महाराजा शेर सिंह के अंत की दर्दभरी कहानी

महाराजा शेर सिंह के अंत की दर्दभरी कहानी

महाराजा शेर सिंह  शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के दूसरे शहज़ादे थे। शहज़ादे खड़क सिंह इनके बड़े भाई थे। शेर सिंह का जन्म 4 सितम्बर सन 1807 को हुआ था। उनकी माता का नाम महारानी महिताब कौर था।

महाराजा शेर सिंह को युद्ध-विद्या के साथ-साथ अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी भाषा में भी महारथ हासिल थी।

शहज़ादा शेर सिंह की पहली शादी नकई मिसल के रईस की पुत्री बीबी देसा से हुई थी। लेकिन बीबी देसा का शादी के कुछ दिनों बाद ही देहांत हो गया था। उनकी मृत्यु के पश्चात् शहज़ादे की दूसरी शादी सरदार हरी सिंह वडै़च की बेटी बीबी प्रेम कौर से हुई। बीबी प्रेम कौर ने 14 दिसम्बर सन 1831 को शहज़ादे प्रताप सिंह को जन्म दिया। इसके बाद शेर सिंह ने, रानी प्रताप कौर (पुत्री जगत सिंह बराड़), रानी दखनू, रानी धर्म कौर रंधावा उर्फ़ रानी रंधावी (पुत्री सरदार जोध सिंह रंधावा), रानी नंद कौर (पुत्री सरदार चंडा सिंह भिट्टीविंड) तथा रानी जेबो से विवाह किया।

27 जून सन 1839 को महाराजा रणजीत सिंह के निधन के तुरंत बाद जब उनके बड़े शहज़ादे खड़क सिंह तथा पौत्र कंवर नौनिहाल सिंह का एक ही दिन मे क़त्ल कर दिया गया, तो राज्य के सामने यह समस्या खड़ी हो गई, कि खालसा राज्य का नेतृत्व कौन करेगा?

महाराजा रणजीत सिंह

जब शहज़ादा शेर सिंह को तख़्त पर बैठाने की बात चली, तो गुलाब सिंह डोगरा ने साज़िश रचकर महाराजा खड़क सिंह की विधवा रानी चंद कौर को तख़्त पर बिठवा दिया। डोगरा के बहकावे में आकर चंद कौर ने भी यह बहाना बना दिया, कि शहज़ादा नौनिहाल सिंह की रानी साहिब कौर गिलवालन गर्भवती हैं। अगर उनके घर बेटा हुआ, तो महाराजा वही बनेगा और अगर लड़की हुई तो शेर सिंह को महाराजा बनाया जाएगा।

इस पर शेर सिंह वापस बटाला शहर आ गए। कुछ समय बाद इस बात का पर्दाफ़ाश हो गया, कि शहज़ादा नौनिहाल सिंह की कोई भी रानी गर्भवती नहीं थी। डोगरा सरदारों ने दो गर्भवती कश्मीरी महिलाओं को धन का लालच देकर यह वादा ले लिया था, कि जिसके यहां लड़का पैदा होगा, वह उसे रानी साहिब कौर की झोली में डाल देगी। परन्तु दोनों कश्मीरी दासियों के घर लड़कियों ने ही जन्म लिया।

डोगरा सरदारों की ऐसी चालों तथा लगातार हो रही लूट-खसोट और अत्याचारों से पूरे लाहौर में बेअमनी फैल चुकी थी और राज गद्दी पर क़ब्ज़े के लिए साज़िशें रची जा रही थीं। राज्य की इस बिगड़ती हालत को सुधारने के लिए राज्य के पंचों तथा दरबारियों ने लाहौर की मियां मीर छावनी में एक सभा करके सर्वसम्मति से फ़ैसला लिया, कि पंजाब का शासन शहज़ादे शेर सिंह को सौंपने के लिए जल्द से जल्द उसे लाहौर बुलाया जाए।

