकरशाही बाधाओं को कम करके आम लोगों को सत्ता दी जा सके। ये काम वह अपने अंतिम दिनों तक करते रहे। 29 अप्रैल सन 1979 को उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली।
अफ़सोस की बात है, कि बहुत कम लोग ये जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अलावा राजा महेंद्र प्रताप भी थे, जिन्होंने दुनिया भर में यात्राएं कीं और भारत की आज़ादी के लिए वैश्विक एकता की वकालत की। वह अपने बाद की पीढ़ी के लिये महान यात्राओं और बलिदानों की लम्बी-चौड़ी विरासत छोड़ गये हैं, जिसने भारत की स्वतंत्रता के साथ-साथ एक नहीं बल्कि कई देशों के साथ वर्तमान राजनयिक संबंधों की नींव भी डाली।
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