महाराजा शेर सिंह

14 फ़रवरी सन 1841 को रात आठ बजे शेर सिंह ने लाहौर पर चढ़ाई कर दी। परन्तु डोगरा सरदारों ने अपने आप महारानी की ओर से शहर में यह ऐलान करवा दिया, कि खालसा राज्य के कुछ दुश्मन शेर सिंह को बटाला से लाहौर पर चढ़ाई करने के लिए लेकर आए हैं और शेर सिंह लाहौर पर क़ब्ज़ा करने के बाद रानी को बाहर निकाल देगा। इसीलिए सब डटकर शेर सिंह का मुक़ाबला करें और उसे शहर पर कब्ज़ा न करने दें। इस सबके बावजूद शेर सिंह ने क़िला लाहौर पर क़ब्जा कर लिया।

लाहौर का क़िला | ब्रिटिश लाइब्रेरी

27 जनवरी सन 1841 को शेर सिंह को गद्दी सौंपी गई और उसका राजतिलक किया गया।

डोगरा सरदारों, गुलाब सिंह तथा ध्यान सिंह ने एक साज़िश के तहत 11 जून सन 1842 को रानी चंद कौर का उसी की कश्मीरी दासियों के हाथों क़त्ल करवा दिया। उसके बाद संधावालिया सरदारों के साथ मिलकर महाराजा शेर सिंह को ख़त्म करने की योजना बनाई। जिसकी वजह से 15 सितम्बर सन 1843 को खेलों के शौक़ीन महाराजा शेर सिंह के सामने खेल मेला लगवाया गया। महाराजा शाह बहलोल (नया नाम कोट ख़्वाजा सईद) कुर्सी पर बैठे हुए थे (उस दिन ध्यान सिंह डोगरा बीमारी का बहाना बना कर क़िले में ही रह गया)।

अजीत सिंह संधावालिया 400 घुड़सवारों के साथ, आगे चलता हुआ महाराजा के सामने आया। उसने महाराजा के सामने हथियार रखे और हथियार खरीदने के शौकीन महाराजा शेर सिंह के हुज़ूर में एक दोनाली मौलीदार राईफ़ल पेश की। जैसे ही शेर सिंह बन्दूक को पकड़ने के लिए कुर्सी पर से उठे; अजीत सिंह ने उन पर गोली चला दी और वे तड़प कर उसी कुर्सी पर गिर गए। उन के मुँह से सिर्फ़ इतना ही निकला-”यह तो दग़ा है।”

लाहौर में शाह बहलोल (नया नाम कोट ख़्वाजा सईद) की बारादरी, जहां अजीत सिंह संधावालिया ने महाराजा शेर सिंह की हत्या की

अभी वे आख़िरी सांस ले ही रहे थे, कि अजीत सिंह ने तलवार से उनका सिर काटकर नेजे़ पर चढ़ा लिया। उधर दूसरी ओर गोली की आवाज़ सुनते ही लहिणा सिंह संधावालिया (अजीत सिंह लहिणा सिंह के भाई वसावा सिंह का पुत्र था और लहिणा सिंह रिश्ते में शेर सिंह का चाचा लगता था) ने तलवार पकड़ी और शेर सिंह के सुपुत्र प्रताप सिंह की ओर चल पड़ा। प्रताप सिंह अभी अपने दादा के सम्मान में झुका ही था, कि खूंख़ार दादा ने अपने पौत्र की गर्दन काट कर नेज़े पर चढ़ा ली।

बाबा प्रेम सिंह ‘होती’ इस ख़ौफ़नाक दृश्य का भावनात्मक वर्णन करते हुए लिखते हैं,“उस समय भुलक्कड़ सरदार लहिणा सिंह यह नहीं जानता था, कि वह सिर्फ़ निर्दोष बच्चे का सीस ही नहीं काट रहा, बल्कि साथ ही सिख राज्य की जड़ें भी काट रहा है। मासूम शहज़ादे के कटे हुए सीस की दोनों आँखें ख़ून के आँसू बहा रही थीं; परन्तु पास खड़े दादा के दयाहीन नैनों में एक भी आँसू नहीं था। सामने पड़ी बांके प्रताप सिंह की बिना सीस के तड़प रही देह अंतिम स्वासों को विदायगी दे रही थी, परन्तु पास खड़े दादा के मन में न तो तड़़प थी और न ही कोई शर्मिंदगी। यहीं पर बस नहीं, ‘बहादुर’ लहिणा सिंह ने शहज़ादे के लहू-लुहान सीस को धरती से उठा कर अपने नेज़े की नोक पर टांग लिया और जान तोड़ रही अपने मासूम पौत्र की देह को वहीं पर कौव्वों तथा कुत्तों के रहमोकर्म पर छोड़कर झट से घोड़े पर सवार होकर शान से नेजे़ को हवा में घुमाते हुए चला गया।”

इस उक्त भयानक तथा घृणित दृष्य के चश्मदीद मौलवी अहमद चिश्ती अपने रोज़नामचे में इस घटना का विवरण देते हुए बेहद पीड़ित हृदय से लिखते हैं- “जिस समय शहज़ादा प्रताप सिंह को अति निर्दयता से क़त्ल किया गया, मैं उस समय शालीमार बाग़ की ओर जा रहा था, कि मुझे संयोग से लहिणा सिंह अपने घुड़सवारों के साथ आता हुआ मिल गया। उसने शहज़ादे का धड़ से अलग किया हुआ सीस अपने नेज़े की नोक पर टांगा हुआ था। प्रताप सिंह के बिखरे हुए केस, जो काफ़ी लंबे थे, तिल्ले की सुनहरी तारों की तरह चमक रहे थे। उसके सुंदर मुखड़े की गुलाबी रंगत खून की धारियां पड़ने से ज्यादा लाल-गुलाल हो गई थी।

मालूम होता था, कि जब लहिणा सिंह ने उसकी गर्दन पर अपनी तलवार चलाई थी तो शहज़ादा अपनी आँसू भरी आँखों से अपने ‘दादा जी’ की तरफ़ टुकुर-टुकुर देख रहा था। उसके कटे हुए सीस की हैरान आँखें खुली हुई ऐसे प्रतीत हो रही थीं, जैसे कह रही हों, कि मुझे उस समय अपने ‘प्यारे दादा जी’ से मिन्नत और वास्ता देकर कोई नहीं बचा सका, तो अब ही कोई दयावान पहुँच कर, शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के लाडले पौत्र की मक्खन-दूध से पली देह को कौव्वों-कुत्तों से बचाकर अग्नि को भेंट कर दे।”

खैर, बाद में महाराजा शेर सिंह तथा उनके शहज़ादे के कटे हुए सीस लाहौर शाही क़िले में से मिल जाने पर शाह बहलोल के अहाते में दोनों की शवों का एक साथ संस्कार कर दिया गया। इस समाधि की चूनेगच्च तथा गुंबददार इमारत शेर सिंह की पत्नी रानी धर्म कौर रंधावी ने चबूतरे पर बनवाई थी। इस समाधि के भीतर जाने के लिए दो दरवाजे थे; एक उत्तर की ओर तथा दूसरा दक्षिण की ओर। फ़र्श के ऊपर छोटी गोल समाधियां बनी हुईं थीं। जिन में से पूर्व दिशा की ओर महाराजा शेर सिंह की समाधि थी तथा पश्चिम की ओर शहज़ादा प्रताप सिंह की समाधि और इसके साथ ही रानी प्रताप कौर की भी समाधि थी; जिसने महाराजा की जल रही चिता में छलांग लगाकर खुद को भस्म कर लिया था।

लाहौर में शाह बहलोल (नया नाम कोट ख़्वाजा सईद) की बारादरी से सटी महाराजा शेर सिंह की समाधि

इस समाधि के ऊपर इबारत दर्ज थी- “स. ठाकुर सिंह (मुत्बन्ना/दत्तक पुत्र) की मां और महाराजा शेर सिंह बहादुर की पत्नी रानी प्रताप कौर, देहांत 10 भाद्रों, 1914 सम्वत।” इसके साथ ही रानी धर्म कौर रंधावी की समाधि थी, जिस के ऊपर इबारत दर्ज थी- “समाधि रानी साहिबा रंधावी धर्म कौर पत्नी महाराजा शेर सिंह। देहांत 14 मघ्घर, 1927 सम्वत।” इन समाधियों की अंदरूनी दीवारों पर दस गुरू साहिबान के तेल-चित्र बने हुए थे।

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